देह पर उद्धरण
देह, शरीर, तन या काया
जीव के समस्त अंगों की समष्टि है। शास्त्रों में देह को एक साधन की तरह देखा गया है, जिसे आत्मा के बराबर महत्त्व दिया गया है। आधुनिक विचारधाराओं, दासता-विरोधी मुहिमों, स्त्रीवादी आंदोलनों, दैहिक स्वतंत्रता की आवधारणा, कविता में स्वानुभूति के महत्त्व आदि के प्रसार के साथ देह अभिव्यक्ति के एक प्रमुख विषय के रूप में सामने है। इस चयन में प्रस्तुत है—देह के अवलंब से कही गई कविताओं का एक संकलन।

मुझे लगता है कि व्यक्ति ईश्वर से आता है और ईश्वर के पास वापस जाता है, क्योंकि शरीर की कल्पना की जाती है और जन्म होता है, यह बढ़ता है और घटता है, यह मर जाता है और ग़ायब हो जाता है; लेकिन जीवात्मा शरीर और आत्मा का मेल है, जिस तरह एक अच्छी तस्वीर में आकार और विचार का अदृश्य संगम होता है।

शरीर अंततः अवास्तविक है।

शरीर कोई चीज़ नहीं, बल्कि एक स्थिति है : यह दुनिया पर हमारी पकड़ है और हमारी योजना की रूपरेखा है।

हे मेरे शरीर, मुझे ऐसा आदमी बनाओ जो हमेशा सवाल करता रहे!

मेरी देह को भय होगा, मुझे नहीं।

वही शरीर है, वही रूप है, वही हृदय है; पर छिन गया अधिकार और मनुष्य का मान-दंड ऐश्वर्य। अब तुलना में सबसे छोटी हूँ। जीवन लज्जा की रंगभूमि बन रहा है।

शरीर के महत्व को, अपने देश के महत्व को समझने के लिए बीमार होना बेहद ज़रूरी बात है।

शरीर अंततः अवास्तविक है।

भगवती महामाया का निद्रा-रूप बड़ा शामक होता है। वह शरीर और मन की थकान पर सुधालेप करता है। वह जीवनी शक्ति को सहलावा देता है और प्राणों को नए सिरे से ताज़गी देता है।

इस सुंदरी का शरीर मनोहर है, वाणी रम्य है तथा चरण-निक्षेप अलौकिक है।

खाओ, पिओ, जागो, बैठो अथवा खड़े रहे, पर दिन में एक बार भी यह सोच लो कि इस शरीर का नाश निश्चय है।

जो पुरुष ओ३म रूपी एकाक्षर ब्रह्म का उच्चारण करता हुआ और परमात्मा का चिंतन करता हुआ शरीर को त्यागता है, वह मनुष्य परमगति को प्राप्त होता है।

जो कार्य करने से न तो धर्म होता हो और न कीर्ति बढ़ती हो और न अक्षय, यश ही प्राप्त होता हो, उल्टे शरीर को कष्ट होता हो, उस कर्म का अनुष्ठान कौन करेगा?

वेग के साथ घूमती हुई, चक्र का भ्रम उत्पन्न करने वाली काल-गति देखी नहीं जाती। कल जो शिशु था, आज वही पूर्ण युवा है और कल प्रात: वही जरा-जीर्ण शरीर वाला हो जाएगा।

भारतवर्ष की पवित्र भूमि है, उत्तम कुल में जन्म मिला है, समाज और शरीर भी उत्तम मिला है। ऐसी अवस्था में जो व्यक्ति क्रोध व कठोर वचन त्याग कर वर्षा, जाड़ा, वायु और धूप को सहन करता हुआ चातक-हठ से भगवान् को भजता है, वही चतुर है। शेष सब तो सुवर्ण के हल में कामधेनु को जोतकर विषबीज ही बोते हैं।

रोगों के आगार शरीर में किरायेदार के समान उपस्थित प्राण के लिए, मानो अभी तक कोई शाश्वत स्थान ही प्राप्त नहीं हुआ।

हमारे जैसे लोगों को एकांत विध्वंसशील (नश्वर) इस शरीर के प्रति मोह नहीं होता।

उपवास करने से चित्त अंतर्मुख होता है, दृष्टि निर्मल होती है और देह हलकी बनी रहती है।

कल्पना की तुलना में बुद्धि इसी प्रकार है जैसे कर्ता की तुलना में उपकरण, आत्मा की तुलना में शरीर और वस्तु की तुलना में उसकी छाया।

और न्याय-प्रिय न्यायाधीशों!
तुम उसे क्या सज़ा दोगे जो शरीर से ईमानदार है लेकिन मन से चोर है?
और तुम उस व्यक्ति को क्या दंड दोगे जो देह की हत्या करता है लेकिन जिसकी अपनी आत्मा का हनन किया गया है?
और उस पर तुम मुक़दमा कैसे चलाओगे जो आचरण में धोखेबाज़ और ज़ालिम है लेकिन जो ख़ुद सत्रस्त और अत्याचार-पीड़ित है?
और क्या उन्हें कैसे सज़ा दोगे जिनको पश्चात्ताप पहले ही उनके दुष्कृत्यों से अधिक है?
और क्या यह पश्चात्ताप ही उस क़ानून का दिया हुआ न्याय नहीं जिसका पालन करने का प्रयास तुम भी करते रहते हो?

तुम अपनी पत्नी की आबरू की रक्षा करना, और उसके मालिक मत बन बैठना, उसके सच्चे मित्र बनना। तुम उसका शरीर और आत्मा वैसे ही पवित्र मानना, जैसे कि वह तुम्हारा मानेगी।

मेरा शरीर जलकर अवश्य राख होगा और वृक्षों में खाद के रूप में उपयोगी होगा। जब उस वृक्ष की लकड़ी लेकर बढ़ई अपने कौशल से प्रभु के लिए पादुका बनाएगा, उस समय भी (उसमें स्थित) मुझे प्रभु की पद-सेवा का सौभाग्य मिलेगा ही।

कुश्ती का उद्देश्य सुरुचिपूर्ण स्पर्धा ही होनी चाहिए, निर्दयता का प्रसार नहीं। जिसके शरीर में बल है और पास में मल्लशास्त्र का ज्ञान है वह आवश्यकता पड़ने पर शत्रु को परास्त कर सकता है और दुष्ट को दंड दे सकता है परंतु अखाड़े में प्रतिस्पर्धी के हाथ-पाँव तोड़ना कदापि श्लाघ्य नहीं है।

मैं न जन्म लेता हूँ, न बड़ा होता हूँ, न नष्ट होता हूँ। प्रकृति से उत्पन्न सभी धर्म देह के कहे जाते हैं। कर्तृत्व आदि अहंकार के होते हैं। चिन्मय आत्मा के नहीं। मैं स्वयं शिव हूँ।

एक रंग होता है नीला और एक वह जो तेरी देह पर नीला होता है।

मैं शरीर में रहकर भी शरीर-मुक्त, और समाज में रहकर भी समाज-मुक्त हूँ।


जैसे जीवात्मा की इस देह में कुमार, युवा और वृद्ध अवस्थाएँ होती हैं, वैसे (मृत्यु होकर) अन्य शरीर की प्राप्ति होती है, उस विषय में धीर पुरुष मोहित नहीं होता है।

भौहें टेढ़ी करने पर भी दृष्टि और अधिक उत्सुक होकर उधर देखने लगती है, वाणी रुद्ध होने पर भी यह दग्ध मुख मुस्कराए बिना नहीं रहता, चित्त को कठोर करने पर भी शरीर पुलकित हो जाता है। भला उसकी दृष्टि के सामने मान का निर्वाह किस तरह होगा?

हाय! कालरूप पाचक हर क्षण प्राणियों के शरीरों में अवस्था परिवर्तन करता रहता है फिर भी उनकी समझ में कुछ नहीं आता।

दुर्बलतम शरीरों में अहंकार प्रबलतम होता है।

किसी कार्य को अच्छी तरह संपन्न किए बिना न छोड़े और सदा सावधान रहे। शरीर में गड़ा हुआ काँटा भी यदि पूर्णरूप से निकाल न दिया जाए तो चिरकाल तक विकार उत्पन्न करता है।

यह शरीर मिट्टी का बना हुआ है, मिट्टी के पुतले की तरह टूट जाने वाला है। लाठियों से सिर के टुकड़े हो जाएँगे, मगर दिल के टुकड़े नहीं होंगे। आत्मा को गाली या लाठी नहीं मार सकती। दिल के भीतर की असली चीज़ को— आत्मा को कोई हथियार नहीं छू सकता।

हे अर्जुन! शरीर रूपी यंत्र में आरूढ़ हुए संपूर्ण प्राणियों को अंतर्यामी परमेश्वर अपनी माया से घुमाता हुआ सब प्राणियों के हृदय में स्थित है।

ईश्वर प्रेम की मदिरा से मेरे शरीर तथा प्राणों को शक्ति प्राप्त होती है। उसके पीने से मेरे छिपे हुए रहस्य प्रकट हो जाते हैं। उनके पी लेने पर मुझे न इस लोक की आवश्यकता रहती है, न परलोक की। इस मदिरा का एक प्याला दोनों लोकों के लिए पर्याप्त है।

हमने ऐसा संसार बनाया है जिसमें संतुष्ट शरीर हैं और असंतुष्ट मन हैं।

शक्ति भय के अभाव में रहती है, न कि माँस या पुट्ठों के गुणों में, जो कि हमारे शरीर में होते हैं।

हे मूढ़! व्रतधारण और साज-सज्जा कर्तव्य कर्म नहीं है। न ही मात्र काया की रक्षा कर्तव्य कर्म है। भोले मानव! देह की सार-संभाल ही कर्तव्य कर्म नहीं। सहज विचार (आत्म-तत्त्वचिंतन) वास्तविक उपदेश है।
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आपके सहारे के बिना कोई शरीर कैसे चल सकता है? आपके बिना कोई भी पौधा कैसे उग सकता है? आपके बिना कहीं भी पानी कैसे पड़ सकता है? आपके बिना यह त्यागराज आपका गुणगान कैसे कर सकता है?

मनुष्यलोक से तुम्हारा प्रस्थान होने पर शरीर तो भार जैसा, जीवन वज्रमय कील के सदृश, दिशायें शून्य, इंद्रियाँ निष्फल, समय दुःखद और मनुष्यलोक सर्वत्र प्रकाश रहित प्रतीत हो रहा है।

हीन अंग वाले, अधिक अंग वाले, विद्याहीन, निंदित रूपहीन, धनहीन तथा बलहीन मनुष्यों पर आक्षेप नहीं करना चाहिए।

काल नहीं बीतता इस देह की आयु भर बीतती है।

जिनका सारा शरीर मन मिट्टी के ममता रस से सींचा हुआ है—इस पृथ्वी की नाव की पतवार ही हाथों में रहेगी।

ब्रह्मचर्य से हम जितना अधिक तप, तेज, विद्युत और ओज का भंडार बढ़ा सकेंगे, उतना ही हम स्वयं को शरीर, हृदय, मन और आत्मा के कार्यों के लिए चरम शक्ति से भर लेंगे।

अपने माँस की वृद्धि के लिए दूसरे प्राणी के शरीर का भक्षण करने वाला दयावान कैसे हो सकता है?

प्रकृति में विषमता तो स्पष्ट है। नियंत्रण के द्वारा उसमें व्यावहारिक समता का विकास न होगा। भारतीय आत्मवाद की मानसिक समता ही उसे स्थायी बना सकेगी। यात्रिंक सभ्यता पुरानी होते ही ढीली होकर बेकार हो जाएगी। उसमें प्राण बनाए रखने के लिए व्यावहारिक समता के ढाँचे या शरीर में, भारतीय आत्मिक साम्य की आवश्यकता कब मानव समाज समझ लेगा, यही विचारने की बात है। मैं मानता हूँ कि पश्चिम एक शरीर तैयार कर रहा है किंतु उसमें प्राण देना पूर्व के अध्यात्मवादियों का काम है। यही पूर्व और पश्चिम का वास्विक संगम होगा।

शरीर में झुर्रियाँ पड़ गईं, सिर के बाल सफ़ेद हो गए फिर जरावस्था से जीर्ण हुआ मनुष्य कौन सा उपाय करके मृत्यु से बचने में समर्थ हो सकता है?


जैसे इस आकाश में बादलों के वे ही टुकड़े भिन्न रूप धारण करते हैं—कभी हाथी, कभी चीते, कभी राक्षस, कभी सर्प और कभी अश्व आदि का भ्रम उत्पन्न करते रहते है, उसी प्रकार क्षण-क्षण में विभिन्नता होने के कारण शरीर-धारियों के हृदय में उठने वाली ये विकारों की लहरें, कभी सौम्य और कभी क्रूर विकृतियाँ उत्पन्न करती है।

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