आत्मा पर दोहे
आत्मा या आत्मन् भारतीय
दर्शन के महत्त्वपूर्ण प्रत्ययों में से एक है। उपनिषदों ने मूलभूत विषय-वस्तु के रूप में इस पर विचार किया है जहाँ इसका अभिप्राय व्यक्ति में अंतर्निहित उस मूलभूत सत् से है जो शाश्वत तत्त्व है और मृत्यु के बाद भी जिसका विनाश नहीं होता। जैन धर्म ने इसे ही ‘जीव’ कहा है जो चेतना का प्रतीक है और अजीव (जड़) से पृथक है। भारतीय काव्यधारा इसके पारंपरिक अर्थों के साथ इसका अर्थ-विस्तार करती हुई आगे बढ़ी है।
सुरति निरति नेता हुआ, मटुकी हुआ शरीर।
दया दधि विचारिये, निकलत घृत तब थीर॥
अग्नि कर्म संयोग तें, देह कड़ाही संग।
तेल लिंग दोऊ तपै, शशि आतमा अभंग॥
देह कृत्य सब करत है, उत्तम मध्य कनिष्ट।
सुंदर साक्षी आतमा, दीसै मांहि प्रविष्ट॥