अहंकार
औघट घाट पखेरुवा, पीवत निरमल नीर।
गज गरुवाई तैं फिरै, प्यासे सागर तीर॥
उथले या कम गहरे घाटों पर भी पक्षी तो निर्मल पानी पी लेते हैं, पर हाथी बड़प्पन के कारण समुद्र के तट पर भी (जहाँ पानी गहरा न हो) प्यासा ही मरता है।
जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाँहिं।
सब अँधियारा मिटि गया, जब दीपक देख्या माँहि॥
जब तक अहंकार था तब तक ईश्वर से परिचय नहीं हो सका। अहंकार या आत्मा के भेदत्व का अनुभव जब समाप्त हो गया तो ईश्वर का प्रत्यक्ष साक्षात्कार हो गया।
प्यास सहत पी सकत नहिं, औघट घाटनि पान।
गज की गरुवाई परी, गज ही के गर आन॥
हाथी प्यास सह लेता है पर औघट अर्थात कम गहरे घाट में पानी नहीं पी सकता। इस प्रकार हाथी के बड़प्पन का दोष हाथी के गले ही पड़ा कि कम गहरे पानी से पानी नहीं पी सकता और प्यासा ही रहता है।