कवि को लिखने के लिए कोरी स्लेट कभी नहीं मिलती है। जो स्लेट उसे मिलती है, उस पर पहले से बहुत कुछ लिखा होता है। वह सिर्फ़ बीच की ख़ाली जगह को भरता है। इस भरने की प्रक्रिया में ही रचना की संभावना छिपी हुई है।
विषम समयों में कविता की चुप्पी भी एक चीत्कार की तरह ध्वनित होती रही है। यह चुप्पी केवल कविता की चुप्पी नहीं, एक सामाजिक चेतना की घुटन भरी चीख़ है।
भाषा के पर्यावरण में कविता की मौजूदगी का तर्क जीवन-सापेक्ष है : उसके प्रेमी और प्रशंसक हमेशा रहेंगे—बहुत ज़्यादा नहीं, लेकिन बहुत समर्पित!
कविता आदमी को मार देती है। और जिसमें आदमी बच गया है, वह अच्छा कवि नहीं है।
कविता विचारहीन नहीं हो सकती, परंतु विचारात्मक प्रतिबद्धता को मैं कविता के लिए अनिवार्य नहीं मानता।
कविता तो एक जीवन को तोड़कर सकल जीवन बनाती है। और जीवन टूटता है, वह कवि का है।
अगर कविता न होती तो राम और कृष्ण भी यथार्थ न होते।
अपनी एक मूर्ति बनाता हूँ और ढहाता हूँ और आप कहते है कि कविता की है।
कविता और प्रेम—दो ऐसी चीज़ें हैं, जहाँ मनुष्य होने का मुझे बोध होता है।
काव्य-रचना का एक अर्थ मनुष्य की कल्पनाशील चेतना का उद्दीपन है।
कविता क्रांति ले आएगी, ऐसी ख़ुशफ़हमी मैंने कभी नहीं पाली, क्योंकि क्रांति एक संगठित प्रयास का परिणाम होती है, जो कविता के दायरे के बाहर की चीज़ है।
कविता आत्म और पर के द्वैत को ध्वस्त करती है।
कविता यथार्थ को नज़दीक से देखती, मगर दूर की सोचती है।
कविता परम सत्य और चरम असत्य के बीच गोधूलि की तरह विचरती है।
कविता सरलीकरण और सामान्यीकरण के विरुद्ध अथक सत्याग्रह है।
कविता को राजनीति में नहीं घुसना चाहिए। क्योंकि इससे कविता का तो कुछ नहीं बिगड़ेगा, राजनीति के अनिष्ट की संभावना है।
हम हर दिशा से कविताओं से घिरे हुए हैं।
मैं ऐसा नहीं मानता कि विश्व-बाज़ार कविता को निगल जाएगा और कविता हमेशा के लिए अपना प्रभाव खो देगी।
जिस किताब में अच्छी कविता होती है, उसके पास दीमकें नहीं फटकतीं।
कविता के क्षेत्र में केवल एक आर्य-सत्य है : दुःख है। शेष तीन राजनीति के भीतर आते हैं।
कविता एकांत देती है।
कविता में ‘मैं’ की व्याख्या केवल आत्मकेंद्रण या व्यक्तिवाद के अर्थ में करना
उसके बृहतर आशयों और संभावनाओं दोनों को संकुचित करना है।
कविता लिखना कोई बड़ा काम नहीं, मगर बटन लगाना भी बड़ा काम नहीं। हाँ, उसके बिना पैंट-क़मीज़ बेकार होते हैं।
अच्छा कवि बहुत ज़िद्दी होता है और कविता लिखते समय अपने विवेक और शक्ति के अलावा किसी और को नहीं मानता।
आज की कविता, बल्कि किसी भी कविता, को सोचने-समझने के लिए पाठकों को अपनी ओर से भी बहुत-कुछ जोड़ना पड़ता है।
कविता का काम संसार के बिना नहीं चलता। वह उसका सत्यापन भी करती है और गुणगान भी।
मनुष्य मात्र को इतिहास और राजनीति नहीं एक कविता चाहिए।
कविता भाषा का शिल्पित रूप है, कच्चा रूप नहीं।
कविता में कभी अच्छा मनुष्य दिख जाता है या कभी अच्छे मनुष्य में कविता दिख जाती है। कभी-कभी एक के भीतर दोनों ही दिख जाते हैं।
कितना अच्छा होता कि जिस संख्या में कवियों के संग्रह छपे बताए जाते हैं, लगभग उतनी ही संख्या में उन्होंने कविताएँ भी लिखी होतीं।
अगर कविता (जिसे कहते हैं) ‘जीवन से फूटकर’ निकलती है, तो उसमें जीवन की सारी बेताब उलझनें और आशाएँ और शंकाएँ और कोशिशें और हिम्मतें कवि के अंदर की पूरी ईमानदारी के साथ अपने सरगम के पूरे बोल बजाने लगेंगी।
कविता भाषा का भाषा में स्वराज है।
भाषा का होना कविता के होने की गारंटी है।
विश्व-बाज़ार विश्व-समाज की नई गतिविधि है और उसमें बहुत कुछ ऐसा हो सकता है जिससे नए ढंग की कविता जन्म ले।
चंद्रमा के प्रकाश द्वारा प्रशंसा किए जाने पर किसी की छाया जीवन से बड़ी हो जाती है।
कविता सच्ची भावनाओं का चित्र है और सच्ची भावनाएँ चाहे वे दुःख की हो या सुख की, उसी समय संपन्न होती है जब हम दुःख या सुख का अनुभव करते हैं।
कविता व्यक्ति को दूसरा बनाए जाने के क्रूर अमानवीय उपक्रम के विरुद्ध सविनय अवज्ञा है।
कवि को कविता के बाहर और भीतर दोनों जगह एक साथ रहने का जोखिम उठाना होता है।
मुझे अपनी कविताओं से भय होता है, जैसे मुझे घर जाते हुए भय होता है।
अगर कविता एक ‘सामाजिक कार्य’ है (जो कि वह है) तो फिर उसका राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों से जुड़ना अनिवार्य ही है।
जिस प्रकार अनेक रंगों में हँसती हुई फूलों की वाटिका को देखकर दृष्टि सहसा आनंद-चकित रह जाती है, उसी प्रकार जब काव्य-चेतना का सौंदर्य हृदय में प्रस्फुटित होने लगता है, तो मन उल्लास से भर जाता है।
कविता केवल उसी दिन निरस्त हो सकती है, जिस दिन किसी विस्फोटक से मानव-मन से भाषा को उड़ा दिया जाएगा।
कविता के रंग चित्रकला के प्रकृति-रंग नहीं होते।
सूरज नहीं चाँद तारे संगीत चित्र भी नहीं कविता से भी सुंदर लगता है मनुष्य।
मेरी कविता की इच्छा और मेरी कविता की शब्दावली, मेरी अपनी इच्छा और मेरी अपनी शब्दावली है।
कविता समाज नहीं, व्यक्ति लिखता है, फिर भी कविता एक सामाजिक कर्म है।