साहित्य पर उद्धरण

किसी की प्रशंसा या विरोध में लिखा हुआ ही किसी को आहत करता है और ही इनसे कोई क्षति पहुँचती है। मनुष्य अपने ख़ुद के लिखे से पूर्ण या अपूर्ण हो सकता है, किसी अन्य व्यक्ति द्वारा उसके बारे में कही गई बातों से नहीं।

होर्खे लुई बोर्खेस

यदि प्रथम साक्षात् की बेला में कथानायक अस्थायी टट्टी में बैठा है तो मैं किसी भी साहित्यिक चमत्कार से उसे ताल पर तैरती किसी नाव में बैठा नहीं सकता।

मनोहर श्याम जोशी

स्वार्थ और स्वाधीनता में क्या अन्तर है? प्रतिबद्धता और पराधीनता में कैसे भेद करें? विवेक को कायरता के अतिरिक्त कोई नाम कैसे दें?

मनोहर श्याम जोशी

मैंने जो भी लिखा है उसे दोबारा कभी नहीं पढ़ा। मैंने जो भी किया है उसके लिए मुझे डर है कि मैं शर्मिंदगी महसूस करूँ।

होर्खे लुई बोर्खेस

कभी कभी घर पर रखी बहुत सारी किताबों को देख कर मुझे महसूस होता है कि इससे पहले कि मैं हर क़िताब तक पहुँचू मैं इस दुनिया से चला जाऊंगा, लेकिन फिर भी नई क़िताबों को खरीदने का उत्साह मेरा कम नहीं होता। जब भी मैं किसी बुक स्टोर पर जाता हूँ और मुझे वहाँ मेरी पसंद की कोई क़िताब दिख जाती है तो मैं ख़ुद से यह बात कहता हूँ कि यह कितने दुःख की बात है कि मैं यह क़िताब ले नहीं सकता क्योंकी मेरे पास उसकी एक प्रति पहले से है।

होर्खे लुई बोर्खेस

कई बार पढने के अलावा, पढना भी महत्वपूर्ण है।

होर्खे लुई बोर्खेस

सच तो ये है कि हम सब बहुत कुछ पीछे छोड़ कर जीते हैं। इसमें कोई शक नहीं कि हम समझते हैं कि यह जीवन अनंत है। कभी कभी हर मनुष्य सभी अनुभवों से गुजरेंगे।

होर्खे लुई बोर्खेस

मुझे तो समस्त ऐसे साहित्य से आपत्ति है जो मात्र यही या वही करने की क़सम खाए हुए हो।

मनोहर श्याम जोशी

हमें उन चीज़ों के बारे में लिखने से अपने को रोकना चाहिए, जो हमें बहुत उद्वेलित करती हैं...

निर्मल वर्मा

अक्सर हिंदी का ईमानदार लेखक भ्रम और उत्तेजना के बीच की ज़िंदगी जीता है।

शरद जोशी

यहाँ (हिंदी में) केवल आरोप लगते हैं और निर्णय दिए जाते हैं। बल्कि आरोप ही अंतिम निर्णय होते हैं।

शरद जोशी

स्वर्ग के सारे फरिश्ते और धरती के ताम-झाम, एक शब्द में कहूँ तो संसार के विशाल फ्रेम में रचे गए सारे अंग मन के बिना कोई पदार्थ ही नहीं है… यानी उनका होना, उन्हें अवबोध में उतरना या जानना ही है।

होर्खे लुई बोर्खेस

सँकरे रास्ते और तंगदिल लोगों के आक्रामक समूहों से जूझते हुए चलने का प्रयत्न करना, साहित्य में जीना है।

शरद जोशी

भदेस से परहेज़ हमें भीरु बनाता है।

मनोहर श्याम जोशी

अदृश्य किंतु श्रुतिगोचर छंद के प्रवाह के मध्य ही शब्द बहते चले आते हैं, फलस्वरूप छंद का नक़्शा अत्यंत सुनियमित हो उठने के साथ-साथ शब्द मानों नेत्रहीनों की तरह आकर एक-दूसरे की देह से सट जाते हैं, वे अनिवार्य रूप जाते हैं, इसके द्वारा निपुण और सुगठित एक पद्य-पंक्ति पाई जा सकती है, किंतु उसमें उस समय अकसर सजीव व्यक्तित्व का कोई लक्षण नहीं दिखाई देता।

शंख घोष

शब्दों की क्या कोई अपनी पवित्रता होती है? जड़ निष्चल अकेला एक शब्द, उसकी कोई शक्ति नहीं, जनन नहीं, किसी दूसरे शब्द के समवाय संघर्षण से वह जल उठता है। जिस तरह अग्निदेवता समस्त पापहर्ता हैं, कविता भी वैसी ही होती है। उसकी अग्नि में जो कुछ भी समिधा के रूप में पाता है, वही अंत में पवित्रता अर्जित करता है।

शंख घोष

एक लेखक आत्म से शुरू करके शून्य की ओर जा सकता है, किंतु जो अपने को शून्य से शुरू करता है, उसे ‘आत्म’ तक पहुँचने के लिए अपनी समूची संस्कृति को बदलना होगा—वरना वह सिर्फ़ प्रयोगशील लेखक बनकर रह जाएगा।

निर्मल वर्मा

…और लिखना सारे विश्लेषण के बाद एक रहस्यमय क्रिया है, एक रहस्य का चमत्कार, ऐसा जो बिना आहूत सहसा प्रकट होता है और चकित कर देता है।

मलयज

लिखना पूर्वजन्म का कोई दंड झेलना है। इसे निरंतर झेले बिना इससे मुक्ति नहीं। मैं झेल रहा हूँ। पर मुझसे कहा जाए कि इस जन्म में भी आप पाप कर रहे हैं, तो यह मुझे स्वीकार नहीं।

शरद जोशी

वह हर किताब का पन्ना मोड़ देता है ताकि अगली बार जब वह पढ़ना शुरू करे तो याद रहे, पिछली बार कहाँ छोड़ा था। एक दिन जब वह नहीं रहेगा, तो इन किताबों में मुड़े हुए पन्ने अपने-आप सीधे हो जाएँगे—पाठक की मुकम्मिल ज़िंदगी को अपने अधूरेपन से ढँकते हुए…

निर्मल वर्मा

यदि साहित्य को आप अनुभव की वस्तु मानेंगे तो उसका अनिवार्य नतीजा होगा कि आलोचना उपभोक्ता के लिए सहायक वस्तु होगी, उस आलोचना का अपना कोई अस्तित्व नहीं होगा।

नामवर सिंह

एक पुस्तक का अस्तित्व एकाकी नहीं हो सकता। वह एक सम्बन्ध है, कई सारे सम्बंधों की धुरी।

होर्खे लुई बोर्खेस

साहित्यकार की स्वतंत्रता अन्य आदमियों की स्वतंत्रता से थोड़ी भिन्न होती है।

नामवर सिंह

मुझे लगता है शरद के सिवा ऐसा कोई समय नहीं जब हमारी साँस में मिट्टी की बस एक गन्ध महसूस होती है-पकी हुई मिट्टी की। यह गन्ध समुद्र की गन्ध से कमतर नहीं है। समुद्र की लहरें जब दूर रहती हैं, तब उसकी गन्ध में एक कड़वापन रहता है, लेकिन जब वह एक स्वर के साथ पृथ्वी तट को छूती है तो उसमें मीठापन जाता है। यह अपने भीतर एक गहराई को समेटे होती है|

रेनर मारिया रिल्के

साहित्य हमें पानी नहीं देता, वह सिर्फ़ हमें अपनी प्यास का बोध कराता है। जब तुम स्वप्न में पानी पीते हो, तो जागने पर सहसा एहसास होता है कि तुम सचमुच कितने प्यासे थे।

निर्मल वर्मा

उस कारण को ढूँढ़ो जो तुम्हारे भीतर लिखने की इच्छा पैदा करता है, झाँक कर देखो क्या उस कारण की जड़ें तुम्हारे हृदय की गहराइयों तक फैली हैं? और फिर अपने आप से स्वीकार करो कि यदि तुम्हें लिखने से रोका गया तो तुम जी नहीं पाओगे।

रेनर मारिया रिल्के

युग चेतना की अभिव्यक्ति के लिए अपना एक छंद चाहिए।

देवीशंकर अवस्थी

बड़ा साहित्य हमें अक्सर किसी-न-किसी भय के सम्मुख ले जाता है, यह भय ही सत्य का अन्यतम एक मूल्य है।

शंख घोष

साहित्य में या महज़ जीवन जीने के लिए आप कुछ कीजिए, वे निगाहें आपको लगातार एहसास देंगी कि आप ग़लत हैं, घोर स्वार्थी हैं, हल्के हैं आदि।

शरद जोशी

मेरा क़सूर यह है कि लोग मुझे पढ़ते हैं।

शरद जोशी

हिंदी में लेखक होने का अर्थ है, निरंतर उन जगहों द्वारा घूरे जाना, जो आपको अपराधी समझती हैं।

शरद जोशी

यह भयानक है, जब लेखक लिखना बंद कर देता है। उसके पास दुनिया को दिखाने के लिए कुछ भी नहीं रहता, सिवा अपने चेहरे के!

निर्मल वर्मा

हिंदी में लेखक का आस-पास बहुत भयावना और निर्मम होता है। वह हमला भी करे, उसे बचाव की लड़ाई लड़नी ही पड़ती है।

शरद जोशी

सच्चे लेखक तो भाषा में सत्य को ही उचारना चाहेंगे, वे भाषा के भीतर ही नीरवता के अबाध विस्तार को पकड़ना चाहेंगे! नीरव से नीरव को नहीं, लेखक शब्द के द्वारा ही नि:शब्द को पकड़ना चाहते हैं।

शंख घोष

जो लेखक समय के समग्र शिल्प में जीवित नहीं रहता उसकी विकलांगता निश्चित है।

दूधनाथ सिंह

हिंदी में पठनीय साहित्य, साहित्य नहीं होता। वह कुछ भ्रष्ट और सतही-सी चीज़ होता है।

शरद जोशी

यह जान लेना चाहिए कि उपादान बाधक होते हैं, परिमंडल बाधक होते हैं। लेकिन इन बाधाओं की दुहाई देकर हम स्वयं को दायित्व से मुक्त नहीं मानेंगे, इन्हीं में से होते हुए ही हम सिर्फ़ अपना-अपना काम करते रहेंगे।

शंख घोष

साहित्य को और (यदाकदा) अधिभौतिक जटिल मनन को समर्पित अपने जीवन के दौरान, मुझे समय के अस्तित्व के नकार का एहसास या पूर्वाभास हुआ, जिसमें मैं स्वयं यक्तीन नहीं करता, यद्यपि वह मेरे मन के भीतर, रात में और थके-माँदे धुँधलके में स्वयंसिद्धि की किसी मायावी ताक़त से ओतप्रोत हो नियमित विचरण करता रहता है। यह नकार मेरी सारी पुस्तकों में किसी-न-किसी रूप में मौजूद है।

होर्खे लुई बोर्खेस

वास्तव में श्रेष्ठ साहित्य की रचना परंपरा के भीतर युग के यथार्थ को समेट लेती है।

देवीशंकर अवस्थी

एक लेखक मरने के बाद अपनी क़िताबों में तब्दील हो जाता है।

होर्खे लुई बोर्खेस

विरोधाभास साहित्यकार के मानस में नहीं है, विरोधाभास हमारे उस भावनात्मक परिवेश में है जिससे साहित्यकार को जूझना पड़ रहा है। इसकी मूल हमारी राष्ट्रीय और अन्तराष्ट्रीय स्थिति में है।

विजय देव नारायण साही

हिंदी में लोकप्रिय होना अपराध है। मैं पुराना अपराधी हूँ।

शरद जोशी

शब्द की किसी अस्पृश्यता को प्रतिपन्न करना मेरा अभिप्राय नहीं है, मेरा भी विश्वास है कि सभी शब्द कविता के शब्द हो सकते हैं, लेकिन शब्द लक्ष्यभ्रष्ट और उद्देश्यहीन नहीं होने चाहिए।

शंख घोष

हिंदी में लिखने का अर्थ निरंतर प्रहारों से सिर बचाना है, बेशर्मी से।

शरद जोशी

मैं हिंदी साहित्य की दुनिया का नागरिक क़तई नहीं हूँ। उसे उन्हीं चरणों में पड़ी रहने दो, जहाँ वह पड़ी है। वही शायद उसका लक्ष्य था। दरबारों से निकली और दरबारों में घुस गई।

शरद जोशी

किसी राष्ट्र के लिए पूर्वग्रहहीन होना शायद सबसे ख़तरनाक स्थिति होती है, क्योंकी अक्सर इसकी परिणति अनास्था, अविश्वास और कुंठा के लांछनों में होती है। पहले के युगों में संभवतः इन भ्रांत लांछनों के पीछे ईमानदारी होती थी। दुर्भाग्य से आज के युग में इनके पीछे बेईमानी की ही मात्र अधिक है।

विजय देव नारायण साही

लेखक के रूप में आप यात्री बनें, तो यह तैयारी मन में कर लेते हैं कि यात्रा कठिन होगी, मंज़िल अनिश्चित और अनजानी है, सुख केवल चलने और चलते रहने भर का है।

शरद जोशी

जब एक सही पंक्ति बन जाती है तो उसमें परिवर्तन संभव नहीं।

देवीशंकर अवस्थी

अब तक का मेरा सब कुछ अगर प्रकाशित हो गया तो फिर मेरे पास सादे काग़ज़ के लिए बचेगा क्या? सादे काग़ज़ की चुनौती जितनी मेरे प्रकाशित से है, उतनी ही अप्रकाशित से।

मलयज

मेरे लिए तो अप्रकाशित से ही अप्रकाशित पैदा होगा। मैं ‘सादी स्लेट’ लेकर नहीं चल सकता।

मलयज

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