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भक्ति पर उद्धरण

भक्ति विषयक काव्य-रूपों

का संकलन।

धर्म का प्रवाह, कर्म, ज्ञान और भक्ति इन तीन धाराओं में चलता है। इन तीनों के सामंजस्य से धर्म अपनी पूर्ण सजीव दशा में रहता है। किसी एक के भी अभाव से वह विकलांग रहता है।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल

सत्, चित् और आनंद-ब्रह्म के इन तीन स्वरूपों में से काव्य और भक्तिमार्ग 'आनंद' स्वरूप को लेकर चले। विचार करने पर लोक में इस आनंद की दो अवस्थाएँ पाई जाएँगी—साधनावस्था और सिद्धावस्था।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल

हृदय में निर्गुण ब्रह्म का ध्यान, नेत्रों के सामने सगुण रूप की सुंदर झाँकी और जीभ से सुंदर राम नाम का जप करना। यह ऐसा है मानो सोने की सुंदर डिबिया में मनोहर रत्न सुशोभित हो।

तुलसीदास

हे जगत्पति! मुझे धन की कामना है, जन की,न सुंदरी की और कविता की। हे प्रभु! मेरी कामना तो यह है कि जन्म-जन्म में आपकी अहैतुकी भक्ति करता रहूँ।

चैतन्य महाप्रभु

भक्ति और प्रेम से मनुष्य निःस्वार्थी बन सकता है। मनुष्य के मन में जब किसी व्यक्ति के प्रति श्रद्धा बढ़ती है तब उसी अनुपात में स्वार्थपरता घट जाती है।

सुभाष चंद्र बोस

आज के समाज में प्रतिभा तो बहुत है, परंतु श्रद्धा नहीं है। ज्ञान तो है परंतु व्यावहारिक बुद्धि नहीं है। आडंबरपूर्ण सभ्यता तो है, परंतु प्रेम सहानुभूति नहीं है।

सैमुअल स्माइल्स

मुझमें भगवान् का प्रेम है, श्रवणादि भक्ति है, वैष्णवों का योग है, ज्ञान है, शुभ कर्म है, और कितने आश्चर्य की बात है कि उत्तम गति भी नहीं है, फिर भी हे भगवान्! हीन अर्थ को भी उत्तम बना देने वाले आपके विषय में आबद्धमूला मेरी आशा ही मुझको प्रयत्नशील बनाए रहती है।

चैतन्य महाप्रभु

भक्ति-लता संतों की कृपा से ही उत्पन्न होती है। दीनता एवं दूसरों को मान देने की वृत्ति आदि शिलाओं की बाढ़ द्वारा उस लता को संतापराध रूपी हाथी से बचाकर, श्रवण-कीर्तन आदि जल से सींचते और बढ़ाते रहना चाहिए।

विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर

भक्ति-मार्ग का सिद्धांत है भगवान को बाहर जगत में देखना। 'मन के भीतर देखना' यह योग-मार्ग का सिद्धांत है, भक्ति मार्ग का नहीं।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल

हे भगवान्! आपने अपने बहुत नाम प्रकट किए हैं, जिनमें आपने अपनी सब शक्ति भर दी है और आपने उनके स्मरण के लिए कोई काल भी सीमित नहीं किए हैं। आपकी ऐसी कृपा है परंतु मेरा ऐसा दुर्भाग्य है कि इस जीवन में मुझमें कोई भक्ति नहीं है।

चैतन्य महाप्रभु

जो सब प्राणियों से द्वेष करने वाला, सबका मित्र, दयावान, ममतारहित, निरहंकारी, सुख और दुःख को समान मानने वाला, क्षमाशील, सदा संतुष्ट, योगी, संयमी और दृढ़निश्चयी है और जिसने अपने मन और बुद्धि का परमात्मा को अर्पण कर दिया है, वह भक्त मुझे (परमात्मा को) प्रिय है।

वेदव्यास

यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्य भाव से परमात्मा का भक्त हुआ, तो वह साधु ही मानने योग्य है। क्योंकि अब वह निश्चय वाला है। वह शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है और शाश्वत शांति को प्राप्त करता है।

वेदव्यास

अहिंसा केवल बुद्धि का विषय नहीं है, यह श्रद्धा और भक्ति का विषय है। यदि आपका विश्वास अपनी आत्मा पर नहीं है, ईश्वर और प्रार्थना पर नहीं है, तो अहिंसा आपके काम आने वाली चीज़ नहीं है।

महात्मा गांधी

भक्ति, धर्म और ज्ञान दोनों की रसात्मक अनुभूति है।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल

जो भक्ति मार्ग श्रद्धा के अवयव को छोड़कर केवल प्रेम को ही लेकर चलेगा, धर्म से उसका लगाव रह जाएगा। वह एक प्रकार से अधूरा रहेगा।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल

भक्ति का अर्थ है भावपूर्वक अनुकरण।

महात्मा गांधी

गया जाने से बात समाप्त नहीं होती, वहाँ जाकर चाहे तू कितना ही पिंडदान दे। बात तो तभी समाप्त होगी, जब तू खड़े-खड़े इस 'मैं' को लुटा दे।

बुल्ले शाह

हे मूढ़मति! तू कौन है? मैं कौन हूँ? मैं कहाँ से आया? मेरी माता कौन है? मेरा पिता कौन है? ऐसा विचार कर इस असार स्वप्न सदृश विश्व को त्यागकर निरंतर भगवान की उपासना कर।

आदि शंकराचार्य

जब तक भोग और मोक्ष की वासना रूपिणी पिशाची हृदय में बसती है, तब तक उसमें भक्ति-रस का आविर्भाव कैसे हो सकता है।

रूप गोस्वामी

जो लोग कृष्ण-कृष्ण कहते हैं वह उसके पुजारी नहीं हैं। जो उसका काम करते हैं, वे ही पुजारी हैं। रोटी-रोटी कहने से पेट नहीं भरता, रोटी खाने से भरता है।

महात्मा गांधी

देवता भक्ति से संतुष्ट होते हैं।

भास

किसी उच्चादर्श में कुछ आस्था होना- अपने जीवन को सार्थक करने और हमें बाँधे रखने के लिए आवश्यक है।

जवाहरलाल नेहरू

अपने स्वरूप के अनुसंधान को ही 'भक्ति' कहते हैं।

आदि शंकराचार्य

श्रद्धा और प्रेम के योग का नाम भक्ति है।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल

सब देवता उन सनातन भगवान की उपासना करते हैं, उन्हीं के प्रकाश से सूर्य प्रकाशित होते हैं और योगी जन उन्हीं का साक्षात्कार करते हैं।

वेदव्यास

धर्म की रसात्मक अनुभूति का नाम भक्ति है।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल

भक्ति में बड़ी भारी शर्त है निष्काम की। भक्ति के बदले में उत्तम गति मिलेगी, इस भावना को लेकर भक्ति हो ही नहीं सकती। भक्ति के लिए भक्ति का आनंद ही उसका फल है।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल