देश पर उद्धरण
देश और देश-प्रेम कवियों
का प्रिय विषय रहा है। स्वंतत्रता-संग्राम से लेकर देश के स्वतंत्र होने के बाद भी आज तक देश और गणतंत्र को विषय बनाती हुई कविताएँ रचने का सिलसिला जारी है।
अन्य देश मनुष्यों की जन्मभूमि है, लेकिन भारत मानवता की जन्मभूमि है।
बड़े राष्ट्र की पहचान यही है कि अपने समाजों में साथ-साथ रहने-पहनने का चाव और स्वीकारने-अस्वीकारने का माद्दा जगाता है।
अद्भुत सहनशीलता है इस देश के आदमी में! और बड़ी भयावह तटस्थता! कोई उसे पीटकर पैसे छीन ले, तो वह दान का मंत्र पढ़ने लगता है।
शरीर के महत्त्व को, अपने देश के महत्त्व को समझने के लिए बीमार होना बेहद ज़रूरी बात है।
बदसूरती आम हिंदुस्तानी आँख को दिखाई ही नहीं देती।
इस देश में लड़की के दिल में जाना हो, तो माँ-बाप के दिल की राह से जाना होता है।
इस्लाम ने भारतीयता की स्थूलता को एक हज़ार वर्ष में छिन्न-भिन्न किया तो उसे ही सूक्ष्म स्तर पर पहले ईसाइयत ने और बाद में साम्यवादी-दर्शन ने गत पचास वर्षों में संपन्न किया।
चौबीस घंटे देश की दुर्दशा की बात होती है। सत्तावन करोड़ आदमी करते है। पर बात से कहीं देश सुधरता है? आप पाँच मिनिट बात कर लेंगे तो देश का क्या फ़ायदा होगा?
यह कितना बड़ा झूठ है कि कोई राज्य दंगे के कारण अंतर्राष्ट्रीय ख़्याति पाए, लेकिन झाँकी सजाए लघु उद्योगों की। दंगे से अच्छा गृह-उद्योग तो इस देश में दूसरा है नहीं।
अगर एक मुल्क अपने कहानीकारों को खो देता है, तो वह अपना बचपन खो देता है।
हम हिंदुस्तानी सब कुछ अधूरे अनमने ढंग से क्यों करते हैं—काम, आराम, रियाज़, प्यार, नफ़रत, लड़ाई, दया, खोज, शोध, ऐश, इबाद, सख़ावत, सयासत... सब कुछ।
हमारे इस विशाल भारत देश में नेता वही होता है जो ज़ोर से बोले या खिलाए-पिलाए।
जो देश का काम करता है, उसे थोड़ी बदतमीज़ी का हक़ है। देश सेवा थोड़ी बदतमीज़ी के बिना शोभा नहीं देती।
इस देश में जो जिसके लिए प्रतिवाद है, वही उसे नष्ट कर रहा है।
इस देश के आदमी की मानसिकता ऐसी कर दी गई है कि अगर उसका भला भी करो, तो उसे शक होता है कि किसी और का भला किया गया है।
इस देश का आदमी मूर्ख है। अन्न खाना चाहता है। भूखमरी के समाचार नहीं खाना चाहता है।