भीड़ पर उद्धरण
किसी जगह एकत्र लोगों
के तरतीब-बेतरतीब समूह को भीड़ कहा जाता है। भीड़ का मनोविज्ञान सामाजिक मनोविज्ञान के अंतर्गत एक प्रमुख अध्ययन-विषय रहा है। औपचारिक-अनौपचारिक भीड़, तमाशाई, उग्र भीड़, अभिव्यंजक भीड़, पलायनवादी भीड़, प्रदर्शनकर्त्ता आदि विभिन्न भीड़-रूपों पर विचार किया गया है। इस चयन में भीड़ और भीड़ की मानसिकता के विभिन्न संदर्भों की टेक से बात करती कविताओं का संकलन किया गया है।

लोग हमेशा वही नहीं चाहते जो उनके लिए हितकर हो।

इस सभ्यता में पैदल आदमियों के संगठित समूह की कल्पना नहीं, भीड़ की कल्पना है।

भीड़ की सतही कार्यवाहियों की अपेक्षा, कला और साहित्य राष्ट्र की आत्मा को महान अंतर्दृष्टि प्रदान करते हैं। वे हमें शांति और निरभ्र विचार के राज्य में ले जाते हैं, जो क्षणिक भावनाओं और पूर्वाग्रह से प्रभावित नहीं होते।

मुर्दा हालत में अगर आपको भीड़ की दरकार है तो ज़िंदा हालत में भी आपको भीड़ से रब्तोज़ब्त रखनी पड़ेगी।

अगर आप चाहते हैं कि आपकी शवयात्रा धूमधाम से संपन्न हो तो आपको मरने से काफ़ी पहले एक विशेष प्रकार का जनसंपर्क चलाना पड़ेगा।
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महापुरुषों के निधन पर पार्कों में होनेवाली सार्वजनिक सभाएँ या बाज़ार की हड़ताल बहुत हद तक रस्म-अदायगी है। पर रस्में भी हमारी सांस्कृतिक विरासत और सामाजिक जीवन का अविभाज्य अंग है और यदि यशपाल जैसे साहित्यकार के न रहने पर भी ऐसी रस्में अदा नहीं की जाति तो उससे कुछ ऐसे निष्कर्ष निकलते हैं जिनसे इस देश के साहित्यकर्मियों को साहित्य की स्थिति के विषय में यथार्थ दृष्टि मिल सकती है।
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भरी-पूरी शवयात्रा के लिए बहुत बासी जनसंपर्क काम न देगा; लोग भूल जाते हैं या मरकर एक अजनबी पीढ़ी छोड़ जाते हैं।
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भीड़ में जब नया आदमी शामिल हो तो पहले से खड़े लोगों को वह बुरा लगता है।

परिश्रम आदमी को भीड़ बनने, और प्रतिभा भीड़ में खो जाने की इजाज़त नहीं देती।