Font by Mehr Nastaliq Web

डर पर उद्धरण

डर या भय आदिम मानवीय

मनोवृत्ति है जो आशंका या अनिष्ट की संभावना से उत्पन्न होने वाला भाव है। सत्ता के लिए डर एक कारोबार है, तो आम अस्तित्व के लिए यह उत्तरजीविता के लिए एक प्रतिक्रिया भी हो सकती है। प्रस्तुत चयन में डर के विभिन्न भावों और प्रसंगों को प्रकट करती कविताओं का संकलन किया गया है।

भय का राज्य पल भर में फैल जाता है।

स्वदेश दीपक

धर्म का मुख्य स्तंभ भय है।

प्रेमचंद

मेरा डर मेरा सच एक आश्चर्य है।

रघुवीर सहाय

मुझे अपनी कविताओं से भय होता है, जैसे मुझे घर जाते हुए भय होता है।

मंगलेश डबराल

लोग भूल जाते हैं दहशत जो लिख गया कोई किताब में।

रघुवीर सहाय

डरने में उतनी यातना नहीं है जितनी वह होने में जिससे सबके सब केवल भय खाते हों।

धर्मवीर भारती

डायरी में भी सब कुछ दर्ज नहीं किया जाता। उस डायरी में भी नहीं जो छपवाई नहीं जानी है। मतलब यह कि ख़ुफ़िया डायरी पर भी यह ख़ौफ़ हावी रहता है कि कोई मुझे पढ़ लेगा।

कृष्ण बलदेव वैद

मंच का मोह मुझे नहीं, भय है। इस भय ने मुझे कई प्रलोभनों से बचाया है।

कृष्ण बलदेव वैद

जीवन निर्णय नहीं निरंतर भय है।

राजकमल चौधरी

मैं ठीक-ठाक कारण तो नहीं बता सकता, पर इस ‘शास्त्र’ शब्द से मुझे डर लगता है—शायद इसलिए कि उसमें एक शासक की-सी ध्वनि है।

केदारनाथ सिंह

लोग भूल गए हैं एक तरह के डर को जिसका कुछ उपाय था। एक और तरह का डर अब वे जानते हैं जिसका कारण भी नहीं पता।

रघुवीर सहाय

घटना से अधिक से अधिक उसकी संभानाएँ मन को अधिक शंकालु बनाती है।

श्री नरेश मेहता

...घटना का दर्द सीमित होने पर भी आसन्नता हमारे सारे व्यक्तित्व को निरंतर थरथराती होती है।

श्री नरेश मेहता

कोई भी घटना सीमित ही होती है, परंतु उसकी आसन्नता अधिक भयावह लगती है।

श्री नरेश मेहता

डर का बीजभाव है असुरक्षा।

मलयज

डर का शमन मनुष्यों के पास जाने में है, उनके चेहरे पढ़ने में!

मलयज

जश्न-ए-रेख़्ता (2023) उर्दू भाषा का सबसे बड़ा उत्सव।

पास यहाँ से प्राप्त कीजिए