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तस्वीर पर उद्धरण

तस्वीर किसी व्यक्ति,

वस्तु या दृश्य के अक्स के रूप में प्रेक्षक के अंदर विभिन्न भावों को जन्म देती है और यही कारण है कि वह कभी अपनी वस्तुगत उपस्थिति में तो कभी किसी गुज़र चुके पल के रूपक में कविता के इस्तेमाल का निमित्त बनती रही है।

मैं अब से पढ़ते हुए पुरुषों और बुनाई करती हुई स्त्रियों की तस्वीरें नहीं बनाऊँगा। मैं उन जीवित साथियों की तस्वीरें बनाऊँगा जो ज़िंदगी को जीना जानते हैं और उसे महसूस करते हैं, जो तकलीफ़ें सहते हैं और प्रेम करते हैं।

एडवर्ड मुंक

प्रकृति सिर्फ़ वह नहीं जो आँखों को नज़र आती है… आत्मा की अंदरूनी तस्वीर में भी यह मौजूद होती है।

एडवर्ड मुंक

जीवन के किसी क्षण में दुनिया की सुंदरता पर्याप्त हो जाती है। आपको इसके फ़ोटो लेने, इसे रँगने, या यहाँ तक कि इसे याद रखने की भी ज़रूरत नहीं है। वह स्वयं में पर्याप्त है।

टोनी मॉरिसन

एक फ़ोटोग्राफ़र का जो कौशल होता है, उसका योग वस्तु के बाह्य रूप के साथ होता है और एक शिल्पी का जो योग होता है, वह उसके भीतर-बाहर के साथ वस्तु के भीतर-बाहर का योग होता है, और उस योग का पंथ होता है कल्पना और यथार्थ घटना—दोनों का समन्वय कराने वाली साधना।

अवनीन्द्रनाथ ठाकुर

मैंने तस्वीर में रंग भरे और रंगों में लय के साथ संगीत झंकृत होने लगा। हाँ, मैंने देखा था कि मैंने तस्वीर में रंग ही भरे थे।

एडवर्ड मुंक

मलार्मे ने कहा कि दुनिया में सब कुछ इसलिए मौजूद है कि एक किताब में समाप्त हो जाए। आज सब कुछ इसलिए मौजूद है कि वह एक तस्वीर में समाप्त हो जाए।

सूज़न सॉन्‍टैग

जब उसने स्त्रीत्व की पारंपरिक तस्वीर के अनुरूप जीना बंद कर दिया, तब वह आख़िरकार स्त्री होने का आनंद लेने लगी।

बेट्टी फ्रीडन

मैं तस्वीर और अपने बीच एक तरह की दीवार बना लेता हूँ जिससे मैं उस दीवार के पीछे रहकर शांतचित्त होकर रंग भर सकूँ, नहीं तो वह तस्वीर कुछ भी बोलकर मुझे भ्रमित और विचलित कर देती है।

एडवर्ड मुंक

काल की छवि, मूर्ति, कविता वह धारणतीत काल के सारे रहस्य को वहन करती है।

अवनीन्द्रनाथ ठाकुर

फ़ोटोग्राफ़ के साथ फ़ोटो खींचने वाले का संबंध पूरा-पूरा नहीं होता है—पहाड़ देखा, कैमरा खोला, फ़ोटो खिंच गया; किंतु फ़ोटोग्राफ़र के हृदय के साथ पहाड़ का कोई संबंध ही नहीं बना।

अवनीन्द्रनाथ ठाकुर

हर कोई उसकी आँखों से आकर्षित हो जाया करता जिन्हें वह बहुत ज़्यादा खुली रखता था; कभी-कभी घूरती हुई वे आँखें फ़ोटोग्राफ़ों में मैग्नीशियम की आकस्मिक चमक के कारण किसी विक्षिप्त या स्वप्नदृष्टा की लगती थीं।

पीएत्रो चिताती

शब्द अरण्य की सत्ता को एक दृष्टि से समझाते हैं, छवि की भाषा उसे एक अन्य दृष्टि से समझाएगी।

अवनीन्द्रनाथ ठाकुर

जो है नहीं, उस चित्र को दिखाती है, पर होती है केवल दीवार। उसी प्रकार संपूर्ण जगदाकार से जो प्रकाशित होती है, वह संवित्ति (संवित्, चेतना) है।

ज्ञानेश्वर

नगर अपने और अपने नगरवासियों के स्वभाव के अनुसार जब अपने रूप का आभास कराता है, तभी उसका स्वाभाविक चित्र बनता है।

अवनीन्द्रनाथ ठाकुर