
मुझे अपनी कल्पना को साकार करने के लिए अकेलेपन के दर्द की ज़रूरत है।

कला का कार्य यथास्थिति बताने से ज़्यादा यह कल्पना करना है कि क्या संभव है।

एक बार जब बुराई व्यक्तिगत हो जाती है, रोज़मर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा बन जाती है तो उसका विरोध करने का तरीक़ा भी व्यक्तिगत हो जाता है। आत्मा कैसे जीवित रहती है? यह आवश्यक प्रश्न है। और उत्तर यह है : प्रेम और कल्पना से।

मुझे लगता है कि व्यक्ति ईश्वर से आता है और ईश्वर के पास वापस जाता है, क्योंकि शरीर की कल्पना की जाती है और जन्म होता है, यह बढ़ता है और घटता है, यह मर जाता है और ग़ायब हो जाता है; लेकिन जीवात्मा शरीर और आत्मा का मेल है, जिस तरह एक अच्छी तस्वीर में आकार और विचार का अदृश्य संगम होता है।

शैतान की मौत कल्पना के लिए त्रासदी थी।

मैं कल्पना नहीं कर सकता कि कोई आदमी वास्तव में किसी किताब का आनंद ले और उसे केवल एक बार पढ़े।

सिर्फ़ उन चीज़ों के बारे में लिखिए जिनमें वास्तव में आपकी रुचि है; वे चाहे वास्तविक हों या काल्पनिक, और किसी चीज़ के बारे में नहीं।

कल्पित कथा मकड़ी के जाल की तरह है, जो शायद थोड़ा-बहुत जुड़ा हुआ है, लेकिन फिर भी चारों कोनों पर जीवन से जुड़ा हुआ है।

वास्तविकता को प्रचुर कल्पना से हराया जा सकता है।

कल्पना प्रकृति पर मनुष्य की हुकूमत है।

कल्पना चीज़ों की अभिलाषा है।

दुःख के प्रतिकार से थोड़ा दुःख रहने पर भी मनुष्य सुख की कल्पना कर लेता है।

ईश्वर और कल्पना एक ही हैं।

सत्य कल्पना से अधिक अजीब है। लेकिन ऐसा इसलिए है, क्योंकि कल्पना संभावनाओं से चिपके रहने के लिए बाध्य है; सच नहीं।

ईश्वर की कृपा की भयावह विचित्रता की कल्पना न तुम कर सकते हो, और न ही मैं।

नफ़रत की वजह कल्पना का न होना है।

हमारा भविष्य जैसे कल्पना के परे दूर तक फैला हुआ है, हमारा अतीत भी उसी प्रकार स्मृति के पार तक विस्तृत है।
