
जिन्होंने सभ्यता को रुटीन के रूप में स्वीकार कर लिया है, उनके भीतर कोई बेचैनी नहीं उठती। वे दिन-भर दफ्तरों में काम करते हैं और रात में क्लबों के मज़े लेकर आनन्द से सो जाते हैं और उन्हें लगता है, वे पूरा जीवन जी रहे हैं।

तुम मँझौली हैसियत के मनुष्य हो और मनुष्यता के कीचड़ में फँस गये हो। तुम्हारे चारो ओर कीचड़-ही-कीचड़ है।

रूप-विद्या मनुष्य को विषय के सत्य तक पहुँचा देना चाहती है।

नाटक में अगर कहीं किसी मतवाले व्यक्ति का पागलपन दिखाना हो तो वहाँ अगर सचमुच के किसी मतवाले व्यक्ति को मंच पर छोड़ दिया जाए, तो वह एक तरह की दुर्घटना कर बैठेगा। दूसरी तरफ़ जिसमें उन्मत्त्ता का रेशा भी न हो; अगर मंच पर लाकर उसे छोड़ दिया जाए तो भी वही विपत्ति घटेगी–––दोनों पक्ष ही उस जात्रा-नाटक को मिट्टी में मिला बैठेंगे।

कला मानवीय जीवन की अनिवार्य आवश्यकता है।

आवश्यकताओं की निर्विरोध और निर्बंध पूर्ति ही मनुष्य जीवन की स्वतंत्रता है।

कविता एक सामूहिक उद्वेग और सामूहिक आवश्यकता की सहज अभिव्यक्ति है और यह व्यवस्था संपूर्ण रूप से वैयक्तिक है।
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जो व्यक्ति आध्यात्मिक जीवन के स्थान पर कृत्रिम, यांत्रिक जीवन का वरण करके तृप्त नहीं होता, उसके भीतर प्रश्न उठते ही रहते हैं और वह अनुत्तरित प्रश्नों के अरण्य में भटकता हुआ कहीं भी शान्ति नहीं पाता है।

आँख वाले प्रायः इस तरह सोचते हैं कि अंधों की, विशेषतः बहरे-अंधों की दुनिया, उनके सूर्य प्रकाश से चमचमाते और हँसते-खेलते संसार से बिलकुल अलग हैं और उनकी भावनाएँ और संवेदनाएँ भी बिलकुल अलग हैं और उनकी चेतना पर उनकी इस अशक्ति और अभाव का मूलभूत प्रभाव है।

संसार में नीति, नियति, वेद, शास्त्र और ब्रह्म सबको जानने वाले मिल सकते हैं, परंतु अपने अज्ञान को जानने वाले मनुष्य विरले ही हैं।

मनुष्य का अंतःकरण देववाणी है।

अंतःकरण हम सबको कायर बना देता है।

मनुष्य की आत्मा ही राजनीति है, अर्थशास्त्र है, शिक्षा है और विज्ञान है, इसलिए अंतरात्मा को सुसंस्कृत बनाना ही सबसे अधिक आवश्यक है। यदि हम अंतरात्मा को सुशिक्षित बना लें तो राजनीति, अर्थशास्त्र, शिक्षा और विज्ञान के प्रश्न स्वयं ही हल हो जाएँगे।

लोग समझदार हो गए हैं, इसलिए अविरोध की साधना में लग गए हैं।

किताबें यह बताती हैं कि मनुष्य के मौलिक विचार उतने नए नहीं होते, जितना वह समझता है।

मानवीय संवेदना के मूल स्वभाव को ठीक से समझे बिना सब कुछ को ख़ारिज कर देने का औद्धत्य कभी फलप्रसू नहीं होता।

नए मनुष्य को नीत्शे के मुख से यह सुनकर बड़ी ख़ुशी हुई थी कि ईश्वर की मृत्यु हो गई। किन्तु यह रहस्य अब खुला है कि ईश्वर की मृत्यु; ईश्वर की मृत्यु नहीं थी, उन मूल्यों की मृत्यु थी—जो मनुष्य और ईश्वर के बीच सेतु बनाये हुए थे।

जो मानव भिन्नत्व में एकत्व को देखता है वही प्राज्ञ माना जा सकता है।

मनुष्य के लालच और आत्मघात का ज़हर धरती के केंद्र में काफ़ी जमा हो चुका है।

जानवर इंसानों जितने बुद्धिमान नहीं होते, इसलिए उन्होंने छिपने की कला नहीं सीखी है। लेकिन मनुष्य में और उनमें बुद्धि को छोड़कर बाक़ी सभी चीज़ें समान स्तर की होती हैं। उन्होंने अपनी कुटिल बुद्धि से वितरण की व्यवस्था बनाकर अपने पशुवत कर्मों को छुपाने के लिए सुरक्षित अंधकार पैदा कर लिया है।

मुझे लगता है कि जीवन के हर आयाम में सत्ता, अनुक्रमों और राज करने की कोशिश में लगे केंद्रों को पहचानने की कोशिश करनी चाहिए और उनको चुनौती देनी चाहिए। जब तक उनके होने का कोई जायज़ हवाला न दिया जा सके, वे ग़ैरक़ानूनी हैं और उन्हें नष्ट कर देना चाहिए। मनुष्य की आज़ादी की उम्मीद इससे ही बढ़ेगी।

मैं एक बहुत ही साधारण इंसान हूँ, मुझे बस किताबें पढ़ना पसंद है।

आदिम मानव प्रकृति को अपने प्रत्यक्ष व्यवहार में बरतता है।

हाथ को ध्यान से देखो तो तुम्हें दिखेगा कि वह आदमी की सच्ची तस्वीर है, वह मानव-प्रगति की कहानी है, संसार की शक्ति और निर्बलता का माप है।

मनुष्य किसी भी चीज़ से उतना नहीं डरता जितना कि अज्ञात के स्पर्श से।

मानव-हृदय की तरह, रेगिस्तान सागर बन जाता है और सागर रेगिस्तान बन जाता है।

अभिमानी व्यक्ति की शान और उसके अपयश के बीच केवल एक पग की दूरी है।

जो मनुष्य यह मेरा और वह तेरा मानता है, वह अनासक्त नहीं हो सकता।

अनुभव अर्थात् मनुष्यों द्वारा अपनी ग़लतियों को दिया जाने वाला नाम।

जगहों की दूरी आदिकाल से मानव को चिढ़ाती आई है। दूर-दूर जाने की इच्छा उतनी ही बलवती रही है जितनी दूरियों को घटाने की कोशिश।

मुझसे सीखें, यदि मेरे उपदेशों से नहीं, तो मेरे उदाहरण से सीखें कि ज्ञान की खोज कितनी ख़तरनाक है और वह व्यक्ति जो अपने मूल शहर को ही दुनिया मानता है, वह उस व्यक्ति की तुलना में कितना ख़ुश है जो अपनी शक्ति से बड़ा होने की आकांक्षा रखता है।

मनुष्य अकेला नहीं है, वह समग्र से जुड़ा हुआ है, अनेकों पर उसकी निर्भरता अपरिहार्य है।

जब मनुष्य अपने अंदर युद्ध करने लगता है तब वह अवश्य ही किसी योग्य होता है।

आदिम मानव की यह एक स्वाभाविक वृत्ति है कि वह बाह्य-वस्तु जगत को अपनी कल्पना के द्वारा, अपनी आकांक्षाओं के अनुरूप चित्रित करता है।

मनुष्य ने नियम-कायदों के अनुसार; अपने सजग ज्ञान द्वारा भाषा की सृष्टि नहीं की, और न उसके निर्माण की उसे आत्म-चेतना ही थी। मनुष्य की चेतना के परे ही प्रकृति, परम्परा, वातावरण, अभ्यास व अनुकरण आदि के पारस्परिक संयोग से भाषा का प्रारम्भ और उसका विकास होता रहा।

बग़ैर अनासक्ति के न मनुष्य सत्य का पालन कर सकता है, न अहिंसा का।

मनुष्य की उपस्थिति में रेगिस्तान आभासी हो जाता है।

मानव स्वत्व मिला नहीं करते। उन्हें लेना पड़ता है। बल चाहिए- बल।

अंतःकरण का दंश मनुष्यों को दंशन सिखाता है।

मैं कल्पना नहीं कर सकता कि कोई आदमी वास्तव में किसी किताब का आनंद ले और उसे केवल एक बार पढ़े।

उस मनुष्य का किसी बात में विश्वास न करो जो हर बात में अंतःकरण वाला नहीं है।

यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि दूसरों में रुचि का कारण मनुष्य की स्वयं में रुचि है। यह संसार स्वार्थ से जुड़ा है। यह ठोस वास्तविकता है लेकिन मनुष्य केवल वास्तविकता के सहारे नहीं जी सकता। आकाश के बिना इसका काम नहीं चल सकता। भले ही कोई आकाश को शून्य स्थान कहे…

अँधेरा ही एक ऐसी चीज़ है जो हर आदमी की शकल को एक बना देती है।

जीवित मनुष्य के लिए दुष्ट अंतःकरण की यंत्रणा तो नरक है।

देशप्रेम है क्या? प्रेम ही तो है। इस प्रेम का आकलन क्या है? सारा देश अर्थात् मनुष्य, पशु, पक्षी, नदी, नाले, वन, पर्वत सहित सारी भूमि। यह साहचर्यगत प्रेम है।

प्यार नहीं मिल पाने की हालत में संभोग से ही मनुष्य को सांत्वना मिलती है।

मैं स्वयं को असफल मनुष्य, असफल कवि, असफल पशु, असफल देवता और असफल ब्रह्मराक्षस मानता हूँ। सफल होना मेरे लिए संभव नहीं है। मेरे लिए केवल संभव है—होना।

मानव को अपने राष्ट्र की सेवा के ऊपर किसी विश्व-भावना व आदर्श को पहला स्थान नहीं देना चाहिए।... देशभक्ति तो मानवता के लक्ष्य विश्वबंधुत्व का ही एक पक्ष है।

पुरुष को मनुष्य के रूप में और स्त्री को स्त्री के रूप में परिभाषित किया जाता है—जब भी वह मनुष्य की तरह व्यवहार करती है, उस पर पुरुष की नक़ल करने का आरोप लगाया जाता है।

मैं सब धर्मो को सच मानता हूँ। मगर ऐसा एक भी धर्म नहीं है जो संपूर्णता का दावा कर सके। क्योंकि धर्म तो हमें मनुष्य जैसी अपूर्ण सत्ता द्वारा मिलता है, अकेला ईश्वर ही संपूर्ण है। अतएव हिंदू होने के कारण अपने लिए हिंदू धर्म को सर्वश्रेष्ठ मानते हुए भी मैं यह नहीं कह सकता कि हिंदू धर्म सबके लिए सर्वश्रेष्ठ है; और इस बात को तो स्वप्न में भी आशा नहीं रखता कि सारी दुनिया हिंदू धर्म को अपनाए। आपकी भी यदि अपने ग़ैर-ईसाई भाइयों की सेवा करनी है तो आप उनकी सेवा करनी है तो आप उनकी सेवा उन्हें ईसाई बनाकर नहीं, बल्कि उनके धर्म की त्रुटियों को दूर करने में और उसे शुद्ध बनाने में उनकी सहायता करके भी कर सकते हैं।
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