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प्रकृति पर उद्धरण

प्रकृति-चित्रण काव्य

की मूल प्रवृत्तियों में से एक रही है। काव्य में आलंबन, उद्दीपन, उपमान, पृष्ठभूमि, प्रतीक, अलंकार, उपदेश, दूती, बिंब-प्रतिबिंब, मानवीकरण, रहस्य, मानवीय भावनाओं का आरोपण आदि कई प्रकार से प्रकृति-वर्णन सजीव होता रहा है। इस चयन में प्रस्तुत है—प्रकृति विषयक कविताओं का एक विशिष्ट संकलन।

एक निरी कामकाजी दृष्टि के द्वारा एक कामकाजी व्यक्ति को खेत, कृषि-विज्ञान और नीतिशास्त्र की किताबों के पन्नों की तरह दिखाई देते हैं, खेतों की हरियाली किस तरह से गाँव के कोने तक फैल गई है—उसे भावुक ही देखता है।

अवनींद्रनाथ ठाकुर

जो कमज़ोरी सब मनुष्यों में हो सकती है, वह कमज़ोरी नहीं—बल्कि मनुष्य की प्रकृति का गुण-धर्म है।

गजानन माधव मुक्तिबोध

रंग और रूप में अविच्छेद्य संबंध होता है। जहाँ रूप वहाँ रंग, जहाँ रंग वहाँ रूप। यह है प्राकृतिक नियम।

अवनींद्रनाथ ठाकुर

प्रकृति में प्रत्यक्ष की हम प्रतीति करते हैं, साहित्य और ललिल कला में अप्रत्यक्ष हमारे निकट प्रतीयमान होता है।

रवींद्रनाथ टैगोर

खेल प्रकृति की सबसे सुंदर रचना हैं।

लियोनार्ड कोहेन

स्त्री को पाकर, स्त्री को समझकर, उसे अपनी बाँहों और आत्मा में महसूस करके ही प्रकृति की गति और प्रकृति की सुंदरता को और प्रकृति के रहस्य को लिया, भोगा और समझा जा सकता है।

राजकमल चौधरी

बहुत से बुद्धिमान लोगों के पास समझ की कमी होती है, बहुत से मूर्खों के पास दयालु स्वभाव होता है, ख़ुशी का अंत अक्सर आँसुओं में होता है, लेकिन मन के अंदर क्या है—यह कभी नहीं बताया जा सकता है।

अमोस ओज़

आदिम मानव प्रकृति को अपने प्रत्यक्ष व्यवहार में बरतता है।

विजयदान देथा

कविता के रंग चित्रकला के प्रकृति-रंग नहीं होते।

राजकमल चौधरी

प्रकृति सिर्फ़ वह नहीं जो आँखों को नज़र आती है… आत्मा की अंदरूनी तस्वीर में भी यह मौजूद होती है।

एडवर्ड मुंक

मनुष्य के पास केवल जगत-प्रकृति ही नहीं, समाज-प्रकृति नामक एक और आश्रय भी है। इस समाज के साथ मनुष्य का कौन-सा संबंध सत्य है—इस बात पर विचार करना चाहिए।

रवींद्रनाथ टैगोर

हमें अपनी तीन अवस्थाएँ दिखाई देती हैं। तीनों ही बड़े स्तरों पर मानव जीवन का निर्माण कर डालती हैं। एक अवस्था है प्राकृतिक, दूसरी धार्मिक नैतिकता की और तीसरी होती है आध्यात्मिकता की।

रवींद्रनाथ टैगोर

प्रकृति में हरा रंग एक बात है, साहित्य में हरे का अर्थ अलग होता है।

वर्जीनिया वुल्फ़

मानव स्वभाव पानी जैसा है। वह अपने बर्तन के आकार में ढल जाता है।

वॉलेस स्टीवंस

हमें बुरे स्वभाव की व्याख्या हीन भावना की निशानी के रूप में करनी चाहिए।

अल्फ़्रेड एडलर

प्यार… प्रकृति की तरह है, लेकिन उल्टा—पहले यह फल देता है, फिर फूलता है, फिर मुरझाने लगता है, फिर यह अपने बिल में बहुत गहराई तक चला जाता है, जहाँ कोई इसे नहीं देखता, जहाँ यह आँखों से ओझल हो जाता है और अंततः लोग अपनी आत्मा के भीतर दबे उस रहस्य के साथ मर जाते हैं।

एडना ओ’ब्रायन

किसी विषय को अपने से ऊँचा बताने और मानने का अधिकार केवल प्रकृति को ही है, किसी अन्य को नहीं।

लुडविग विट्गेन्स्टाइन

कल्पना प्रकृति पर मनुष्य की हुकूमत है।

वॉलेस स्टीवंस

तितलियाँ वे फूल ही हैं जो किसी धूप वाले दिन उड़ गए, जब प्रकृति स्वयं को सबसे अधिक आविष्कारशील और उपजाऊ महसूस कर रही थी।

जॉर्ज सैंड

नारी प्रकृति के विधान से नहीं, समाज के विधान से भोग्य है। प्रकृति में और समाज में स्त्री और पुरुष अन्योन्याश्रय हैं।

यशपाल

प्रकृति ईश्वर की शक्ति का क्षेत्र है और जीवात्मा उसके प्रेम का क्षेत्र है।

रवींद्रनाथ टैगोर

…फूल की प्रकृति खिलना है।

एलिस वॉकर
  • संबंधित विषय : फूल

स्त्री किसी भी अवस्था की क्यों हो, प्रकृति से माता है और पुरुष किसी भी अवस्था का क्यों हो, प्रकृति से बालक है।

लक्ष्मीनारायण मिश्र

दया और दवा में कोई एहसानमंदी नहीं है। अगर उधार लेना प्राकृतिक नहीं हो तो देने का कोई अर्थ भी है।

गर्ट्रूड स्टाइन

प्रकृति क़तई नैतिक नहीं है।

ओनोरे द बाल्ज़ाक

ज़्यादातर समय, वे बच्चे स्वस्थ और मज़बूत होते हैं, प्रकृति अपनी देखभाल ख़ुद करती है।

डेबोरा फ़ेल्डमैन

हमारी अंतः प्रकृति में एक नारी विद्यमान है।

रवींद्रनाथ टैगोर

मौसम मेरे चारों ओर है ज़रूर, पर अपना अर्थ खो चुका है।

श्रीलाल शुक्ल

मानव-प्रकृति को दवाब से कितनी घृणा है।

प्रेमचंद

गंगोत्री, यमुनोत्री या फिर नर्मदा कुंड—ये वे स्थान हैं, जहाँ नदी पहाड़ की कोख से निकलकर पहाड़ की गोद में आती है।

अमृतलाल वेगड़

चिकित्सा की कला में रोगी को ख़ुश करना शामिल है, जबकि बीमारी को प्रकृति ठीक करती है।

वाल्तेयर
  • संबंधित विषय : कला

भूलना प्राय: प्राकृतिक है, याद रखना प्राय: कृत्रिम।

हुआन रामोन हिमेनेज़

'नारायण' का अभिप्राय है, ब्रह्म का वह स्वरूप जो नर-प्रकृति का अनुरंजनकारी हो।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल

कला प्रकृति की पुत्री है।

हेनरी वड्सवर्थ लॉन्गफ़ेलो

अपने ही सुख-दुख के रंग में रंग कर प्रकृति को देखा तो क्या देखा? मनुष्य ही सब कुछ नहीं है। प्रकृति का अपना रूप भी है।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल

हमारी आँकों के समक्ष प्रकृति की जो लीला चल रही है, उसमें एक कारीगर और एक रूपांकन में दक्ष व्यक्ति इन दोनों के हाथ एक साथ काम करते हैं।

अवनींद्रनाथ ठाकुर

प्रकृति-सौंदर्य, साधारणतः प्रसादजी के लिए काव्य का उपादन है।

गजानन माधव मुक्तिबोध

गोस्वामी जी के भक्ति-क्षेत्र में शील, शक्ति और सौंदर्य तीनों की प्रतिष्ठा होने के कारण मनुष्य की सम्पूर्ण भावात्मिका प्रकृति के परिष्कार और प्रसार के लिए मैदान पड़ा हुआ है।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल

मनुष्यत्व में एक भारी द्वंद्व और है, जिसे कहा जा सकता है—प्रकृति और आत्मा का द्वंद्व।

रवींद्रनाथ टैगोर

मानव-प्रकृति को अगर छोड़ दें तो विश्व-प्रकृति में कोई जटिलता नहीं है, इसलिए विश्व-प्रकृति में सुंदर और भूमा को देखना सहज है।

रवींद्रनाथ टैगोर

दुर्गम वनों में आनंद होता है और एकाकी समुद्र तट पर हर्षोन्माद। गहरे समुद्र के तट के जनशून्य स्थान में भी समाज होता है और सागर के गर्जन में संगीत। मैं मानव को कम प्रेम नहीं करता, पर प्रकृति को अधिक प्रेम करता हूँ।

लॉर्ड बायरन

हिंदुस्तान की कल्पना भरी हुई है; यूरोप की कला में प्रकृति का अनुकरण है। इस कारण शायद पश्चिम की कला समझने में आसान हो सकती है लेकिन समझ में आने पर वह हमें पृथ्वी से ही जकड़ने वाली होगी, और हिंदुस्तान की कला जैसे-जैसे हमारी समझ में आएगी, वैसे-वैसे हमें ऊपर उठाती जाएगी।

महात्मा गांधी

धर्म कोई व्यक्ति नहीं बना सकता, प्रकृति बनाती है धर्म और प्रकृति के कर्म को जो तोड़ता है, वह अनाचारी है, वस्त्र उसके चाहे किसी रंग में रंगे हों।

लक्ष्मीनारायण मिश्र

जब ज्ञान से आलोकित तथा कर्म के द्वारा नियंत्रित और भीमशक्ति प्राप्त प्रबल स्वभाव परमात्मा के प्रति प्रेम एवं आराधना-भाव में उन्नत होता है, तब वही भक्ति टिक पाती है तथा आत्मा को परमात्मा से सतत संबद्ध बनाए रखती है।

श्री अरविंद

कुछ नाम सरस और मधुर होते हुए भी चल नहीं पाते। रेवा कितना प्यारा नाम है। बोलने में आसान, सुनने में मधुर। लेकिन चला नहीं, नर्मदा नाम ही ज़्यादा प्रचलित हुआ।

अमृतलाल वेगड़
  • संबंधित विषय : नदी

इस विश्व के अधिकतम अंश को यद्यपि हम आँखों से देखते हैं; कानों से नहीं सुनते, फिर भी बहुत समय से इस विश्व को कवियों ने गान ही कहा है।

रवींद्रनाथ टैगोर

ब्राह्मण किसी के राज्य में रहता है और किसी के अन्न से पलता है, स्वराज्य में विचरता है और अमृत होकर जीता है। वह तुम्हारा मिथ्या गर्व है। ब्राह्मण सब कुछ सामर्थ्य रखने पर भी, स्वेच्छा से इन माया-स्तूपों को ठुकरा देता है, प्रकृति के कल्याण के लिए अपने ज्ञान का दान देता है।

जयशंकर प्रसाद

मन प्राकृतिक चीज़ को मानसिक बना लेता है, साहित्य उसी मानसिक चीज़ को साहित्य बना लेता है।

रवींद्रनाथ टैगोर

प्रकृत-साहित्य में हम अपनी कल्पना को, अपने सुख-दुख को शुद्ध वर्तमान काल में नहीं, शाश्वत काल में प्रतिष्ठित करना चाहते हैं।

रवींद्रनाथ टैगोर

आत्मा का सारा सार-तत्त्व, प्राकृत्त रूप से सामाजिक है।

गजानन माधव मुक्तिबोध