संगीत पर उद्धरण
रस की सृष्टि करने वाली
सुव्यवस्थित ध्वनि को संगीत कहा जाता है। इसमें प्रायः गायन, वादन और नृत्य तीनों शामिल माने जाते हैं। यह सभी मानव समाजों का एक सार्वभौमिक सांस्कृतिक पहलू है। विभिन्न सभ्यताओं में संगीत की लोकप्रियता के प्रमाण प्रागैतिहासिक काल से ही प्राप्त होने लगते हैं। भर्तृहरि ने साहित्य-संगीत-कला से विहीन व्यक्ति को पूँछ-सींग रहित साक्षात् पशु कहा है। इस चयन में संगीत-कला को विषय बनाती कविताओं को शामिल किया गया है।

जन-रागिनी और उसकी अंत:श्रद्धा जाने कितनी घटनाओं को अपनी गहराई के जादू से दैवी रूप प्रदान कर देती है, इतिहास विफल रहता है, कला समय का आघात बर्दाश्त नहीं कर पाती और साहित्य कभी-कभी पन्नों में सोया रह जाता है, किन्तु लोक-रागिनी का स्वर आँधी-पानी के बीच समय की उद्दाम-धारा के बहाव के बीच, विस्मृति के कितने अभिचारों के बीच भी शाश्वत बना रहता है और यद्यपि यह नहीं पता चलता कि किस युग से, किस घटना से और किस देश से उसका संबंध है और यह भी नहीं पता चलता कि उसके कितने संस्करण अपने-आप अनजाने कण्ठों द्वारा हो गए हैं, पर उसमें जो सत्य सत्त बनकर खिंच आता है, उसे कोई भी हवा उड़ा नहीं पाती, क्योंकि वह सत्य बहुत भारी होता है।

केवल हिंदुस्तान में दर्शन संगीत के रूप में कहा गया। जब दर्शन और संगीत का जोड़ हो जाए तो मज़ा ही आएगा।

जो शोर की जगह संगीत, आनंद की जगह ख़ुशी, आत्मा की जगह सोना, रचनात्मक कार्य की जगह व्यापार, और जुनून की जगह मूर्खता चाहता है, उसे इस साधारण दुनिया में कोई घर नहीं मिलता।

हर रचना अपने निजी विन्यास को लेकर व्यक्त होती है, जैसे हर राग-रागिनी का ठाट बदल जाता है, वैसे ही हर चित्र, कविता के सृजन के समय उसका साँचा बदल जाता है।

चेहरे के समान धुन की भी एक शक्ल होती है।

मैंने तस्वीर में रंग भरे और रंगों में लय के साथ संगीत झंकृत होने लगा। हाँ, मैंने देखा था कि मैंने तस्वीर में रंग ही भरे थे।

क्या हमें किसी ऐसे व्यक्ति की कल्पना नहीं करना चाहिए, जिसने कभी संगीत नहीं सुना हो, और जो एक दिन अचानक शोपां की कोई अंतर्गुम्फित रचना सुने और यह मान बैठे कि यह एक ऐसी गुप्त भाषा है, जिसके अर्थों को दुनिया उससे छुपाए रखना चाहती है?

विचार के साथ और विचार के बिना बोलने की तुलना संगीत को विचार के साथ, और विचार के बिना बजाने से ही करनी चाहिए।


अकारण और अंतहीन : संगीत, लय और नृत्य।

अँधेरे में संगीत दो व्यक्तियों को कितना पास खींच लाता है!

कविता का संगीत शब्द-ध्वनि का संगीत नहीं है, अर्थ-संकेत (इसे रीतिकालीन ‘अर्थ-संकेत’ के अर्थ में ग्रहण नहीं किया जाए) और अर्थ-विस्तार का संगीत है।

संगीत में जीवनकाल की कोई सीमा नहीं है।

धुन का भाषा से मेल होता है।

किसी शिल्पकार्य, संगीत और किसी अन्य विषय में प्रवीणता तब तक नहीं होती और न हो सकती है, जबतक इंद्रियों की अनेक नित्य एवं सहज क्रियाओं में कुछ बदलाव न किया जाए।

वीणा तो देखी जा सकती है किंतु सुर को नहीं देखा जा सकता है; किंतु उस सुर से यह पहचाना जा सकता है कि वीणा बज रही है।

जिस प्रकार हर रंग और रेखा चित्र नहीं है, हर ध्वनि संगीत नहीं है, शरीर की हर भाव-भंगिमा नृत्य नहीं है, वस्तु की हर आकृति शिल्प नहीं है, हर शब्द साहित्य नहीं है—उसी प्रकार हर ध्वनि, हर मुद्रा, हर रंग व रेखा और हर आकृति से प्राप्त होने वाला आनन्द कला का आनन्द नहीं है।

जितने भी अधिक से अधिक महत्त्वपूर्ण कार्य होते हैं वे सब अनायास ही नम्रतापूर्वक और बिना किसी आडंबर के हुआ करते हैं। न तो हल चलाने का कार्य और न इमारत बनाने या पशु चराने या सोचने के कार्य ही वर्दी पहनकर, दीपों की चमक-दमक में और तोपों की गर्जन के बीच किए जा सकते हैं। इसके विपरीत दीपों की जगमगाहट, तोपों की गड़गड़ाहट, संगीत, वर्दी, सफ़ाई और चमक-दमक यह प्रकट करते हैं कि उनके बीच जो कुछ भी हो रहा है वह सब महत्तवहीन है। महान और सच्चे कार्य सदा सरल और विनम्र होते हैं।

कल्पना गीत गाती है और उस गीत से प्राण-वीणा में नृत्य छंद बज उठता है।

जिस तरह से शब्द, सुर और लय वैसे ही रंग, रेखा और रूप––तीनो मिलकर एक होना चाहते हैं। जो रूपांकन में दक्ष होता है; वह इन तीनों को एक करने का उपाय जानता है, किंतु जो इसमें ज़रा भी दक्ष नहीं है; वह तीनों को अलग-अलग रखता है, नहीं तो इन्हें बड़ी खींच-तान के बाद इस तरह मिलाता है, जिससे इनकी अपनी श्री, अपना छंद-पर्यंत नष्ट होकर एक भद्दी वस्तुओं की समष्टि बन जाति है।

विफलता को लेकर ही इस जीवन-संगीत की मैंने रचना की है। दोनों आँखों से आँसू की बूंदें टपकती हैं। इस विशाल विश्व में केवल नयनाश्रुओं से ही मेरा सागर-तट भर गया।

मानव जाति के विकास क्रम में एक स्थिति ऐसी भी थी जब उसके सामूहिक गान में कविता, नृत्य, संगीत—तीनों सम्मिश्रित थे।

अंधविश्वास जीवन की कविता है।

पीते वक़्त ख़्वाहिश होती है अच्छा संगीत सुनूँ, और संगीत के इर्द-गिर्द ख़ामोशी हो।

कविता, संगीत, चित्रकला जहाँ पर स्वतः स्फूर्त नहीं होती हैं, किंतु यंत्रशक्ति का परिचय देते हुए, विस्मय का उद्रेक करती हैं, वहाँ पर मन अभिभूत हो जाता है।

कल्पना, मनुष्य-प्राण की मानसी वीणा का चिरंतन संगीत है।

यह संगीत ही है जो दिल का विस्तार करता है और श्रोता को परमानंद और भय से शांत कर देता है।

भारतीय संगीत के इतिहास में भक्ति के आने के साथ भजन और कीर्तन से एक नए संगीत की शुरुआत हुई।

जब मैं प्रेम से परिचित हुआ तो शब्द मेरे मुख में साँस बनकर रह गए और जो संगीत बाहर आने के लिए बेचैनी से मेरे हृदय में लहरे ले रहा था, वह गहरे मौन में खो गया।

नूपुर पदचाप के छंद से मधुर बजता है, पालतू कुत्ता जब उसे लेकर खींच-तान करता है, तब वह विरक्ति उत्पन्न करने के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं करता।

वाद्य-संगीत कविता के अभाव की पराकाष्ठा है तो आधुनिक गद्य-गीत, संगीत के अभाव का परला किनारा है।

संगीत में स्वरमाला सात राजाओं के धन की तरह सिर्फ़ सात होती हैं, किंतु सत्ताईस लाख से भी अधिक रूप पाकर वे सातों सुर झलक मारने लगते हैं, गुणी के कंठ में सतलड़ी हार होकर।

संगीत दो आत्माओं के बीच फैली अनंतता को भरता है।

सुर की भाषा जो नहीं समझता है, उसके लिए संगीत एक बहुत जटिल पहेली है, दुर्बोध शब्द अर्थात् आवाज़ मात्र है।

मैं तो नहीं गाती। न जाने मेरे प्राण के गोपनीय अंतराल में कौन गाता है! मैं तो स्वयं नहीं जानती कि वह कौन है जो मेरी जीवन-वीणा अनजाने स्वरों से बजाता है।

संगीत से जुदा होकर वाणी सामूहिक आवश्यकता को पूरा नहीं कर पाती।

जैसे संगीत में पद-पद पर समय का ध्यान रखना पड़ता है, वैसे ही प्राणायाम में भी होता है।

संगीत को काव्य के और काव्य को संगीत के अधिक निकट लाने का सबसे अधिक प्रयास निराला जी ने किया है।

हर दिन, एक संगीत का टुकड़ा, एक छोटी कहानी या एक कविता मर जाती है क्योंकि उसके अस्तित्व का हमारे समय में कोई औचित्य नहीं रह जाता। और जो चीजें कभी अमर मानी जाती थीं, वे फिर से नश्वर हो गई हैं, अब कोई उन्हें नहीं जानता। फिर भी, उन्हें जीवित रहने का हक है।

अँधेरे में संगीत दो व्यक्तियों को कितना पास खींच लाता है।