राजनीति पर उद्धरण
राजनीति मानवीय अंतर्क्रिया
में निहित संघर्षों और सहयोगों का मिश्रण है। लेनिन ने इसे अर्थशास्त्र की सघनतम अभिव्यक्ति के रूप में देखा था और कई अन्य विद्वानों और विचारकों ने इसे अलग-अलग अवधारणात्मक आधार प्रदान किया है। राजनीति मानव-जीवन से इसके अभिन्न संबंध और महत्त्वपूर्ण प्रभाव के कारण विचार और चिंतन का प्रमुख तत्त्व रही है। इस रूप में कविताओं ने भी इस पर पर्याप्त बात की है। प्रस्तुत चयन में राजनीति विषयक कविताओं का एक अनूठा संकलन किया गया है।
नेता और अफ़सर और इनके चुने हुए विशेषज्ञ मिलकर तय करते है कि अब और कहाँ धरती का उत्पीड़न करना है ताकि कोई पैसा बनाए, कोई मौज करने आए, कोई कूड़ा बीनने, कोई सड़क बनाने।
जनसंघ के अंधविश्वासी लोग कहते हैं कि गाय भारतीय संस्कृति की अंग है, तो वह जानते नहीं कि अनजाने में कितनी बड़ी सच्चाई कह गए हैं।
ज़ोर से बोलने का वही नतीजा हुआ जो प्रायः होता है। विपक्ष धीरे-धीरे बोलने लगा।
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लीडरी ऐसा बीज है जो अपने घर से दूर की ज़मीन में ही पनपता है।
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आदमी फ़िल्मी अभिनेता हो या नेता, तभी वह इच्छा-मात्र से रो सकता है।
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अपने दल को बलवान बनाने के लिए प्रधानमंत्री पार्लियामेन्ट से कैसे-कैसे काम करवाता है—इसकी मिसालें जितनी चाहिए उतनी मिल सकती हैं। यह सब सोचने लायक है।
प्यार गहराई से राजनीतिक है। हमारी सबसे गहरी क्रांति तब आएगी, जब हम इस सचाई को समझ लेंगे।
मूल्य आज संपदा और सत्ता के संग्रह का बना हुआ है। धर्म अब वह है जो बताता है कि मूल्य संग्रह नहीं बल्कि अपरिग्रह है। संग्रह में आदमी हर किसी के पास से चीज़ों को अपनी ओर बटोरता है, लेकिन इसमें वह हर किसी के स्नेह को गँवाता भी जाता है। स्नेह को खोकर चीज़ को पा लेना, पाना नहीं गँवाना है। यह दृष्टि धर्म ही देता है और वह भोग की जगह त्याग की प्रतिष्ठा करता है। इसीलिए वह राजनीति और कर्म नीति परिणाम नहीं ला पाएगी जो धर्म नीति से हीन है।
जनता अच्छी तरह जानती है कि नेता भावनाओं के व्यापारी होते हैं, फिर भी उनकी बातों में आ जाती है।
राजनीतिक रूप से, तर्क की कमज़ोरी हमेशा से यह रही है कि जो लोग कम बुराई को चुनते हैं, वे बहुत जल्द भूल जाते हैं कि उन्होंने बुराई को चुना है।
राजनीति से दूर रहना ख़ुद में एक राजनीतिक दृष्टिकोण है।
मैं यह नहीं मानता कि धर्म का राजनीति से कोई वास्ता नहीं है। धर्मरहित राजनीति शव के समान है, जिसे दफ़ना देना ही उचित है।
…धनी आदमी के पास भावावेग होते हैं, और किसान के पास सिर्फ़ ज़रूरतें होती हैं। इसलिए किसान दोहरी निर्धनता का मारा है; और भले ही राजनीतिक रूप से उसकी आक्रामकताओं का निष्ठुरता के साथ दमन आवश्यक हो, मानवता और धर्म की नज़रों में वह पवित्र है।
चाहिए यह कि लीडर तो जनता की नस-नस की बात जानता हो, पर लीडर के बारे में कुछ भी न जानता हो।
गांधी के बावजूद मुस्लिम लीग ने कांग्रेस से पाकिस्तान ले लिया, लेकिन वामपंथी कुछ नहीं ले पाए।
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पार्लियामेंट का काम इतना सरल होना चाहिए कि दिन-ब-दिन उसका तेज बढ़ता जाए और लोगों पर उसका असर होता जाए, लेकिन इससे उल्टे इतना तो सब क़ुबूल करते हैं कि पार्लियामेन्ट के मेम्बर दिखावटी और स्वार्थी पाये जाते हैं।
मेरी कहानियाँ उन महिलाओं के बारे में हैं जिनसे धर्म, समाज और राजनीति—बिना किसी सवाल के आज्ञाकारिता की माँग करते हैं और ऐसा करते हुए उन पर अमानवीय क्रूरता करते हैं, बल्कि उन्हें केवल अधीनस्थ बना देते हैं।
मेरी आज चलती कहाँ है? मेरी चलती तो पंजाब न हुआ होता, न बिहार होता, न नोआखाली। आज कोई मेरी मानता नहीं। मैं बहुत छोटा आदमी हूँ। हाँ, एक दिन मैं हिंदुस्तान में बड़ा आदमी था। तब सब मेरी मानते थे, आज न तो कांग्रेस मेरी मानती है, न हिंदु और मुसलमान। कांग्रेस आज है कहाँ? वह तो तितर-बितर हो गई है। मेरा तो अरण्य-रोदन चल रहा है।
मैं इस या उस राजनीतिक दल के विवाद का हिस्सेदार नहीं हो सकता।
हमारे नेतागण कितनी शालीनता से विरोधियों को झेल रहे हैं। विरोधीगण अपनी बात बकते रहते हैं और नेतागण चुपचाप अपनी चाल चलते रहते हैं। कोई किसी से प्रवाभित नहीं होता। यह आदर्श विरोध है। आपको भी रुख अपनाना चाहिए।
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नेता? नेता कौन है? मनुष्य? एक मनुष्य सब विषयों की पूर्णता पा सकता है? 'न"। इसीलिए नेता मनुष्य नहीं। सभी विषयों की संकलित ज्ञान-राशि का नाम नेता है।
चुनाव लड़नेवाले प्रायः घटिया आदमी होते हैं, इसलिए एक नए घटिया आदमी द्वारा पुराने घटिया आदमी को—जिसके घटियापन को लोगों ने पहले से ही समझ-बूझ लिया है—उखाड़ना न चाहिए।
क्या यह आश्चर्यजनक नहीं है कि हिंदू धर्म ने जिस देश में हर आदमी की हर साँस को हज़ारों साल से क़ायदे-क़ाननों में बाँध रखा है, उस देश में 1947 के बाद ऐसी कोई नैतिकता नहीं पनपी, जो हमारे राज्य को तथा राजनीति को बाँध सके?
हिंदी में राजनैतिक आलोचना करने वाले अख़बार अब नहीं हैं।
तुम्हें खाने-पीने पहनने-ओढ़ने का कष्ट तभी तक है जब तक कि जनता हो और अगर तुम इन कष्टों से छुटकारा चाहते हो तो जनतापन छोड़कर बड़प्पन हथियाने की कोई तरकीब निकालो।
राजनीति से देश का कल्याण न होगा, धर्म का डंका पीटने से भी कुछ न होगा, अर्थनीति से भी अपनी कमी दूर न होगी जन्मभूमि पर प्रेम हो—जीवंत प्रेम। वह प्रेम आत्मा, संपत्ति और संतान से भी बड़ा हो—जिस प्रेम से छोटे-बड़े सब को एक नज़र से देखा जा सके।
भारत में हमारी असली समस्या राजनीतिक नहीं, सामाजिक है।
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जो मनुष्य यह कहता है कि धर्म का राजनीति के साथ कोई संबंध नहीं है, वह धर्म को नहीं जानता—ऐसा कहने में मुझे संकोच नहीं होता और न ऐसा कहने में मैं अविनय करता हूँ।
कविता को राजनीति में नहीं घुसना चाहिए। क्योंकि इससे कविता का तो कुछ नहीं बिगड़ेगा, राजनीति के अनिष्ट की संभावना है।
जो मनुष्य यह कहता है कि धर्म का राजनीति से कोई संबंध नहीं है, वह धर्म को नहीं जानता; ऐसा कहने में मुझ संकोच नहीं होता और न ऐसा कहने में मैं अविनय करता हूँ।
राजनीति जितनी ‘ठोस’ ऊपर से दिखाई देती है, अंदर से उतनी ही क्षतिग्रस्त और जर्जर हो सकती है।
अगर राजनीति के बाहर भी स्वतंत्रता के कोई मतलब हैं तो हमें उसको एक ऐसी भाषा में भी खोजना, और दृढ़ करना होगा जो राजनीति की भाषा नहीं है।
दिल्ली सांस्कृतिक केंद्र नहीं है। इसी तरह वहाँ की राजनीति के अधिकार भी विकेंद्रित होने चाहिए।
कविता के क्षेत्र में केवल एक आर्य-सत्य है : दुःख है। शेष तीन राजनीति के भीतर आते हैं।
'प्रत्येक को वोट' जैसे राजनीतिक प्रजातंत्र का निष्कर्ष है वैसे ही 'प्रत्येक का काम' यह आर्थिक प्रजातंत्र का मापदंड है।
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जब राजनीति और वाणिज्य का संगठन—जिसका दूसरा राष्ट्र है—उच्च सामाजिक जीवन के सामरस्य की क़ीमत पर सर्वशक्तिमान हो जाता है, तब वह मानवता के लिए कलंक का दिन होता है।
कला को राजनीति के समकक्ष नहीं रखा जा सकता, और न कलात्मक सृजन व समालोचना की किसी एक पद्धति ही आम विश्व—दृष्टिकोण के समकक्ष रखा जा सकता है।
समाज में मान-सम्मान पाने के लिए गुण ही ज़्यादा प्रभावी सिद्ध होते हैं, जाति नहीं। हर बात में जाति का अड़ंगा डालने की बहुत बुरी आदत हमें पड़ गई है। आज जो हैं, वे ही जातियाँ काफ़ी हैं। अब कम-से-कम राजनीति में तो हम जातियाँ पैदा न करें। आने वाले जमाने का शिवाजी यदि मुसलमान के घर में पैदा होता है तो मुझे बिल्कुल बुरा नहीं लगेगा। हमें गुणों की चाह है, जाति की नहीं।
कांग्रेस क्योंकि पूरी तरह जनाधारित थी, इसलिए वह भारत की जनता की तरह ही परिभाषाविहीन थी। यदि वह एकांगी होती तो कोई लेनिन या माओ उसे ज़रूर मिलता, जो किताब लिखकर उसे रणनीति देता। लेकिन कांग्रेस परिभाषाहीन थी, इसलिए उसे परिभाषा देने की सबसे आज़ादी थी।
संगठित राजनीति और रचना में तनाव का रिश्ता होना चाहिए और सत्ता और रचना में भी तनाव का रिश्ता होना चाहिए।
मनुष्य मात्र को इतिहास और राजनीति नहीं एक कविता चाहिए।
मेरा काम हमेशा राजनीतिक रहा है, क्योंकि चीन में आर्टिस्ट होने का फ़ैसला ही राजनीतिक है।
समाज में स्थित विभिन्न नगरीय तथा राजनैतिक संस्थाओं की अस्तित्व में स्थित व्यवस्था को अमान्य करना—यह विद्रोही साहित्य का लक्ष्य होता है।
चीन के बुद्धिजीवियों और प्रोफ़ेसरों और उनका बचाव करने वाले राजनीतिक माफ़िया के बीच एक महीन-सी रेखा है जो उन्हें अलग करती है।
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यह रोज़ का क़िस्सा है। मंत्री महोदय अपनी गणना में यह भूल गए हैं कि उनकी अपनी मीयाद बँधी है।
हम राजनीति को शक्ति और जिसके पास शक्ति है, उसके संदर्भ में देखते हैं। राजनीति वह लक्ष्य है जिस पर उस शक्ति को लगाया जाता है।
मैं जो राजनीति करता हूँ उससे बेहतर कविताएँ लिखता हूँ।
राजनीति केवल पथ की साधना है, संस्कृति उस पथ का साध्य है।
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