जीवन पर उद्धरण
जहाँ जीवन को स्वयं कविता
कहा गया हो, कविता में जीवन का उतरना अस्वाभाविक प्रतीति नहीं है। प्रस्तुत चयन में जीवन, जीवनानुभव, जीवन-संबंधी धारणाओं, जीवन की जय-पराजय आदि की अभिव्यक्ति देती कविताओं का संकलन किया गया है।
अधिकतर अज्ञानता के सुख-दुःख की आदत थी। ज्ञान के सुख-दुःख बहुतों को नहीं मालूम थे। जबकि ज्ञान असीम अटूट था। ज्ञान सुख की समझ देता था पर सुख नहीं देता था।
नितांत अव्यावहारिक होना नितांत ईमानदारी और अक़्लमंदी का लक्षण है।
मेरा स्वभाव या सिद्धांत या प्रवृत्ति कुछ ऐसी है (मेरे ख़याल से जो शायद सही भी है) कि जो व्यक्ति साहित्यिक दुनिया से जितना दूर रहेगा, उसमें अच्छा साहित्यिक बनने की संभावना उतनी ही ज़्यादा बढ़ जाएगी। साहित्य के लिए साहित्य से निर्वासन आवश्यक है।
फ़ुरसत निकालना भी एक कला है। गधे हैं जो फ़ुरसत नहीं निकाल पाते। फ़ुरसत के बिना साहित्य चिंतन नहीं हो सकता, फ़ुरसत के बिना दिन में सपने नहीं देखे जा सकते। फ़ुरसत के बिना अच्छी-अच्छी, बारीक-बारीक, महान बातें नहीं सूझतीं।
-
संबंधित विषय : आत्म-चिंतनऔर 3 अन्य
रचना-प्रक्रिया के भीतर न केवल भावना, कल्पना, बुद्धि और संवेदनात्मक उद्देश्य होते हैं; वरन वह जीवनानुभव होता है जो लेखक के अंतर्जगत का अंग है, वह व्यक्तित्व होता है जो लेखक का अंतर्व्यक्तित्व है, वह इतिहास होता है जो लेखक का अपना संवेदनात्मक इतिहास है और केवल यही नहीं होता।
जो कमज़ोरी सब मनुष्यों में हो सकती है, वह कमज़ोरी नहीं—बल्कि मनुष्य की प्रकृति का गुण-धर्म है।
-
संबंधित विषय : गजानन माधव मुक्तिबोधऔर 2 अन्य
संग्रहणीय वस्तु हाथ आते ही उसका उपयोग जानना, उसका प्रकृत परिचय प्राप्त करना, और जीवन के साथ-ही-साथ जीवन का आश्रयस्थल बनाते जाना—यही है रीतिमय शिक्षा।
अभाव पर विजय पाना ही जीवन की सफलता है। उसे स्वीकार करके उसकी ग़ुलामी करना ही कायरपन है।
अहं का स्वभाव होता है अपनी ओर खींचना, और आत्मा का स्वभाव होता है बाहर की तरफ़ देना—इसलिए दोनों के जुड़ जाने से एक भयंकर जटिलता की सृष्टि हो जाती है।
कलावान् गुणीजन भी जहाँ पर वास्तव में गुणी होते हैं; वहाँ पर वे तपस्वी होते हैं, वहाँ यथेच्छाचार नहीं चल सकता, वहाँ चित्त की साधना और संयम—है ही है।
-
संबंधित विषय : आत्म-अनुशासनऔर 3 अन्य
जगत से मन अपनी चीज़ संग्रह कर रहा है, उसी मन से विश्व-मानव-मन फिर अपनी चीज़ चुनकर, अपने लिए गढ़े ले रहा है।
नियम साधना का लोभ भी कष्ट की मात्रा का हिसाब लगाकर आनंद पाता है। अगर कड़े बिछौने पर सोने से शुरू किया जाए; तो आगे चलकर मिट्टी पर बिछौना बिछाकर, फिर सिर्फ़ एक कंबल बिछाकर, फिर कंबल को भी छोड़कर निखहरी ज़मीन पर सोने का लोभ क्रमशः बढ़ता ही रहता है।
आत्म-साक्षात्कार बहुत आसान है, स्वयं का चरित्र-साक्षात्कार अत्यंत कठिन है।
-
संबंधित विषय : आत्म-चिंतनऔर 2 अन्य
जो व्यक्ति आध्यात्मिक जीवन के स्थान पर कृत्रिम, यांत्रिक जीवन का वरण करके तृप्त नहीं होता, उसके भीतर प्रश्न उठते ही रहते हैं और वह अनुत्तरित प्रश्नों के अरण्य में भटकता हुआ कहीं भी शान्ति नहीं पाता है।
जहाँ कोई क़ानून नहीं होता, वहाँ अंतःकरण होता है।
-
संबंधित विषय : आत्म-चिंतनऔर 2 अन्य
बीती हुई घड़ियाँ ज्योतिषी भी नहीं देखता।
परित्राण का अर्थ यह है कि व्यर्थता और असफलता से अपनी रक्षा करना, अपने भीतर सत्यरूपी जो रत्न छिपा हुआ है, उसका उद्धार करना।
-
संबंधित विषय : आत्म-अनुशासनऔर 2 अन्य
व्यक्ति का विकास बाह्य-समाज में तो होता ही है, वह परिवार में भी होता है। परिवार व्यक्ति के अंतःकरण के संस्कार में तथा प्रवृत्ति-विकास में पर्याप्त योग देता है।
-
संबंधित विषय : गजानन माधव मुक्तिबोधऔर 2 अन्य
लोग, लोभ, काम, क्रोध, अज्ञान, हर्ष अथवा बालोचित चपलता के कारण धर्म के विरुद्ध कार्य करते तथा श्रेष्ठ पुरुषों का अपमान कर बैठते हैं।
हममें से हर एक को भंगी बनकर सेवा करनी चाहिए। जो मनुष्य पहले भंगी नहीं बनता, वह ज़िंदा रह नहीं सकता है और न रहने का उसे हक़ है।
कला मानवीय जीवन की अनिवार्य आवश्यकता है।
असंगति जब हमारे मन के ऊपरी स्वर पर आघात करती है; तब हमको कौतुक जान पड़ता है, गहरे स्तर पर आघात करती है तो हमको दुःख होता है।
-
संबंधित विषय : आत्म-अनुशासनऔर 2 अन्य
हमारी यथार्थ अर्थवत्ता हमारे अपने बीच में नहीं है, वह समस्त जगत के मध्य फैली हुई है।
असंयम को अमंगल जानकर छोड़ने में जिनके मन में विद्रोह जागता है, उनसे वह कहना चाहता है कि उसे असुंदर जानकर अपनी इच्छा से छोड़ दो।
-
संबंधित विषय : आत्म-अनुशासनऔर 2 अन्य
आवश्यकताओं की निर्विरोध और निर्बंध पूर्ति ही मनुष्य जीवन की स्वतंत्रता है।
न तो हमारे अंतःकरण से अधिक भयंकर कोई साक्षी हो सकता है और न कोई दोषारोपण करने वाला इतना शक्तिशाली।
-
संबंधित विषय : आत्म-चिंतनऔर 1 अन्य
अपने जीवन से मनुष्य को सबसे बड़ी शिक्षा यह लेनी चाहिए कि संसार में दुःख है, किंतु उसे सुख में बदलना उसके हाथ में है।
किसी भी व्यक्ति पर एकात्म श्रद्धा ग़लत है।
हम तो सारा का सारा लेंगे जीवन, ‘कम से कम’ वाली बात न हमसे कहिए।
जो कला जीवन की आवश्यकताओं से उत्प्रेरित नहीं होती, उसमें विषयगत वैविध्य का अभाव रहता है और उसके रूप-तत्व का कौशल ही अधिक बढ़ जाता है।
धर्म भय से ऊपर उठने का उपाय है; क्योंकि धर्म जीवन को जोड़ने वाला सेतु है।
कविता तो जीवन का प्रमाण मात्र है। अगर आपका जीवनदीप अच्छी तरह से जल रहा है, तो कविता सिर्फ़ राख है।
अंतःकरण प्रत्येक व्यक्ति के चरित्र का सार है।
मन के तत्त्व जीवन-जगत् के दिए हुए तत्त्व हैं।
-
संबंधित विषय : गजानन माधव मुक्तिबोध
जीवन से विरहित होकर भूतकाल की उपासना करना केवल बुद्धि का कुतूहल है।
मुल्ला और मशालची दोनों एक ही मत के हैं। औरों को तो ये प्रकाश देते हैं और स्वयं अंधकार में फँसे रहते हैं।
मुक्ति का अर्थ किसी विद्यमान वस्तु का विनाश करना नहीं है, बल्कि केवल अविद्यमान और सत्य मार्ग के अवरोधक कोहरे का निवारण करना है। जब अविद्या का यह अवरोध हट जाता है, तभी पलकें ऊपर उठ जाती हैं—पलकों का हटना आँखों की क्षति नहीं कहा जा सकता।
मैं अब से पढ़ते हुए पुरुषों और बुनाई करती हुई स्त्रियों की तस्वीरें नहीं बनाऊँगा। मैं उन जीवित साथियों की तस्वीरें बनाऊँगा जो ज़िंदगी को जीना जानते हैं और उसे महसूस करते हैं, जो तकलीफ़ें सहते हैं और प्रेम करते हैं।
इच्छा का यह जो सहज धर्म है कि वह दूसरे की इच्छा को चाहती है, केवल ज़ोर-ज़बरदस्ती पर ही उसका आनंद निर्भर नहीं है।
किसी के बारे में सब कुछ जान लेना, उसे फिर से अजनबी बना देता है।
अकेले स्वादिष्ट भोजन न करे, अकेले किसी विषय का निश्चय न करे, अकेले रास्ता न चले और बहुत से लोग सोए हों तो उनमें अकेला जागता न रहे।
ज़रूरत पड़ने पर मनुष्य, संसार में बेहतरी के लिए बदलाव लाने की योग्यता रखता है और वह चाहे तो इस बेहतरी के लिए अपने भीतर भी बदलाव ला सकता है।
अंतःकरण के विषयों में, बहुमत के नियम का कोई स्थान नहीं है।
-
संबंधित विषय : महात्मा गांधी
अभ्यास के बिना साध्य की प्राप्ति हो, यह संभव नहीं है।
प्रगतिशील जीवन-मूल्य, निम्न-मध्यवर्गीय श्रेणी के भावना-चित्रों में अधिक पाए जाते हैं।
-
संबंधित विषय : गजानन माधव मुक्तिबोध
यौवन, रूप, जीवन, धन-संग्रह, आरोग्य और प्रियजनों का समागम ये सब अनित्य हैं। विवेकशील पुरुषों को इनमें आसक्त नहीं होना चाहिए।
जीवन विश्व की संपत्ति है। प्रमाद से, क्षणिक आवेश से, या दुःख की कठिनाइयों से उसे नष्ट करना ठीक तो नहीं।
मुझे लगता है कि जीवन के हर आयाम में सत्ता, अनुक्रमों और राज करने की कोशिश में लगे केंद्रों को पहचानने की कोशिश करनी चाहिए और उनको चुनौती देनी चाहिए। जब तक उनके होने का कोई जायज़ हवाला न दिया जा सके, वे ग़ैरक़ानूनी हैं और उन्हें नष्ट कर देना चाहिए। मनुष्य की आज़ादी की उम्मीद इससे ही बढ़ेगी।
सुख देखते ही तीनों लोकों में दुःख के चिन्ह लुप्त हो जाते हैं, एवं दुःख उपस्थित होते ही कहीं भी लेशमात्र भी सुख दिखाई नहीं देता।
संबंधित विषय
- अज्ञान
- अधर्म
- अभिव्यक्ति
- अवास्तविक
- आँख
- आत्मा
- आधुनिकता
- आनंद
- आलोचक
- आलोचना
- आवश्यकता
- कृतज्ञता
- कला
- किसान
- गजानन माधव मुक्तिबोध
- ग़रीबी
- गाँव
- चयन
- चिंता
- चीज़ें
- ज्ञान
- जवाहरलाल नेहरू
- जीवन
- जीवन शैली
- डर
- देश
- धन
- धर्म
- प्रकाश
- प्रेम
- भलाई
- भविष्य
- मनुष्य
- मनुष्यता
- महात्मा गांधी
- युग
- यथार्थ
- रवींद्रनाथ ठाकुर
- लोक
- व्यक्तित्व
- वर्तमान
- विचार
- विडम्बना
- विवाह
- सुख
- संघर्ष
- सच
- सड़क
- समय
- समाज
- स्वतंत्रता
- संवेदना
- संस्कृति
- सीखना
- हिंदी साहित्य