अहंकार पर दोहे

यहाँ प्रस्तुत चयन में

अहंकार विषयक कविताओं को संकलित किया गया है। रूढ़ अर्थ में यह स्वयं को अन्य से अधिक योग्य और समर्थ समझने का भाव है जो व्यक्ति का नकारात्मक गुण माना जाता है। वेदांत में इसे अंतःकरण की पाँच वृत्तियों में से एक माना गया है और सांख्य दर्शन में यह महत्त्व से उत्पन्न एक द्रव्य है। योगशास्त्र इसे अस्मिता के रूप में देखता है।

जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाँहिं।

सब अँधियारा मिटि गया, जब दीपक देख्या माँहि॥

जब तक अहंकार था तब तक ईश्वर से परिचय नहीं हो सका। अहंकार या आत्मा के भेदत्व का अनुभव जब समाप्त हो गया तो ईश्वर का प्रत्यक्ष साक्षात्कार हो गया।

कबीर

धन्नो कहै ते धिग नरां, धन देख्यां गरबाहिं।

धन तरवर का पानड़ा, लागै अर उड़ि जाहिं॥

धन्ना भगत

औघट घाट पखेरुवा, पीवत निरमल नीर।

गज गरुवाई तैं फिरै, प्यासे सागर तीर॥

उथले या कम गहरे घाटों पर भी पक्षी तो निर्मल पानी पी लेते हैं, पर हाथी बड़प्पन के कारण समुद्र के तट पर भी (जहाँ पानी गहरा हो) प्यासा ही मरता है।

रसनिधि

प्यास सहत पी सकत नहिं, औघट घाटनि पान।

गज की गरुवाई परी, गज ही के गर आन॥

हाथी प्यास सह लेता है पर औघट अर्थात कम गहरे घाट में पानी नहीं पी सकता। इस प्रकार हाथी के बड़प्पन का दोष हाथी के गले ही पड़ा कि कम गहरे पानी से पानी नहीं पी सकता और प्यासा ही रहता है।

रसनिधि

सुन्दर गर्व कहा करै, देह महा दुर्गंध।

ता महिं तूं फूल्यौ फिरै, संमुझि देखि सठ अंध॥

सुंदरदास

सुन्दर ऊँचे पग किये, मन की अहं जाइ।

कठिन तपस्या करत है, अधो सीस लटकाइ॥

सुंदरदास

जब हम होते तू नहीं, अब तू है हम नाहीं।

जल की लहर जल में रहे जल केवल नाहीं॥

निपट निरंजन

सुंदर पंजर हाड कौ, चाम लपेट्यौ ताहि।

तामैं बैठ्यौ फूलि कै, मो समान को आहि॥

सुंदरदास

कतहू भूलौ नीच ह्वै, कतहू ऊंची जाति।

सुन्दर या अभिमांन करि, दोनौं ही कै राति॥

सुंदरदास

कहै चित्त कौं चित्त पुनि, सुन्दर तोहि बखानि।

अहंकार कौं है अहं, जानि सकै तो जानि॥

सुंदरदास

हाथी मंहि देखिये हाथी कौ अभिमान।

सुन्दर चीटी मांहिं रिस, चीटी कै अनुमान॥

सुंदरदास

देह रूप मन ह्वै रह्यौ, कियौ देह अभिमान।

सुन्दर समुझै आपकौं, आपु होइ भगवान॥

सुंदरदास

कतहू भूलो मौंनि धरि, कतहू करि बकबाद।

सुन्दर या अभिमान तें, उपज्यौ बहुत बिषाद॥

सुंदरदास

मैं नहिं मान्यौ रोस तैं, पिय बच हित सरसाहिं।

रूठि चल्यौ तब, कहा कहुँ, तुमहु मनायौ नाहिं॥

दौलत कवि

सुन्दर बहुत बलाइ है, पेट पिटारी मांहिं।

फूल्यौ माइ खाल मैं, निरखत चालै छांहिं॥

सुंदरदास

सुन्दर यौं अभिमान करि, भूलि गयौ निज रूप।

कबहूं बैठै छांहरी, कबहूं बैठै धूप॥

सुंदरदास

कामी हूवो काम रत, जती हुवो जत साधि।

सुन्दर या अभिमान तें, दोऊ लागी ब्याधि॥

सुंदरदास

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