कहानी : आकांक्षा
जयशंकर
13 दिसम्बर 2025
मेरे हाथ में संडे का अख़बार है। मेरे बाजू के स्टूल पर सुबह की पहली चाय का कप। स्मिता भी चाय पी रही है। बरसों पहले फ़्रेम करवायी गई रवींद्रनाथ ठाकुर की यह तस्वीर किताबों की रैक के नीचे टंगी है। रवी बाबू अपनी लिखने की मेज़ के सामने बैठे हुए हैं। बूढ़े हो चुके रवी बाबू।
“मेरे एक दोस्त का उपहार है यह तस्वीर।”
“क्या करते हैं आपके दोस्त? इस तस्वीर पर किसी की भी निगाहें ठहर जाती हैं।”
“अब नहीं रहे। आठ साल पहले गुज़र गए।”
मुझे याद आ रही है क्रिसमस की वह सुबह। अरूप अपनी किशोर उम्र की बेटी के साथ इस तस्वीर को मेरी दीवार पर लगा रहा था। उसके हाथ में हथौड़ी और कील थी। उसकी बिटिया तस्वीर को दीवार पर बैलन्स करती हुई। वह मेरे जन्मदिन पर कोई न कोई चीज़ देता ही रहा था। कभी कोई किताब या रिकार्ड, कभी क़मीज़, स्वेटर या मफ़लर। मेरा जन्मदिन कड़ाके की सर्दियों के दिनों में आता था।
मैं स्मिता को अपने इस मृत मित्र के बारे में बताने लगा हूँ। बीस बरस की यह लड़की मेरी पत्नी के इंतज़ार में हमारे ड्राइंग रूम में बैठी हुई है। डेन्टल कॉलेज में पढ़ रही है। नीरजा के थिएटर ग्रुप में हाल ही में शामिल हुई है।
“अब आप थिएटर में दिलचस्पी नहीं रखते हैं?”
“अब समय नहीं मिलता। अरूप के साथ अक्सर रिहर्सल में जाता रहा था।”
“आपकी नीरजा दीदी से पहली मुलाक़ात नाटकों की रिहर्सल में हुई थी।”
“नीरजा ने बताया होगा?”
“नहीं। अमृता दीदी ने।”
नीरजा और स्मिता चले गए हैं। मैं घर में अकेला हूँ। रविवार का दिन। कनु अभी तक सो रही है। कल देर तक जागती रही। अपनी माँ के साथ टेलिविजन पर कोई फ़िल्म देख रही थी। स्मिता के कुछ सवालों ने मेरे मन को आठ-नौ बरस पहले के मेरे जीवन में लौटाया है। तब बैंक में अफ़सर नहीं था। साढ़े पाँच बजे बैंक छोड़ देता था। अम्मा को गुज़रे हुए साल होने को आ रहा था। तब मैं बैचलर था।
इन दिनों में से ही किसी दिन अरूप को कैंसर ने घेरा था और वह साल भर से अपना इलाज करवा रहा था। शुरू-शुरू में सब ठीक रहा। एक बार की जाँच में वह पूरी तरह ठीक भी पाया गया, लेकिन गर्मियाँ आते-आते उसकी सेहत बिगड़ती चली गई थी।
“पता नहीं अब मेरे पास कितना वक़्त बचा है?”
“तुम्हें यह सब नहीं सोचना चाहिए।”
“अभी-अभी ऐसा सोचने लगा हूँ। बीच में लगा था कि बीमारी से बाहर निकल आया हूँ।”
यह सच था। कुछ ही दिन हुए जब हमने अरूप के अच्छे हो जाने पर अरूण दा के घर पर छोटी-सी पार्टी रखी थी। हम सभी मित्र उस पार्टी में शामिस हुए थे। अमृता ने लता मंगेशकर के मीरा के भजन को गाया था। नीरजा ने बेगम अख़्तर की गाई एक ग़ज़ल। अरूप और उसकी बेटी आई थी। उसकी माँ और पत्नी नहीं।
अरूप ने कॉलेज में क्लासेस लेना भी शुरू कर दिया था। स्कूटर से जाता था। अरूण दा और अरूप दिसंबर में एक स्पेनिश नाटक का मंचन करने की योजना बना रहे थे।
“लोर्का की हत्या की गई थी।” अरूप ने बताया था।
“इस नाटक के लिए अलग-अलग उम्र की छह लड़कियों को खोजना पड़ेगा।” अरूण दा कह रहे थे।
अमृता और नीरजा के अलावा और चार लड़कियों की तलाश में ही मैं अरूप के साथ एक कॉलेज से दूसरे कॉलेज में, शहर की दूसरी नाट्य मंडलियों में जाता रहा था। मध्य भारत की गर्मियों की दुपहरों में अरूप का स्कूटर पर घूमना भी रहा कि उसका पेट बराबर बिगड़ता चला गया। लगातार होते दस्त और कै ने दवाइयों के असर को प्रवाभित किया। अरूप की जाँच-पड़ताल का एक और दौर शुरू हुआ था। डॉक्टर बता रहे थे कि उसका कैंसर और ज़्यादा बिगड़े हुए रूप में उसके भीतर रहने लगा है।
यह वह समय भी रहा जब अरूप का समूचा परिवार हमारे थिएटर ग्रुप से उस ग्रुप से जुड़े लोगों से चिढ़ने लगा था। अरूप के अलावा उसके परिवार के सभी लोग थिएटर के लिए उसकी उत्तेजना और कड़ी मेहनत को कैंसर के लौट आने का कारण समझने लगे थे।
“अरूण दा बड़े हैं। उनको इसे मना करना था।” अरूप की माँ कहती।
“अमृता अब बच्ची नहीं रही। अरूप उसको छोड़ने दुपहर की धूप में जाते रहे थे।” भाभी की शिकायत रहती।
अमृता ने अरूप के घर जाना छोड़ दिया। जब-तब मुझसे या अरूण दा से उसकी ख़बरें जान लेती। उसका घर पर न आना भी, घर में होती कलह का कारण बनता गया। अब बेटी भी अपनी माँ के साथ खड़े होने लगी थी।
“आंटी को समझना था। वह ऑटो से भी लौट सकती थी। मैंने कितनी बार शाम को रिहर्सल करवाने की बात कही थी।”
“लेकिन अरूप अच्छा हो गया था।।”
“अंकल। आपने भी बाबा की बीमारी का ध्यान नहीं रखा।” अरूप की बेटी जब-तब शिकायतें करते हुए रोने लगती थी।
अब मैं भी अरूप के घर पर कम ही जाने लगा था। अमृता और अरूण दा ने उनके घर जाना ही छोड़ दिया था। पर ऐसा करना दोनों को तकलीफ़ें देता रहा था।
“वह मेरे बेटे जैसा रहा है।” अरूण दा कहते रहते।
“हम उनको ख़ुश देखना चाह रहे थे। हमें क्या पता था कि उनकी परेशानियाँ बढ़ जाएँगी।।”
अमृता का अपना पक्ष रहा करता था। वह अरूप को लेकर चिंतित बनी रहती। उसके लिए तरह-तरह का खाना भिजवाती रहती। अरूप के पसंद की किताबें भी। अरूप जिस डायरी में उन दिनों के इम्प्रेशंस उतार रहा था, वह डायरी अमृता ने ही दी थी। नीरजा सोचती थी कि हम सब लोगों में से सबसे ज़्यादा अरूप को अमृता ने ही समझा था और समझते हुए चाहा था। नीरजा का सोचना पूरी तरह ठीक था।
“आदमी अपने ही प्रेम को कब समझ पाता है।” नीरजा कहती।
“इस समय अरूप को प्रेम की जरूरत है। करुणा और सहानुभूति की। यह लड़ने-भिड़ने का समय नहीं है। हम लड़ते रहते हैं और वह बेचारा आहत होते रहता है।” अरूण दा उसकी माँ को समझाते रहते। अरूप की माँ और अरूण दा की रामकृष्ण मठ में, काली बाड़ी में मंदिर में, सारस्वत सभा लाइब्रेरी में मुलाक़ातें होती रहती थीं।
पहले से ही अरूप बहुत कम, बहुत धीरे-धीरे बोला करता था। कैंसर के इलाज में उसके बोलने को और ज़्यादा कम कर दिया था। एक शाम वह अपने मैक्सिको प्रवास को याद करने लगा। वहाँ के चौराहों, गलियों और रास्तों के बारे में बताते हुए, वहाँ की प्रसिद्ध चित्रकार फ़्रीदा काहलो के बारे में बताते-बताते रुक गया। उसकी आवाज़ टूटने लगी थी।
“बाबा के साथ ऐसा होने लगा है।”
“डॉक्टर को बताया था?”
“एक बार उनके सामने ही बाबा की आवाज़ खो गई थी।”
यह सितंबर रहा होगा। नवंबर में उसे जाना था। लोर्का के नाटक की रिहर्सल शुरू थी। अरूण दा उसका पहला शो जल्दी ही करना चाह रहे थे। अरूप की बिगड़ती हालत हम सभी की चिंता का कारण बनती गई थी।
“मैं बहुत छोटा था। सात-आठ बरस का रहा होगा। मैंने हमारी एक पड़ोसी औरत के आत्महत्या करने की बात सुनी थी। वह पहली बार था कि मैंने मृत्यु के होने को जाना था।” अरूप कह रहा था।
“तुम्हारे पिता कब नहीं रहे थे?”
“तब मैं कॉलेज जाने लगा था।”
“तुम्हें अपनी मृत्यु का ख़याल सताने लगा है?”
यह मुझे पूछना नहीं था। मुझसे भूल हो गई। फिर मैंने उसे देर तक अपनी बीमारी के दिनों की तकलीफ़ों पर, उसके न रहने पर उसके परिवार की परिस्थितियों पर सुना था।
“हमें उनको जीने की तरफ़ लौटाना है।” अमृता कह रही थी।
“क्या यह अब संभव है?”
“कम से कम मैं इसे संभव ही समझना चाह रही हूँ।”
“तुम्हें लगता है वह लोर्का के इस नाटक को देख सकेंगे?”
“मुझे पूरा भरोसा है। मैंने अपने इस भरोसे को लेकर उनको लंबी चिट्ठी भी लिखी है।”
“उनको मिल गई थी?”
“अरूण दा ने अपने हाथ से दी थी।”
“भाभी को पता चला होगा।?”
“मुझे अब सिर्फ़ उनका ध्यान रहता है। अरूप नहीं रहेगा तो मेरा उस परिवार से रिश्ता ही क्या रहेगा?”
“उसकी बेटी तुम्हें मानती है।”
“लेकिन वह भी हमारे रिश्तों को कहाँ समझती है। अपनी माँ की बातों में आ जाती है। हमारी मित्रता पर शक करने लगी है।”
उस दिन मैंने अमृता का एकालाप सुना था। अरूप और उसकी मित्रता के सात-आठ बरसों की गाथा, जिसमें उन दोनों की बातें और मुलाक़ातें थीं, उनके साथ-साथ तैयार किये गए नाटक थे, उन नाटकों की रिहर्सलों की शामें थीं।
“मुझे अरूप की प्रतिभा ने खींचा है।”
“मैं जानता हूँ।”
“तुम भी अच्छी तरह नहीं जानते हो। मैंने अपने घंटों उसके साथ उसको सुनते हुए बिताए हैं। अरूप ने अपनी यात्राओं के दौरान मुझे पत्र पर पत्र लिखे हैं। मैक्सिको में वह महीना भर रहा था। वहाँ से उसने मुझे दस-बारह लंबी-लंबी चिट्ठियाँ लिखी थीं।”
“मुझे नहीं पता था।”
और उस शाम अमृता के घर से लौटते हुए मेरे मन में यह ख़याल बार-बार लौटता रहा था कि मैं अरूप को उतना नहीं ही जानता हूँ जितना मैं समझता आया हूँ। उस शाम मेरे कुछ भ्रम टूटे थे।
“एक औरत से मित्रता बिल्कुल दूसरी बात होती है।” अरूण दा बता रहे थे।
“आपकी कभी किसी स्त्री से गहरी दोस्ती रही है?”
“कभी बताऊँगा। बहुत विस्तार से बताना पड़ेगा। आजकल मैं लोर्का के इस नाटक को लेकर ही ज़्यादा से ज़्यादा सोचना चाहता हूँ।”
“अमृता का भी यही हाल है।”
“वह बहुत ज़्यादा सेंसिटीव। लड़की है। अरूप को बहुत अच्छी तरह समझती रही है।”
अरूण दा का यह सब कहना भी रहा था कि मुझमें अरूप से अपनी मित्रता को लेकर संशय जागा था। यही वह समय रहा जब मैंने नीरजा को अपने और ज़्यादा क़रीब ले आने की कोशिशों की शुरुआत की थी। अब मैं रोज़ ही नाटक की रिहर्सल में जाने लगा था। अरूण दा, अरूप और अमृता के लिए उतना नहीं जितना नीरजा के लिए। नीरजा भी यह सब समझने लगी थी। अब मेरा अरूप के यहाँ जाना भी कम हो गया था और उसके बारे में सोचते रहना भी कम हो गया था। वे बारिश के दिन रहे थे।
यह पहली बार रहा होगा जब मैं किसी के लिए अपने गहरे लगाव को कम होते हुए, झरते हुए देख रहा था। क्या आदमी का गहरे से गहरा लगाव भी किसी दिन मरने लगता है, मर जाता है? अम्मा जब तक रही तब तक उनकी अनुपस्थिति में रहना कितना मुश्किल जान पड़ता था और उनके जाने के कुछ ही दिनों के बाद मैं धीरे-धीरे उनको भूलता चला गया था। आदमी को ज़िंदगी ही पकड़ती है। एक धड़कती-फड़कती ज़िंदगी। जो नहीं रह जाता है, वह धीरे-धीरे कभी भी नहीं रहे में बदलता चला जाता है।
“मैं जब जवान था, तब एक ईसाई लड़की के लिए मेरे लगाव और अनुराग की सीमा ही नहीं थी। बाद में उसका विवाह हुआ। मेरा भी। मैं उसको जहाँ-तहाँ देख भी लेता था। लेकिन मुझे अपनी पुराने दिनों की बेचैनी याद ही नहीं आती थी। तुम बता सकते हो कि यह सब क्या है?”
“पर यह क्या ठीक है? आपको नहीं लगता है कि यह छल है?”
“यह मैं नहीं जानता। लेकिन ऐसा ही होता है। आदमी की बेशर्मी की कोई सीमा नहीं है। वह कुत्ते की खाल की तरह पानी में उतरकर सरलता से बाहर निकल आता है। आदमी के स्वार्थ की कोई सीमा नहीं होती है।”
“आप रूपा भाभी से कहाँ मिले थे? क्या वह प्रेम विवाह था?”
“हमारी अरेंज्ड मैरिज थी। हम दोनों के माँ-बाबा ने तय की थी।”
बाद में अरूण दा ने बताया था कि अरूप अपनी नौकरी की शुरुआत के दिनों में भानुमती नाम की एक दक्षिण भारतीय लड़की को चाहता रहा था। उनके बीच देर तक पारस्परिक लगाव बना भी रहा। एक दिन भानुमती का कहीं और विवाह हो गया और कुछ दिनों के बाद अरूप की भी भाभी से शादी हो गई।
“अमृता मुझसे दस बरस छोटी होगी। उसको जानकर लगा कि मैं ऐसे किसी व्यक्ति की चाहना लिए रहा हूँ।” अरूप ने बताया था।
“मुझे भी यही लगता रहा है। अमृता ने मुझे शुरू से ही प्रभावित किया है।”
“तुमने कभी उससे कहा है? ऐसी बात सिर्फ़ पुरुष ही कह सकता है।”
“नहीं। मैं उस आदमी से मिला हूँ जो रिहर्सल रूम के बाहर उनका इंतज़ार करता रहता है। वह उनका पुराना दोस्त है।”
“इससे क्या होता है। तुम अपनी बात कह ही सकते हो। मैं तुम्हारी जगह होता तो अब तक कह चुका होता।”
“मुझे उनसे डर लगता रहा है।”
अरूप हँसने लगा था। तब तक उसको कैंसर होने का पता नहीं था। नाटक की रिहर्सल के दिन नहीं होते और हम दोनों मध्यप्रदेश के जंगलों में घूमते हुए अपना समय बिताया करते थे। ऐसे ही दिनों की एक सर्दी में हम दोनों एक रात भेड़ाघाट के एक गेस्ट हाउस में रुके थे। हमने गेस्ट हाउस की सीढियों पर बैठे हुए घंटों चाँद को निहारा था। मेरी जवानी के शुरुआत के दिन थे। अब मैं चालीस का हो गया हूँ, लेकिन याद नहीं आता है कि उसके पहले या उसके बाद में चाँद के होने ने मुझे इतना ज़्यादा कभी भी प्रभावित किया था।
“चाँद में कुछ है ही ऐसा।” मैंने कहा था।
“यह चाँद की उतनी नहीं, जवानी की बात है। आदमी की एक ऐसी उम्र जब दुनिया में सब कुछ सुंदर और सिर्फ़ सुंदर ही नज़र आता रहता है।” अरूप कह रहा था।
“तुम्हारा पहला प्रेम कब हुआ था?”
“मेरे मिडिल स्कूल के दिनों में। वह हमें अँग्रेज़ी पढ़ाती थीं। गोवा से आई थीं। कोंकणी उनकी पहली भाषा थी। सारस्वत सभा लाइब्रेरी में अँग्रेज़ी किताबों के लिए आती रहती थी। मैं उनको रिडिंग रूम से देखता रहता था।”
“तब तुम्हारी उम्र बारह-तेरह की रही होगी?”
“आठवीं में था, चौदह बरस का हो गया था। तब तक मैंने इतनी सुंदर स्त्री को देखा ही नहीं था।”
अरूप जैसे-जैसे अपने आख़िरी दिनों की तरफ़ बढ़ रहा था, वैसे-वैसे अपने बचपन और किशोर जीवन की घटनाओं को कुछ विस्तार से कहने लगा था।
“तब उस इलाक़े में एक जंगल-सा खड़ा था। हम होली जलाने की लकड़ियाँ वहीं से ले आते थे।”
वह मीठा नीम के दरगाह के पड़ोस के इलाक़े का ज़िक्र कर रहा था। वहीं सेंट्रल म्युजियम की विशालकाय कोलोनियल इमारत भी थी। वहीं की एक जंगली और सकरी गली म्योर मेमोरियल अस्पताल तक जाती थी।
मुझे उस मिशनरी अस्पताल की याद है। मैंने वहीं पहली-पहली बार अगर बच्चे का जन्म देखा था तो बड़ों की मौत भी। मैं अपने एक कजिन के जन्म के बाद वहाँ अपनी माँ के साथ जाता रहा था। वहीं मेरे एक काका की मृत्यु हुई थी।
“अस्पताल भी अद्भुत जगह होती है।” अरूप कहता रहता।
“अद्भुत उतनी नहीं जितनी मनहूस जगह होती है।” मैं कहता।
“वहाँ कितनी सारी आशाएँ पलती रहती हैं।”
“और निराशाएँ?”
“आशाओं की तुलना में उनका प्रतिशत कम ही होता है।”
अपनी बात को समझाने के लिए अरूप उन बहुत सारे दिनों के बारे में बताता रहता, जिसे उस समय उसने अस्पताल में गुज़ारा था। उन दिनों में वह घर से अस्पताल और अस्पताल से घर आता-जाता रहा था।
“अमृता वहाँ रोज़ ही आती रही थी। अस्पताल की घड़ी में शाम के पाँच बजते और मैं उसे चाय और बिस्कुट का बैग लिए हुए वार्ड की देहरी पर देख लेता।”
“उन दिनों मैं भी रोज़ ही आता रहा था। वहीं पर ही तो हमने लोर्का के नाटक के मंचन पर विचार किया था।”
“अमृता सहमत नहीं थी। कोई भारतीय नाटक करने का प्रस्ताव रख रही थी।”
अमृता को लगता था कि हमारे अपने देश में इतना कुछ रचा गया है कि हमें उन पर ही ज़्यादा से ज़्यादा सोचना-समझना चाहिए। उसके माता-पिता गांधी-विनोबा के काम से जुड़े रहे थे और उनको भारत के आज़ाद हो जाने की ख़ुशियाँ और ज़रूरतें याद आती रहती थीं। अपने देश के लिए उनका लगाव कुछ ज़्यादा ही था।
“इस नाटक में औरतों की स्थितियों को ख़ूब अच्छी तरह समझा गया है। यह लोर्का का भी ग़जब-सा काम है।” यह अरूण दा का विचार था।
अमृता को छोड़कर, थिएटर ग्रुप का हर कोई लोर्का पर सहमत हुआ था। अरूप के अस्पताल के बग़ीचे में ही इस नाटक की रिडिंग की शुरुआत हुई थी। इन दिनों में ही नीरजा भी नाटक मंडली में शामिल हुई थी।
इतने बरसों के बाद याद आता है कि सर्दियों के वे कुछ दिन हम सबके लिए सिर्फ़ बीमारी, मृत्यु और इनसे उपजती उदासी के ही नहीं, कला, मित्रता, करुणा और प्रेम से बाहर आते हुए आनंद के भी दिन रहे थे। अरूण दा को छोड़कर, हम सबके युवा दिन।
“नाटक के कारण भी हम सब एक साथ रह रहे हैं। एक-दूसरे को जान रहे हैं।” अरूण दा कहते रहते थे।
“अरूप भी नाटकों के बीच अपनी बीमारी को भूलता रहता है।” अमृता कहा करती थी।
मेरे और नीरजा के बीच संभव होता हुआ संवाद, नाटक की रिहर्सलों के कारण ही संभव होता जा रहा था।
“अम्मा मुझे आने ही नहीं देती अगर अरूण दा ने नहीं कहा होता।” नीरजा कहती रहती।
“वह उनको जानती है?”
“अम्मा ने भी बरसों पहले दुर्गापूजा पंडाल में अरूण दा के एक नाटक में काम किया था। मेरे जन्म के पहले की बात है।”
“अमृता के माँ-बाप भी अरूण दा की बहुत इज़्ज़त करते हैं। अरूण दा ने अपनी ज़िंदगी के कितने ही साल थिएटर को दिए हैं!”
“लेकिन अरूप दा की माँ को हम सबका मिलना-जुलना अच्छा नहीं लगता है।”
“वह सिर्फ़ अमृता से नाराज़ रहती हैं। वह भी भाभी को बताने के लिए। अरूप की माँ रवींद्र संगीत गाती थीं। उनकी बंगला साहित्य की समझ अच्छी रही है।”
“अमृता दीदी तो इतनी अच्छी हैं। उनसे किसी को क्या शिकायत हो सकती है?”
“भाभी को अरूप और अमृता के बीच का संबंध भाता नहीं है।”
उन दिनों, रिहर्सल की उन शामों में, मैंने और नीरजा ने एक-दूसरे से कितना सारा, कितने अलग-अलग विषयों पर विचार साझा किया था। शायद उन दिनों की शामों में ही हमने एक-दूसरे को जाना था। यह हम सबका दुर्भाग्य ही रहा था कि न अरूप लोर्का के उस नाटक का मंचन देख पाया और न ही मेरे और नीरजा के विवाह में शामिल हो सका। नवंबर के आख़िरी दिनों में वह चल बसा था।
“अब वह अपना दर्द बर्दाश्त नहीं कर पा रहा है। उसे मॉर्फ़िन के इंजेक्शन देना पड़ रहा है।” अरूण दा ने कहा था।
“मैं अस्पताल में मरना नहीं चाहता हूँ।” अरूप हम सबसे कहता रहा था।
लोर्का के नाटक का मंचन कुछ दिनों के लिए स्थगित किया गया था। अरूप के जाने के बाद नए साल की शुरुआत में उस नाटक को खेला गया। हमारे ग्रुप में ऐसा कोई भी नहीं था, जिसे अरूप की अनुपस्थिति ने छुआ नहीं था। हम सबके सब उदास ही बने रहे थे। फ़रवरी में हमारा विवाह हुआ। भाभी को अरूप की जगह लगी नौकरी के कारण शहर छोड़ना पड़ा। अरूण दा कुछ महीनों तक निष्क्रिय रहे और बाद में फिर अपनी नाटक मंडली से जुड़ गए। अब मैं उतना नहीं, जितना नीरजा उस मंडली से जुड़ने लगी थी। अमृता का भी विवाह हो रहा था।
“अरूप दा का बहुत मन था कि हमारा नाटक करना शुरू रहना चाहिए। अपनी इस इच्छा को वह दुहराते रहे थे।” नीरजा कहा करती थी।
“तुमसे कभी कहा था?”
“उनके आख़िरी-आख़िरी दिनों में मैं और अमृता दीदी उनके घर गए थे। अरूप दा ने दोनों का ही हाथ पकड़कर हमसे नाटक करते रहने का वादा किया लिया था। मैंने पहली बार उनकी गीली आँखें देखी थीं।”
तभी नीरजा ने अमृता की गंभीर मानसिक हालत का भी ज़िक्र किया था। तभी उसे समझ में भी आया था कि क्यों अमृता के लिए अरूप के यहाँ ऐसा सोचा जा रहा है। अमृता के मन में अरूप के लिए पलती-बढ़ती भावनाएँ, साफ़-साफ़ ढंग से नज़र आने लगी थीं। जब वे दोनों अरूप के घर से बाहर निकल रहे थे, तब उन दोनों से घर की तीनों ही स्त्रियों में से किसी ने भी बात नहीं की थी। वे दरवाज़े तक भी नहीं आए थे। अमृता जान रही थी कि यह उसकी अरूप से आख़िरी मुलाक़ात हो रही है। उसने अरूप के अपनी हथेली पर रखे हुए हाथ को देर तक रहने दिया था। उसकी अपनी भी आँखें गीली हो गई थीं।
“अरूप से अभी भी नहीं मिलती तो ख़ुद को माफ़ करना मुश्किल होता।” अमृता ने बाहर निकलकर नीरजा से कहा था।
“भाभी की बात समझ में आती है, लेकिन अरूप दा की माँ और बेटी भी बाहर नहीं निकले थे।”
“कुछ रिश्तों को समझना कठिन भी होता है। इसमें भाभी का कोई दोष नहीं है।” अमृता ने नीरजा से बहुत कुछ कहा था।
बाद में अमृता और नीरजा मेरे घर आए थे। मेरे यहाँ से हम तीनों अरूण दा के घर गए थे। वहाँ हम चारों ने देर रात तक अपना समय बिताया था। हम चारों अरूप को लेकर बात करते रहे थे।
“आदमी ख़ुद को ही कहाँ समझ पाता है। आदमी ही इस सृष्टि का सबसे बड़ा रहस्य है।” अरूण दा हम तीनों को समझाते रहे थे।
बाहर सर्दियों की रातों का घना अँधेरा खड़ा था। अरूण दा अपने पैंसठ बरस के जीवन के कुछ-कुछ हिस्सों पर ठहरते-ठिठकते रहे थे। उनकी कुर्सी के बाजू के स्टूल पर उनकी ड्रिंक रखी थी। पड़ोस के कमरे में उनका परिवार काले-सफ़ेद टेलिविजन पर कोई प्रोग्राम देख रहा था।
“अरूप मुझसे पंद्रह साल छोटा है।”
“आपने उसे उसके बचपन से देखा होगा?”
“मैं उससे पहली बार उसके कॉलेज में मिला था। वह वहाँ अँग्रेज़ी पढ़ाने की शुरुआत कर रहा था। मैं उसके परिवार को जानता रहा था। उसके बाबा भी पूर्वी बंगाल से आए थे।”
“आप दोनों शुरू से ही थिएटर ग्रुप से जुड़ गए थे?” अमृता ने पूछा था।
“नहीं-नहीं यह कविताएँ लिखता था। मामूली-सी कविताएँ। वह भी अँग्रेज़ी में। हमारे ग्रुप में उसका पहला नाटक रवींद्रनाथ का ‘डाकघर’ रहा था। हिंदी का हमारा पहला नाटक।”
मैं उन दिनों की छोटी-छोटी बातों को याद कर रहा हूँ। उन बरसों की मेरी यादें भी धुँधला रही हैं। मैं शायद एक दिन को किसी और एक दिन से जोड़ रहा हूँ। यह भी पक्का नहीं है कि उस शाम अमृता और नीरजा हमारे साथ शामिल थीं भी या नहीं? अरूप को गए हुए आठ-नौ बरस होने को आ रहे हैं। उसका अपना चेहरा तक मेरे सामने धुँधला-सा उभरता है। यह बात अजीब-सी लगती है कि कभी जिस चेहरे को रोज़ ही देखा करता था, वह चेहरा तक इतना धुँधला होकर लौट रहा है। यही बात अम्मा के चेहरे के लिए भी कह सकता हूँ।
“आदमी के जाने के बाद उसका बहुत ही कम बच पाता है।”
“ऐसा क्यों होता है अरूण दा?”
“मैं इसका क्या ही उत्तर दे सकता हूँ।”
अरूण दा अपनी ड्रिंक का गिलास उठाते हुए कह रहे थे। अब अरूण दा घर में ही बने रहते हैं। हमारे थिएटर ग्रुप को अमृता और नीरजा सँभाल रहे हैं। अमृता ने विवाह किया था, लेकिन दो बरसों के बाद वह अलग हो गई थी। उसकी पाँच बरस की बिटिया है। हम सबने मिलकर उसका नाम अरूपा रखा था और उसको पुकारते वक़्त हम अपनी-अपनी तरह से अरूप को बीच-बीच में याद कर लेते हैं।
मेरे साथ यह अरसे बाद हुआ कि मैं इतनी देर तक अपने उन दिनों के बीच रह सका हूँ। सोच रहा हूँ कि हमारी एक ही ज़िंदगी में कितनी अलग-अलग तरह की ज़िंदगियाँ छिपी रहती है और मौक़ा मिलते ही हमारे सामने आकर खड़ी हो जाती है।
आज रात नीरजा से यह सब कहना चाहूँगा। कनु जाग गई है। अब मुझे हम दोनों का नाश्ता तैयार करना होगा। नीरजा को दुपहर में लौटना है। आज उनके नाटक की फ़ाइनल रिहर्सल है। स्मिता का पहला नाटक, अमृता का अपना लिखा गया पहला नाटक और नीरजा भी पहली बार किसी नाटक को डायरेक्ट कर रही है। इस नाटक को देखने के लिए अरूण दा भी घर से बाहर निकलेंगे। मैं भी इस नाटक के पहले मंचन की प्रतीक्षा कर रहा हूँ।
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