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आँख पर उद्धरण

आँखें पाँच ज्ञानेंद्रियों

में से एक हैं। दृश्य में संसार व्याप्त है। इस विपुल व्याप्ति में अपने विविध पर्यायों—लोचन, अक्षि, नैन, अम्बक, नयन, नेत्र, चक्षु, दृग, विलोचन, दृष्टि, अक्षि, दीदा, चख और अपने कृत्यों की अदाओं-अदावतों के साथ आँखें हर युग में कवियों को अपनी ओर आकर्षित करती रही हैं। नज़र, निगाह और दृष्टि के अभिप्राय में उनकी व्याप्ति और विराट हो उठती है।

एक निगाह से देखना कलाकार की निगाह से देखना नहीं है।

अज्ञेय

बदसूरती आम हिंदुस्तानी आँख को दिखाई ही नहीं देती।

कृष्ण बलदेव वैद

आँख सपने में किसी चीज़ को जागती कल्पना की तुलना में अधिक स्पष्ट रूप से देखती है।

लियोनार्डो दा विंची

अंधे आदमी की आँख उसके पैर में होती है।

धूमिल

सौंदर्य से आँखें पराई हो जाती हैं और तब प्राप्ति-लालसा बढ़ जाती है।

स्वदेश दीपक

राजधानी की एक आँख हमारी लाख आँखों से तेज़ होती है। जब वह खुलती है हमारी चौंधिया जाती है।

हरिशंकर परसाई

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