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घास के घरउँदे

ghaas ke gharaunde

श्यामसुंदर मिश्र 'मधुप'

और अधिकश्यामसुंदर मिश्र 'मधुप'

    घास के घरौंदे हइँ।

    झाबर की दाँती मा

    भूड़ केरी भौंह पर

    टीलन के टैंटै तर

    जुग-जुग ते जगर-मगर

    घास के घरौंदे हइँ

    केत्ते महल मिटिगे

    केत्ते किला कटिगे

    केत्ते महाभारत भे

    केत्ते महाजन मरे

    राज-पाट माटी-मिले

    मुला जस के तस।

    हाला-ड्वाला आवइ

    तौ इनका झुलावइ

    इनका खिलौना बनइ

    बहिया बहावइ तौ

    नहाइ नये बनैं।

    आतमा वहइ

    बसि देह नई बनि जाइ

    देर कुछ लागइ ना

    छप्परु फिरि तनि जाइ।

    सब बनि-बनि बिगरइँ

    फिरि बनइँ,

    बिगरि-बिगरि नये बनइँ,

    इनका अंतरु अमर हइ

    बसि काया बदलि जाति।

    पृथिवी गवाही हइ

    इन पर केत्ती गाज गिरी

    केत्ते बादर फटे

    केत्ते पाथर परे

    केत्ते पाला परे

    केत्ते रयाला परे

    केत्ती लूकइ लगीं

    केत्ते तपंता तपे

    केत्ते दौंगरा गिरे

    केत्ते पहाड़ टूट

    केत्ते तिलंगा तड़के

    केत्ते करिन्दा कड़के,

    सबु झेलि रहे

    नवा खेलु खेलि रहे।

    अन्तरु बस एत्तइ हइ

    पहिले होरी रहइ

    अब गोबर हइ

    पहिले धनिया रहइ

    अब झुनिया हइ

    सोने के

    चाँदी के

    माटी मा सौंदे हइँ

    घास के घरौंदे हइँ॥

    हियाँ साँझ करइ साँइ-साँइ

    राति करइ भाँइँ-भाँइँ

    भोहहरु भजन करइ

    लोहका लहरि भरइ

    पौ फटतै खन

    महुवा महक उठाइँ

    चिरिया चहकिं उठइँ

    फूल अरघान देंइ

    बगिया गमकि उठइ

    मनु कुछ बहकि उठइ

    दूब की नोंकन पर

    ओस के मोती मिलइँ,

    सुर्ज की किरनइ फिरि

    सोना बरसाइ देइँ,

    मकरी के जारन पर

    चाँदी छिटकाइ देइँ,

    भोरु बलु बाँटइ फिरि

    दिनकर गीता देइ

    कोइ रीता रहइ

    कामु करउ, काम करउ

    एत्तइ तुमार बसु।

    दोपहर नहान होइ,

    पूजा औरु ध्यान होइ

    अतिथि कोइ आवइ तौ

    हियाँ वहिते कहा जाति

    तुमरै तौ घरु हइ

    तुमरै तौ हरु हइ

    तुमरै तौ फरिका हइ

    तुमरै तौ लरिका हइ

    तुमरै है खेतु-पातु

    तुमरे है दूध-भातु।”

    सब कामु

    सब की ताईं करइँ

    सबकी धाईं करइँ

    सब का पानी भरइँ

    सब की सानी करइँ

    मुला

    दुनिया के रौंदे हइँ

    घास के घरौंदे हइँ

    हियाँ तना-तनी

    हियाँ बना-बनी

    हियाँ मंदिर हइँ

    हियाँ मस्जिद हइँ

    हियाँ गिर्जाघरु

    हियाँ गुरुद्वारा

    हियाँ कोइ हिन्दू हइ

    हियाँ कोइ मुसलमानु

    हियाँ कोइ सिक्ख

    और किरिहिटान।

    हियाँ सब बाबा हइँ,

    दाइ हइँ,

    बप्पा हइँ, भाइ हइँ,

    काका हइँ, काकी हइँ

    नाना हइँ, नानी हइँ

    मामा हइँ, मामी हइँ।

    यहु सदियन पुरान बाड़ा है

    हियाँ सबु का नारु गाड़ा है

    हियाँ कोऊ बाहर का,

    बिरान है

    हियाँ सब अपने हइँ

    अपन-बिरान सपना है।

    हियाँ हारु पूजा जाइ

    घर-दुवारु पूजा जाइ

    नद्दी नारु पूजा जाइ

    हियाँ हरु पूजा जाइ

    हर का तरु पूजा जाइ

    हियाँ बर्धु पूजा जाइ

    हियाँ गाइ पूजी जाइ।

    वहै हियाँ माता हइ

    वहिका सबते नाता हइ

    हियाँ खेतु पूजा जाइ

    हियाँ रेतु पूजा जाइ

    हियाँ बाग पूजे जाइँ

    हियाँ नाग पूजे जाइँ

    कुआँ-ताल पूजे जाइँ

    हाथिन के भाल पूजे जांइँ,

    बिरवा पूजे जाइँ

    किरवा पूजे जाइँ

    हियाँ आंधी का न्योता होइ

    पानी का न्योता होइ

    इहे हियाँ देवी हइँ

    इहै हियाँ देउता हइँ

    हियाँ देउता हइँ पीपर की काया मा

    बरगद की छाया मा

    निंबिया पर देबी रहइँ

    औंरा पर देउता रहइँ।

    हियाँ असली की पूजा होइ

    नकली की नानी मरइ

    हियाँ कूटनीति

    हियाँ राजनीति

    छल क्यार सौदे हइँ

    घास के घरौंदे हइँ॥

    यहे ते हियाँ—

    देबी क्यार झगड़ा हइ

    देउता क्यार रगड़ा हइ

    मेहरियइ हियां देबी हइँ

    मनइय हियां देउता हइँ

    कन्या कुमारिन का पहिले जेवावाँ जाइ

    भूलिउ कै नारिन पर

    हाथु उठाया जाइ

    हियाँ सब बिना पढ़े

    मुला कढ़े बहुत कुछ।

    हियाँ यह माना जाति

    जौनु कहुँ राम आइ

    वहइ कहुँ रहीम आइ

    भाखा का भेदु हइ

    भाउ सब एकुइ हइ

    जो लिखा गीता मा

    वहइ तो कुरान मा

    धरमु कुल्लि एकुछ हइ,

    ऊपर वाला एकु हइ

    वहिके टुकरा होइ।

    झगरा यह पढ़ीसन का

    झगरा हइ रहीसन का

    नगरन-महानगरन का

    रेसम के मनइन का

    तौ चमरौधे हइँ

    घास के घरोंदे हइँ।

    हियाँ प्रकृतिय राजा हइ

    प्रकृतिय रानी हइ

    महुवा की महक हियाँ

    पंछिन की चहक हियां

    घासन को दवा हियाँ

    मदमाती हवा हियाँ

    आमन की गोदी मा

    कोइली कस बोलि रही

    फूलन के गाल चूमि

    तितुली कस डोलि रही

    कमलन का रसु लेइ

    भँउरा सब जागि रहे

    काटि काटि बाली कहुँ

    कटनास भागि रहे,

    डड़ियन के बीच महइ

    बेलझरा पाके हैं,

    गदेलवा ताके है

    हियाँ की कलेवा यहै

    हियाँ की मेवा यहै।

    लहरइ मयारी कहुँ

    नरकुल भारी कहुँ

    तलियन के पेटे मा

    नरइ जमाये रंगु

    थोड़ी दूर तट ते

    बजै ढफ-ढोल चंगु।

    नसा अस खाइ मनौ

    दूव के विछौना पर

    चरवाह गाइ रहे।

    पूँछ तेने डांस मारि

    झरुवा चरइ गाइ

    बूँदा-बाँदी होतइ खन

    भागइ धरइ जाइ

    सावन भादउँ मा

    नदी-नार बाढ़इँ सब

    चैत के महीना मा

    ढाख जीभ काढ़इँ सब

    सावन के महीना मा

    सेउरा औरु मकरा

    पगडंडी छापि लेंइ

    राही राह भूलि जाइँ

    कुआँर के अउते खन

    काँस-बन फूलि जाइँ

    नींब पर चढ़ी गुर्च

    अमिरतु बाँटि रही

    संखुलिया फूलि-फूलि

    केत्ते रोग काटि रही

    आँखिन की दवा लिहे

    तिपतिया हरी-हरी

    दुधिया मचकि रही

    दूध ते भरी-भरी

    मुचमुचा कहूँ पर

    खरीफ कइहाँ डाटि रहा,

    गंधी का किरवा कहुँ

    धानन का चाटि रहा,

    कुँवा की कोखिन पर

    फइले कुकरौंधे हइँ

    घास के घरौंदे हइँ

    फागुन की सँझवतिया

    धमकचरु करइ खूब

    चैत की उजिरिया

    गली-गली, गाँउ-गाँउ

    मादकता भरइ खूब

    टेसुन के जंगल मा

    मदन हिल्वार भरइ

    तरुनाइ आह करइ।

    जोंधइया जब खेतु करइ,

    उजिरिया उप्पर चढ़इ,

    राति भीजि सरसइ,

    पिछवारे अँबिली पर

    पंछी गुटरगूं करइँ,

    रातरानी महकइ,

    मिलि-जुलि कै तब

    संखरन की टटिया फारि

    भीतर घुसि परैं।

    घुसतै खन

    खटियर पर छापि लेंइँ

    तब मनु मसकि जाइ

    जियरा कसकि जाइ

    टीस बानु मारि जाइ,

    संयमु सब झारि जाइ,

    बँधा मनु छूटि परइ

    कसिकइ कसक भरइ।

    भादौं की अंधेरिया

    थनिहन की पल्टनि

    झूमि-झूमि सरसराइ

    नदी की धार जब

    राति मा गरगराइ

    कौंधा चमकि जाइ

    बिजुरी कड़कि जाइ

    तब गोरी बर्राइ

    मंसवा आइ गवा।

    हियाँ की मेहरारू

    क्रीम हइँ

    पाउडर

    माल

    टिनोपाल

    वइ हइँ—

    बटन क्यार लंहगा

    करमटा की ओढ़नी

    मुला आँखि ढेला असि

    गजब ढहावति

    नाक देखि

    सुअना मुहुँ लुकवावति

    मनु रेसमी

    मुला तनु खादी अस खुरदुरा।

    हियाँ केला अस

    जंघा कहाँ

    कनकोहरी के ठूँठ

    पायल छम-छम कहाँ

    गीलट के बिछिया बस।

    मुला राति सोना हियाँ

    दिन सब चाँदी क्यार

    जिन्दगी सब सूबर की

    गहना बसि गुजरी के।

    बालक हियाँ नंगे

    मुला चंगे

    ब्यालन कै ग्याँद खेलइँ।

    पुरइनि के पातन मा

    ज्योनार जेंईं जाइ,

    गंगासागर माटी के,

    साड़ी के नाँउ पर

    मटमइले प्यौंदे हइँ

    घास के घरौंदे हइँ

    हियाँ बाघन की खाल मा

    मनइ मढ़ें नाँहि,

    कपट-नाग चुपचाप

    बिल ते कढ़ैं नाँहि,

    हियाँ कबिरा की सहज साँस

    कबिरा का सहज भाउ

    हियाँ बना भाउ नाँहि,

    हियाँ निरा ताउ नाँहि,

    हियाँ अस थरमस नाँहि

    बाहर से ठंढ लागइ

    भीतर मुलु झुलस भरी,

    हियाँ लोहे की लोटिया हुइ

    जसि वह बाहर

    तसि वह भीतर।

    हियाँ अस उजरे नांहि

    जो भीतर ते काले होंइ

    बिष मा ढाले होंइ।

    हियाँ केरे घरन मा

    नखत उजेरु करइँ

    साँझ ते सुबह तकु

    स्नेह के दिया बरइँ

    जौनु रातिय के संग जरइँ

    रातिय के संग मरइँ

    हियाँ पानी मा बना भवा

    पनबिजली का बनुवा उजेरु नाँहि

    छन आवइ

    छन जाइ।

    हियाँ दूध मा पानी मिलइ

    पानी मा दूध नाँहि,

    छुट्टा रवि आवइ हियाँ,

    छुट्टा ससि गावइ हियाँ

    मुफत बयार बहइ,

    हियाँ सब हँसइ हंस,

    मछरी के घातन मा

    बगुला बइठ रहइँ,

    जुगाधिन के बाग हियां

    कहे जाति नौधे हइँ

    घास के घरौंदे हइँ।

    सुनहरे पंख वाली

    हियाँ सूरपणखा

    सीता का सतावइ,

    भूलिउ के स्वर्ण मृग आवइ

    हियाँ बालि

    आड़ राखि मारे जाँइ

    हियाँ पत्थर पगन ते तारे जाँइ

    हियाँ विभीषण अस भेदी उपजइ नाँइँ

    हियाँ बालक बदे

    चक्रव्यूह सजइ नाँइँ,

    हियाँ सभा के बीच मा

    द्रोपदी निर्वसन होइ

    अस नाँहि-अस नाँहि।

    शिखण्डी की वाट ते

    पितामह छरन होइ

    अस नाँहि, अस नाँहि

    शकुनी के पांसे हियाँ

    ऐसे हारे जाँइँ

    कवच-कुंडल माँगि-माँगि

    करण मारे जाइँ

    हियाँ फूलन के गुच्छा ते

    सर्प उपजइ नाँहि

    पानी के भीतर कबहुँ

    आगि हियाँ लगइ नाँहि।

    हियाँ साँपन की झाड़ी नाँहि,

    जहाँ जीभन की लपालपी,

    हियां पिता-पुत्रइ मा

    कैसिउ तपातपी,

    हियाँ कारे नाग हैं

    जौन डसइँ याक बार

    हियाँ सफेद साँप नाँहि

    जौन डसइँ बार-बार

    हियाँ काबि उपजति हइ

    वह गढ़ी जाइ,

    नमकु मिर्च सेने

    वह मढ़ी जाइ

    जस की तस पढ़ी जाइ

    साँचुइ साँचु गावा जाइ

    लोनु लगावा जाइ

    आगी पर राँधा जाइ

    सांचे मा बाँधा जाइ

    पूर-पूर छुट्टा फिरइ

    पूर-पूर छुट्टा चरइ

    तबहें वहु रसु-भरा

    तबहें वहु चरपरा,

    घुसि जाइ अन्तर मा

    मन कइहाँ छोरि देइ,

    जिय का मरोरि देइ,

    हियाँ अस महाकवि

    जौन नभ मा बिहार करइँ,

    हियाँ घाघ भड्डरी

    तुलसी-कबीरदास

    मन मा उतरि परइँ

    मन मा घुसरि परइँ।

    हियाँ कुछु झाँपा नाँहि

    खुलि के कबीर होंइँ

    सबद सब तीर होइँ,

    हियाँ “फागु गावा जाइ

    आल्ह मचावा जाइ

    होरी मनु रौंदि देइ

    चैता चित्तु सौंदि देइ

    बिना छन्द-बन्द केरे

    सावन गाये जाँइँ।

    तुलसी बँचाये जाँइँ,

    भादौं के महीना मइहाँ

    कजरी कजरारी होइ,

    पिया की दुलारी होइ,

    रसुइ उड़िलि परइ,

    काम-रस- केलि करइ,

    मदन म्याला देखि

    देवतउ चकचौंधे हैं

    घास के घरौंदे हैं।

    स्रोत :
    • पुस्तक : घास के घरउँदे (पृष्ठ 30)
    • रचनाकार : श्यामसुंदर मिश्र ‘मधुप’
    • प्रकाशन : आत्माराम एण्ड संस, कश्मीरी गेट, दिल्ली
    • संस्करण : 1991

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