आत्मा पर उद्धरण

आत्मा या आत्मन् भारतीय

दर्शन के महत्त्वपूर्ण प्रत्ययों में से एक है। उपनिषदों ने मूलभूत विषय-वस्तु के रूप में इस पर विचार किया है जहाँ इसका अभिप्राय व्यक्ति में अंतर्निहित उस मूलभूत सत् से है जो शाश्वत तत्त्व है और मृत्यु के बाद भी जिसका विनाश नहीं होता। जैन धर्म ने इसे ही ‘जीव’ कहा है जो चेतना का प्रतीक है और अजीव (जड़) से पृथक है। भारतीय काव्यधारा इसके पारंपरिक अर्थों के साथ इसका अर्थ-विस्तार करती हुई आगे बढ़ी है।

आत्मा की हत्या करके अगर स्वर्ग भी मिले, तो वह नरक है।

प्रेमचंद

मैं शरीर में रहकर भी शरीर-मुक्त, और समाज में रहकर भी समाज-मुक्त हूँ।

राजकमल चौधरी

आत्मा तर्क से परास्त हो सकती है। परिणाम का भय तर्क से नहीं होता, वह पर्दा चाहता है।

प्रेमचंद

संगीत दो आत्माओं के बीच फैली अनंतता को भरता है।

रवीन्द्रनाथ टैगोर

अमिश्रित आदर्शवाद में मुझे आत्मा का गौरव दिखाई देता है।

गजानन माधव मुक्तिबोध

हम मात्र एक, ‘भटकन’ हैं, अपनी आत्मा के विशाल दृश्यों में कोई अर्थ ढूँढ़ते हुए।

यून फ़ुस्से

पुरुष और स्त्री की आत्माएँ दो विभिन्न पदार्थों की बनी हैं।

भुवनेश्वर

(हिंदी में) ‘आत्मकथ्य’ केवल एक शब्द भर है। यहाँ आत्मा को शक से देखा जाता है और कथ्य पर कोई भरोसा नहीं करता।

शरद जोशी

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