ज्ञान पर उद्धरण
ज्ञान का महत्त्व सभी
युगों और संस्कृतियों में एकसमान रहा है। यहाँ प्रस्तुत है—ज्ञान, बोध, समझ और जानने के विभिन्न पर्यायों को प्रसंग में लातीं कविताओं का एक चयन।
हम विचारों के स्तर पर जिससे घृणा करते हैं, भावनाओं के स्तर पर उसी से प्यार करते हैं।
हम अपने बारे में इतना कम और इतना अधिक जानते हैं कि प्रेम ही बचता है प्रार्थना की राख में।
पढ़ाई सभी कामों में सुधार लाना सिखाती है।
आधुनिक युग हर चिंतनशील प्राणी से एक नई तरह की ज़िम्मेदारी की माँग करता है जिसका बहुत ही महत्त्वपूर्ण संबंध हमारे सोचने के ढंग से है।
प्रश्न स्वयं कभी किसी के सामने नहीं आते।
जानने की कोशिश मत करो। कोशिश करोगे तो पागल हो जाओगे।
इस सामाजिक व्यवस्था में ही नहीं, एक जीवंत और उल्लसित भावी व्यवस्था में भी ज्ञान का माध्यम सदा कष्ट ही रहेगा।
शब्दों की शक्तियों का जितना ही अधिक बोध होगा अर्थबोध उतना ही सुगम्य होगा। इसके लिए पुरातन साहित्य का अनुशीलन तो करना ही चाहिए, समाज का व्यापक अनुभव भी प्राप्त करना चाहिए।
अपने अनुभव से हासिल किया ज्ञान है कि डाॅक्टर और माशूक़ कभी नहीं बदलने चाहिए। आप फ़ालतू सवालों से बच जाते हैं।
मेघ-संकुल आकाश की तरह जिसका भविष्य घिरा हो, उसकी बुद्धि को तो बिजली के समान चमकना ही चाहिए।
हमारा मन जिस प्रकार विचारों के सहारे आगे बढ़ता है, उसी प्रकार मानव-चेतना प्रतीकों के सहारे विकसित होती है।
सारे तत्त्व एक दूसरे को प्रति-प्रयुक्त भी करते हैं।
यदि मन में शिथिलता, श्रांति या शून्यता हो तो काव्यानुशीलन न करना चाहिए।
विवेक के कारण अनात्म होते ही आप ‘पुरुष’ हो जाते हैं और तब ‘इच्छा’ आपकी इच्छा पर निर्भर होने लगती है।
पाठक की ग्राहक कल्पना का विकास प्रत्यभिज्ञा के आश्रय से होता है। जिसकी निरीक्षण शक्ति जितनी विकसित होगी उसकी भावना का भी परिपाक तदनुकूल ही होगा।
कवि में जिस प्रकार विधायक कल्पना की आवश्यकता है, उसी प्रकार पाठक में ग्राहक कल्पना की आवश्यकता होती है।
किसी भी काव्य का अध्ययन करने से पहले आत्म-परीक्षा कर लेनी चाहिए।
ज्ञान अपनी संपूर्णता में प्रकृतिगत छल है—संबल है, हम सबका एक मात्र अज्ञान।
कभी-कभी विचार-विशेष से आग्रह से भी काव्य समझने में बाधा खड़ी होती है।
ज्ञान, इच्छा और क्रिया जैसे और लोगों में है; वैसे ही रचनाकार और आलोचक में भी।
जो बिना सिद्धांत के अभ्यास करना पसंद करता है, वह उस नाविक की तरह है जो बिना पतवार और दिशा-निर्देश के जहाज़ पर चढ़ता है और कभी नहीं जानता कि वह कहाँ ले जाया जा सकता है।"
जिन विषयों के गंभीर अध्ययन से मनुष्य का मस्तिष्क परिष्कृत और ह्रदय सुसंस्कृत होता है, उसमें श्रम लगता है और उसके लिए बाज़ार आसानी से नहीं मिलता।
हमारा सारा ज्ञान हमें केवल एक अधिक कष्टदायक मृत्यु की ओर ले जाता है, जो उन जानवरों की तुलना में कहीं अधिक पीड़ादायक है जो कुछ भी नहीं जानते।
समबोध ज्ञान या अनुभव की उस अवस्था में पुष्ट होता है जो प्रत्येक मन में कल्पना, सूझ या निश्चय के रूप में उदित होता है।
ज्ञान अनुभव की बेटी है।
जीवन का ज्ञान ग़ैर-आवश्यक वस्तुओं के उन्मूलन में निहित है।
सीखना मन को कभी नहीं थकाता।
उपनिषदों के उद्धरण भी जब हम अँग्रेज़ी में उद्धृत करते हैं, तो अपने ज्ञान का दिवाला प्रकट करते हैं।
काम-वासना के समान कोई दूसरा रोग नहीं। मोह के समान कोई दूसरा शत्रू नहीं। क्रोध के समान कोई आग नहीं। ज्ञान से बड़ा कोई सुख नहीं।
क्रम से जल की एक-एक बूँद गिरने पर कलश भर जाता है, यही रहस्य सभी विद्याओं, धर्म और धन के संबंध में है।
अच्छे लोगों की स्वाभाविक इच्छा ज्ञान है।
जैविकता और ज्ञान के काल का प्रतिमान ईसा या बाइबिल में वर्णित समय को मानना निरी हास्यास्पदता है।
अज्ञान अंधकार-स्वरूप है। दिया बुझाकर भागने वाला यही समझता है कि दूसरे उसे देख नहीं सकते, तो उसे यह भी समझ रखनी चाहिए कि वह ठोकर खाकर गिर भी सकता है।
सापेक्ष तो पदार्थ या स्वरूप होता है।
किसी भी ज्ञान की प्राप्ति बुद्धि के लिए हमेशा उपयोगी होती है, क्योंकि यह बेकार चीज़ों को बाहर निकाल सकता है और अच्छे को बनाए रख सकता है।