तुम मँझौली हैसियत के मनुष्य हो और मनुष्यता के कीचड़ में फँस गये हो। तुम्हारे चारो ओर कीचड़-ही-कीचड़ है।
अपने में विश्वास और जिसको दुश्मन मानें उसका उद्धार करने में हमारी रक्षा होती है।
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‘स्व’ से ऊपर उठना, ख़ुद की घेरेबंदी तोड़कर कल्पना-सज्जित सहानुभूति के द्वारा अन्य के मर्म में प्रवेश करना—मनुष्यता का सबसे बड़ा लक्षण है।
जो अल्पमत में हैं उनकी हमें ज़्यादा दरकार होनी चाहिए, यही तालीम मैं अबतक देता आया हूँ।
हममें से हर एक को भंगी बनकर सेवा करनी चाहिए। जो मनुष्य पहले भंगी नहीं बनता, वह ज़िंदा रह नहीं सकता है और न रहने का उसे हक़ है।
मानवीय संवेदना के मूल स्वभाव को ठीक से समझे बिना सब कुछ को ख़ारिज कर देने का औद्धत्य कभी फलप्रसू नहीं होता।
कला की कोई भी क्रिया, मनुष्य और जीवन-धारण के लिए अनिवार्य नहीं है। इसलिए कला ही मनुष्य को वह क्षेत्र प्रदान करती है, जिसमें वह अपने व्यक्तित्व का सच्चा विकास कर सकता है।
मैं उनमें से नहीं हूँ जो नाम को केवल नाम समझते हैं।
सत्पुरुषों की महानता उनके अंतःकरण में होती है, न कि लोगों की प्रशंसा में।
हम पैदा हुए हैं सेवा करने के लिए। हम तय करें कि हम अपने मुल्क को ऊँचा ले जाएँगे, गिराएँगे नहीं।
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एक सुसंस्कृत दिमाग़ को अपने दरवाज़े और खिड़कियाँ खुली रखनी चाहिए।
जब इंसान भूखा रहता है, जब मरता रहता है, तब संस्कृति और यहाँ तक कि ईश्वर के बारे में बात करना मूर्खता है।
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अपने देश के प्रति मेरा जो प्रेम है, उसके कुछ अंश में मैं अपने जन्म के गाँव को प्यार करता हूँ। और मैं अपने देश को प्यार करता हूँ पृथ्वी— जो सारी की सारी मेरा देश है—के प्रति अपने प्रेम के एक अंश में। और मैं पृथ्वी को प्यार करता हूँ अपने सर्वस्व से, क्योंकि वह मानवता का, ईश्वर का, प्रत्यक्ष आत्मा का निवास-स्थान है।
मानव को अपने राष्ट्र की सेवा के ऊपर किसी विश्व-भावना व आदर्श को पहला स्थान नहीं देना चाहिए।... देशभक्ति तो मानवता के लक्ष्य विश्वबंधुत्व का ही एक पक्ष है।
हम सहज ही भूल जाते हैं कि जाति-निर्णय विज्ञान में होता है, जाति का विवरण इतिहास में होता है। साहित्य में जाति-विचार नहीं होता, वहाँ पर और सब-कुछ भूलकर व्यक्ति की प्रधानता स्वीकार कर लेनी होगी।
मृत्यु वास्तव में मानवता के लिए एक महान वरदान है, इसके बिना कोई वास्तविक प्रगति नहीं हो सकती।
सौंदर्यानुभूति वास्तविक जीवन की मनुष्यता है।
हम दुनिया में किसी को दुश्मन बनाना नहीं चाहते और न हम किसी के दुश्मन बनना चाहते हैं—यह मेरी व्याख्या का स्वराज्य है।
टेढ़े रास्तें से सीधी बातको नहीं पहुँचा जा सकता।
हम मानवता से प्यार नहीं कर सकते हैं। हम केवल मानव से प्यार कर सकते हैं।
जो आदमी अपना धर्म पालन करता है, धर्म ही उसका बदला है।
मार्क्सवाद मनुष्य की अनुभूति को ज्ञानात्मक प्रकाश प्रदान करता है। वह उसकी अनुभूति को बाधित नहीं करता; वरन् बोधयुक्त करते हुए, उसे अधिक परिष्कृत और उच्चतर स्थिति में ला देता है।
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ऐक्य-बोध का उपदेश जिस गंभीरता से उपनिषदों में दिया गया है, वैसा किसी दूसरे देश के शास्त्रों में नहीं मिलता।
अच्छा भोजन करने के बाद मैं अक्सर मानवतावादी हो जाता हूँ।
हर शिशु इस संदेश के साथ जन्मता है कि इश्वर अभी तक मनुष्यों के कारण शर्मसार नहीं है।
दूसरों के लिए जीना आसान नहीं। इसमें बहुत कष्ट झेलने पड़ते हैं लेकिन स्वेच्छा से हम जो कष्ट उठाते हैं, वे भी मधुर लगते हैं।
मेरी हिंदू धर्मवृत्ति मुझे सिखाती है कि थोड़े या बहुत अंशों में सभी धर्म सच्चे हैं परंतु सभी धर्म अपूर्ण हैं, क्योंकि वे अपूर्ण मानव-माध्यम के द्वारा हम तक पहुँचे है। सच्चा शु़द्धि का आंदोलन यह होना चाहिए कि हम सब अपने-अपने धर्म में रहकर पूर्णता प्राप्त करने का प्रयत्न करें।
दया अथवा क्रोध परमात्मा को ही शोभा देता है। मनुष्य की भलाई केवल धैर्य धारण करने और ईश्वर के प्रति कृतज्ञता प्रकाश करने में ही है।
धर्म-कर्म के द्वारा मनुष्य के प्रति श्रद्धा खो देने की जो आशंका है, उसी से हमें डरना चाहिए।
बुद्धदेव ने अपने शिष्यों को उपदेश देते समय एक बार कहा था कि मनुष्य के मन में कामना अत्यंत प्रबल है, लेकिन सौभाग्यवश उससे भी अधिक प्रबल एक वस्तु हमारे पास है। यदि सत्य की पिपासा हमारी प्रवृत्तियों से अधिक प्रबल न होती तो हममें से कोई धर्म के मार्ग पर न चल सकता।
मैं दावा करता हूँ कि हिंदुस्तान में या उससे बाहर भी सबसे आला दर्जे का जो हिंदू है, उससे मैं कम नहीं हूँ क्योंकि मैं वेद को मानने वाला हूँ, गीता को पढ़ता हूँ और उसमें जो लिखा है उस पर अमल करता हूँ।
हम पर अपने अल्पसंख्यक समुदायों के साथ-साथ, उन सभी समुदायों को लेकर ख़ास ज़िम्मेदारी है, जो आर्थिक या शिक्षा के स्तर पर पिछड़े हुए हैं और जो भारत की कुल जनसंख्या का सबसे बड़ा हिस्सा है।
अच्छे काम के प्रति आदर और बुरे के प्रति तिरस्कार होना ही चाहिए। भले-बुरे काम करने वालों के प्रति सदा आदर अथवा दया रहनी चाहिए।
यह वह बात नहीं है जो वकील बताए कि मुझे करनी चाहिए, अपितु यह वह बात है जो मानवता, विवेक और न्याय बताते हैं कि मुझे करनी चाहिए।
अपने से परे जाना, अपने से ऊपर उठकर जीवन-जगत् में भीगना; उसमें रमना और इस प्रकार उदात् प्रेरणाएँ ग्रहण करना—वस्तुतः एक गहन मानवीय प्रक्रिया है।
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मनुष्यत्व में एक भारी द्वंद्व और है, जिसे कहा जा सकता है—प्रकृति और आत्मा का द्वंद्व।
एक समय था जब हमारे दार्शनिक कवि; भारत के विशाल चमकते आकाश के नीचे खड़े होकर, विश्व भर का प्रेमविभोर हृदय से स्वागत करते थे—इस कल्पना से ही मेरा हृदय, आनंद और मानवता के लिए आशामय भविष्य के स्वप्नों से भर जाता है।
अगर हम रामराज्य या ईश्वर का राज्य हिंदुस्तान में स्थापित करना चाहते हैं, तो मैं कहूँगा कि हमारा प्रथम कार्य यह है कि हम अपने दोषों को पहाड़-जैसे देखें और मुसलमानों के दोषों को कुछ नहीं।
जो मानवीय जगत् की मानवता की आधारशिला है, जिस पर मानवता टिकी है, उसे धर्म कहते हैं।
जो ज़ालिम है उसको यह हक़ नहीं कि दूसरे ज़ालिम को सज़ा दे।
तंग मज़हबों में सीमित न हो जाओ। राष्ट्रीयता को स्थान दो। भ्रातृत्व, मानवता तथा आध्यात्मिकता को स्थान दो। द्वैत-भावना की मलिन दृष्टि को त्याग दो- तुम भी रहो, मैं भी रहूँ।
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हिंदुओं की भाँति यहूदियों ने अपने को ईश्वर का प्रीतिपात्र और दूसरों को अप्रीति-पात्र मानकर जो अपराध किया था, उसका दंड उन्हें विचित्र और अनुचित रीति से प्राप्त हुआ था।
सौंदर्यानुभूति की अधिकतमता और बारंबारता जिस व्यक्ति में अधिक होगी, वह अधिक मनुष्य होगा।
एक व्यक्ति जो दूसरों के विचार या राय को नहीं समझ सकता है, तो इसका मतलब यह हुआ कि उसका दिमाग़ और संस्कृति सीमित है।
हिंदू-मुसलमान जानवर बन जाते हैं पर उन्हें याद रखना चाहिए कि वे झुकी हुई कमरवाले जानवर नहीं हैं, सीधी कमरवाले मनुष्य हैं। इसलिए घोर विपत्ति में भी उन्हें धर्म और श्रद्धा नहीं छोड़नी चाहिए।
जिसके छिलता है, उसी के चुनमुनाता है। लोग अपना ही दुःख-दर्द ढो लें, यही बहुत है। दूसरे का बोझा कौन उठा सकता? अब तो वही है भैया, कि तुम अपना दाद उधर से खुजलाओ, हम अपना इधर से खुजलाएँ।
सभी के लिए एक क़ानून है अर्थात् वह क़ानून जो सभी क़ानूनों का शासक है, हमारे विधाता का क़ानून, मानवता, न्याय, समता का क़ानून, प्रकृति का क़ानून, राष्ट्रों का कानून।
जो लोग छोटे हैं उनकी दृष्टि केवल इसी बात पर पड़ती है कि कामना के आघात से मनुष्य बार-बार नीचे गिरता है। केवल महापुरुष ही यह बात देख सकते हैं कि सत्य के आकर्षण से मनुष्य पाशविकता से मनुष्यत्व की ओर अग्रसर हो रहा है। इसलिए वही मनुष्य को बार-बार निर्भयता से क्षमा कर सकते हैं, वही मनुष्य के लिए आशा कर सकते हैं, वही मनुष्य को सबसे बड़ा सत्य सुना सकते हैं, वही मनुष्य को बड़े-से-बड़ा अधिकार देने में नहीं हिचकते।