संसार पर उद्धरण

‘संसरति इति संसारः’—अर्थात

जो लगातार गतिशील है, वही संसार है। भारतीय चिंतनधारा में जीव, जगत और ब्रहम पर पर्याप्त विचार किया गया है। संसार का सामान्य अर्थ विश्व, इहलोक, जीवन का जंजाल, गृहस्थी, घर-संसार, दृश्य जगत आदि है। इस चयन में संसार और इसकी इहलीलाओं को विषय बनाती कविताओं का संकलन किया गया है।

दुनिया जैसी है और जैसी उसे होना चाहिए के बीच कहीं वह एक लगातार बेचैनी है।

कुँवर नारायण

संसार ही युद्ध क्षेत्र है, इसमें पराजित होकर शस्त्र अर्पण करके जीने से क्या लाभ?

जयशंकर प्रसाद

संसार भी बड़ा प्रपंचमय यंत्र है। वह अपनी मनोहरता पर आप ही मुग्ध रहता है।

जयशंकर प्रसाद

अनंत अपनी मृत्यु में रहते हैं इतने धुँधले कि हमारी झलक में बार-बार जन्म लेते हैं संसार!

नवीन सागर

हम दुनिया को ग़लत आँकते हैं और कहते हैं कि उसने हमें छला है।

रवीन्द्रनाथ टैगोर

जब कोई अर्थ नहीं रह जाता व्यर्थ का दुनिया में बहुत कुछ होता रहता है।

नवीन सागर
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मनुष्य को ‘रैशनल’, ‘सोशल एनीमल’ अवश्य कहा जा सकता है; लेकिन समाज में ‘रैशनल’ और ‘सोशल’ एक साथ हो पाना कम से कम निर्ममता की हद तक ईमानदार तथा संवेदनशील व्यक्ति के लिए संभव नहीं है।

विष्णु खरे

सृष्टि है, निश्चित ही है; संरचना भी है : परंतु विनष्ट होने के लिए है।

श्रीनरेश मेहता

इतिहास, सभ्यता, संस्कृति, धर्म, राजनीति सभी तो स्फीति हैं।

श्रीनरेश मेहता

जिसे हम आधुनिकता करके जानते हैं, वह ख़ासी घुलनशील चीज़ है।

विजय देव नारायण साही

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