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आकांक्षा पर उद्धरण

इच्छा का यह जो सहज धर्म है कि वह दूसरे की इच्छा को चाहती है, केवल ज़ोर-ज़बरदस्ती पर ही उसका आनंद निर्भर नहीं है।

रवींद्रनाथ टैगोर

आदर्श आकांक्षा मात्र ही नहीं है। वह संकल्प भी है। क्योंकि जिन आकांक्षाओं के पीछे संकल्प का बल नहीं, उनका होना या होना बराबर ही है।

ओशो

आदिम मानव की यह एक स्वाभाविक वृत्ति है कि वह बाह्य-वस्तु जगत को अपनी कल्पना के द्वारा, अपनी आकांक्षाओं के अनुरूप चित्रित करता है।

विजयदान देथा

चीज़ों को देर तक देखना तुम्हें परिपक्व बनाता है और उनके गहरे अर्थ समझाता है।

विन्सेंट वॉन गॉग

सवेरे से ही मैं अपने संसार के बारे में सोचना प्रांरभ कर देता हूँ, क्योंकि यह मेरा संसार जो है—मेरी इच्छा ही इस संसार का केंद्र है। मैं क्या चाहता हूँ, क्या नहीं चाहता, मैं किसे रखूँगा, किसे छोड़ दूँगा—इन्हीं सब बातों को बीच में रखकर मेरा संसार है।

रवींद्रनाथ टैगोर

अगर हम ख़ुद में ऐसी इच्छा पाते हैं जिसे इस दुनिया में कुछ भी संतुष्ट नहीं कर सकता है, तो सबसे संभावित स्पष्टीकरण यह है कि हम दूसरी दुनिया के लिए बने हैं।

सी. एस. लुईस

अल्पवित्त वाला व्यक्ति अगर एक दिन के लिए अपना राजा का शौक पूरा करने जाए; तो वह दस दिन के लिए अपने को दीवालिया बना डालता है, उसके अलावा उसके पास और कोई उपाय नहीं रहता है।

रवींद्रनाथ टैगोर

इच्छा को जहाँ अन्य इच्छा की चाह होती है, वहाँ इच्छा फिर स्वाधीन नहीं रह जाती।

रवींद्रनाथ टैगोर

हमारी जिस इच्छा में स्वाधीनता का सबसे विशुद्ध रूप होता है, उसी में अधीनता का भी विशुद्ध रूप होता है।

रवींद्रनाथ टैगोर

संसार में इच्छा का एक निदर्शन, हमें सौंदर्य में मिलता है।

रवींद्रनाथ टैगोर

इच्छा और इच्छा के बीच, दूत का काम करती है प्रार्थना।

रवींद्रनाथ टैगोर

वासना जिस तरह बाहर के अँधेरे में घुमाती है, इच्छा भी वैसे ही भीतर के अँधेरे में घुमाकर मारती है और अंत में मजूरी के समय धोखा देती है।

रवींद्रनाथ टैगोर

अगर मैं कहूँ; मनुष्य मुक्ति चाहता है, तो यह मिथ्या बात होगी। मनुष्य मुक्ति की अपेक्षा बहुत सारी चीज़ें चाहता है। मनुष्य अधीन होना चाहता है।

रवींद्रनाथ टैगोर

जो कर्म के फल का विचार कर केवल कर्म की ओर दौड़ता हैं, वह उसका फल मिलने के समय उसी प्रकार शोक करता है जैसे ढाक का वृक्ष सींचने वाला करता है।

वाल्मीकि

मनुष्य का सामाजिक जीवन ही साहित्य कला का एकमात्र स्रोत होता है तथा उसकी विषय-वस्तु; कला-साहित्य के मुक़ाबले अतुलनीय रूप से अधिक सजीव और समृद्ध होती है, फिर भी लोग केवल जीवन को देखकर ही संतुष्ट नहीं हो सकते बल्कि साहित्य और कला की माँग भी करते हैं।

माओ ज़ेडॉन्ग

बिना पढ़े ही गर्व करने वाले, दरिद्र होकर भी बड़े-बड़े मनोरथ करने वाले और बिना कर्म किए ही धन पाने की इच्छा रखने वाले मनुष्य को पंडित लोग मूर्ख कहते हैं।

वेदव्यास

पराई स्त्री और पराया धन जिसके मन को अपवित्र नहीं करते, गंगादि तीर्थ उसके चरण-स्पर्श करने की अभिलाषा करते हैं।

संत एकनाथ

निंदा, प्रशंसा, इच्छा, आख्यान, अर्चना, प्रत्याख्यान, उपालंभ, प्रतिषेध, प्रेरणा, सांत्वना, अभ्यवपत्ति, भर्त्सना और अनुनय इन तेरह बातों में ही पत्र से ही प्रकट होने वाले अर्थ प्रवृत्त होते हैं।

चाणक्य

मानव के सभी कार्यों के कारणों में इन सात में से एक या अनेक होते हैं—संयोग, प्रकृति, विवशताएँ, आदत, तर्क, मनोभाव, इच्छा।

अरस्तु

हे जगत्पति! मुझे धन की कामना है, जन की,न सुंदरी की और कविता की। हे प्रभु! मेरी कामना तो यह है कि जन्म-जन्म में आपकी अहैतुकी भक्ति करता रहूँ।

चैतन्य महाप्रभु

साहित्य और कला की हमारी पूरी परंपरा में, जीव की प्रधान कामना आनंद की अनुभूति है।

लक्ष्मीनारायण मिश्र

मानव-जीवन लालसाओं से बना हुआ सुंदर चित्र है। उसका रंग छीनकर उसे रेखाचित्र बना देने से मुझे संतोष नहीं होगा।

जयशंकर प्रसाद

संसार से प्रतिदिन प्राणी यमलोक में जा रहे हैं किंतु जो बचे हुए हैं, वे सर्वदा जीते रहने की इच्छा करते हैं। इससे बढ़कर आश्चर्य और क्या होगा?

वेदव्यास

सज्जन लोगों का याचकों के प्रति अभिलषित वस्तु को करके दिखाना ही उत्तर होता है।

कालिदास

कुछ पाने की और कुछ होने की आकांक्षा ही दु:ख है। दु:ख कोई नहीं चाहता, लेकिन आकांक्षाएँ हों तो दु:ख बना ही रहेगा।

ओशो

हृदय की इच्छाएँ कुछ भी पाकर शांत नहीं होती है क्यों? क्योंकि हृदय तो परमात्मा को पाने के लिए बना है।

ओशो

मैं आँसुओं और मुस्कान से थक गया हूँ। मैं मनुष्यों से भी थक गया हूँ जो इस चिंता से कि कल क्या होगा, रोते और हँसते हैं और जो फ़सल बोते और काटते हैं।

मैं दिनों और घंटों से थक गया हूँ, वंध्या फूलों की खिली कलियों से थक गया हूँ और निद्रा के अतिरिक्त सभी से—इच्छाओं, कल्पनाओं और शक्तियों से थक गया हूँ।

एल्गर्नन चार्ल्स स्विनबर्न

वासना का लक्ष्य जैसे बाहर के विषय होते हैं, इच्छा का लक्ष्य वैसे ही भीतरी प्रयोजन होते हैं।

रवींद्रनाथ टैगोर

यौवनकाल में रजोगुण-वश उत्पन्न भ्रांति वाला स्वभाव मनुष्य को इच्छानुसार बहुत दूर इसी प्रकार ले जाता है जिस प्रकार प्रबल वायु सूखे पत्तों को।

बाणभट्ट

जो इच्छाओं से अभिभूत हैं, वे मर्त्य लोक में क्या, स्वर्ग में भी शांति नहीं पाते। तृष्णावान को काम से तृप्ति नहीं होती, जैसे हवा का साथ पाकर अग्नि की ईंधन से तृप्ति नहीं होती।

अश्वघोष

हे अर्जुन! मैं बलवानों का आसक्ति और कामनाओं से रहित बल हूँ और सब प्राणियों में धर्म के अनुकूल 'काम' हूँ।

वेदव्यास

संसार की इच्छाओं से तृप्ति नहीं होती, जैसे गिरती जल राशि से महासागर की तृप्ति नहीं होती।

अश्वघोष

धन जोड़कर भक्ति का दिखावा करने से कोई लाभ नहीं क्योंकि ऐसा करने से मन में वासना और भी बढ़ती जाएगी। जिनका चित्त वासनाओं में फँसा हुआ है, उन्हें अंतरात्मा के दर्शन कैसे हो सकते हैं?

संत एकनाथ

हे अर्जुन! मन को मथने वाली इंद्रियाँ प्रयत्न करने वाले ज्ञानी पुरुष के मन को भी बलात्कारपूर्वक हर लेती हैं।

वेदव्यास

विजय की इच्छा वाले पुरुष को यह 'जय' नामक इतिहास अवश्य सुनना चाहिए।

वेदव्यास

काफ़्का को उस अजनबी की पूरी पहचान थी जिसे वह अपने अंदर लिए चलता था—वह जानता था कि उसे शांति चाहिए क्योंकि वह मृत्यु का अभिलाषी था।

पीएत्रो चिताती

यह तृष्णा यद्यपि मनुष्यों के शरीर के भीतर ही रहती यह तृष्णा यद्यपि मनुष्यों के शरीर के भीतर ही रहती है, सो भी इसका कहीं आदि अंत नहीं है। लोहे के पिंड की आग के समान यह तृष्णा प्राणियों का विनाश कर देती है।

वेदव्यास

निश्चय ही इस संसार में इच्छारहित प्राणी को संपदाएँ नहीं अपनाती और संपूर्ण कल्याणों की उपस्थिति उनके हाथ में नित्य रहती है जो आलसी नहीं हैं।

दण्डी

जो अपने प्रतिकूल हो, उसे दूसरों के प्रति भी करे—संक्षेप में यही धर्म है। इसके विपरीत जिसमें कामना से प्रवृत्ति होती है, वह तो अधर्म है।

वेदव्यास

हे अर्जुन! रागरूप रजोगुण को कामना आसक्ति से उत्पन्न जान। वह इस जीवात्मा को कर्मों के संबंध से बाँधता है।

वेदव्यास

मनुष्य जिस-जिस कामना को छोड़ देता है, उस-उस की ओर से सुखी हो जाता है। कामना के वशीभूत होकर तो वह सर्वदा दुःख ही पाता है।

वेदव्यास

आदर्श अंधकार से सूर्य की ओर उठने की आकांक्षा है। जो उस आकांक्षा से पीड़ित नहीं होता है, वह अंधकार में ही पड़ा रह जाता है।

ओशो

क्योंकि मैं पूर्णानंदस्वरूप परमात्मा से भिन्न नहीं हूँ और सदा ही तृप्त हूँ, अतः मुझे किसी चीज़ की इच्छा नहीं है। मैं सर्वदा ही तृप्त हूँ और अपने लिए किसी हित की कामना नहीं करता। हे चित्त! तू शांत होने के लिए प्रयत्न कर, यही तेरे लिए हितकर है।

आदि शंकराचार्य

मैं निर्विकल्प (परिवर्तन रहित) निराकार, विभुत्व के कारण सर्वव्यापी, सब इंद्रियों के स्पर्श से परे हूँ। मैं मुक्ति हूँ मेय (मापने में आने वाले)। मैं विदानंद रूप हूँ। मैं शिव हूँ। मैं शिव हूँ।

आदि शंकराचार्य

प्रणय का भी वेग कैसा प्रबल है! यह किसी महासाग‍र की प्रचंड आँधी से कम प्रबलता नहीं रखता। इस झोंके में मनुष्य की जीवन-नौका असीम तरंगों से घिरकर प्रायः कूल को नहीं पाती, अलौकिक आलोकमय अंधकार में प्रणयी अपनी प्रणय-तरी पर आरोहण कर उसी आनंद के महासागर में घूमना पसंद करता है, कूल की ओर जाने की इच्छा भी नहीं करता।

जयशंकर प्रसाद

सत्य बोलने वाले भी मनुष्य जो कृपणता के कारण वाचाल होते हुए मुख थकने तक अविद्यमान भी गुणों से राजा की स्तुति करते हैं, यह सब अवश्य ही तृष्णा का ही प्रभाव हो सकता है अन्यथा इच्छारहित व्यक्तियों के लिए राजा तिनके के समान तिरस्कार का विषय होता है।

विशाखदत्त

जब हम अपनी इच्छा को प्रेमरहित कर देते हैं तो दुःख पैदा होता है।

रवींद्रनाथ टैगोर

हम भूत और भविष्य को देखते हैं और जो नहीं है उसकी कामना करते हैं। हमारा निष्कपट हास्य भी किसी वेदना से युक्त होता है।

शंकर शैलेंद्र

यदि तुम्हारी इच्छाएँ अनंत होंगी, तो तुम्हारी चिंताएँ भय भी अनंत ही होंगे।

थॉमस फ़ुलर

जो मन नहीं मार सकता, जिसे झुकना और छोटा बनना नहीं आता, जिसे दूसरों की सुविधा और दूसरों को निभाने की दृष्टि से झुकना और राह छोड़ना नहीं आता—वह ज़िंदगी में कभी कुछ नहीं कमा पाता—ज़िंदगी का संतोष भी नहीं।

जैनेंद्र कुमार