जायसी प्रेम के कवि के रूप में विख्यात हैं। उनके अनुसार संसार में प्रेम से अधिक सुंदर और काम्य कुछ भी नहीं है।
हमारे अधिकांश उपन्यास अति सामान्य प्रश्नों (ट्रीविएलिटीज) से जूझते रहते हैं और उनसे हमारा अनुभूति-संसार किसी भी तरह समृद्ध नहीं होता।
जायसी की दृष्टि में प्रेम अत्यंत गूढ़ और अथाह है। ज़ाहिर है, ऐसे प्रेम की कविता लिखना भी आसान नहीं होगा।
सबसे पहली कमी तो हमारे उपन्यासों में चिंतन और वैचारिकता की ही है।
हमारे साहित्य में एक बहुचर्चित स्थापना यह है कि भारतीय उपन्यास मूलतः किसान चेतना की महागाथा है—वैसे ही जैसे उन्नसवीं सदी के योरोपीय उपन्यास को मध्यम वर्ग का महाकाव्य कहा गया था।
महाकवि विद्यापति मध्यकाल के पहले ऐसे कवि हैं, जिनकी पदावली में जन-भाषा में जनसंस्कृति की अभिव्यक्ति हुई है।
दूसरे कवि अधिक-से-अधिक आँसुओं से प्रेम की कविता लिखते हैं, लेकिन जायसी ने आँखों से टपकने वाले लहू से प्रेम की कविता लिखी है।
समकालीनता की मारी आज की हिंदी आलोचना ने, कबीर को आध्यात्म-प्रेमी विदेशियों तथा उनके देशी सहयोगियों को सौंप दिया है, और तुलसीदास को 'जय श्रीराम' का नारा लगाने वाले शाखामृगों की मर्ज़ी पर छोड़ दिया है।
उपन्यास की पूरी संभावनाओं का अभी भी हमारे यहाँ दोहन होना है।
जो सार्थक है, वही समकालीन है—वह नया हो या पुराना।
‘मैला आँचल’ के साथ ही हिंदी में उपन्यासों में एक नई कोटि का प्रचलन होता है, जिसे ‘आंचलिक’ कहते हैं।
'पद्मावत' में प्रेम की प्रधानता निर्विवाद है, परंतु उस प्रेम के स्वरूप के बारे में मतभेद है। विवाद का विषय यह है कि वह प्रेम मूलतः लौकिक है या अलौकिक।
आज हम जिसे भारतीय संस्कृति कहते हैं, उसके निर्माण में भक्ति आंदोलन की अत्यंत महत्त्वपूर्ण भूमिका है।
भक्तिकाव्य की एक विशेषता हिंदी भाषा के काव्यत्व का उत्कर्ष है।
सूर को कबीर की तरह वात्सल्य और माधुर्य की अभिव्यक्ति के लिए; बालक तथा बहुरिया बनने की आवश्यकता नहीं है, और जायसी की तरह प्रेम की अलौकिक आभा दिखाने की चिंता भी नहीं।
हिंदी आलोचना में सबसे पहले आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने निर्गुण संतों के विरुद्ध सगुण भक्तों को खड़ा किया। उन्होंने निर्गुण संतों को लोक-विरोधी और सगुण भक्तों को लोक-संग्रही घोषित किया।
कबीर ऐसे कवि हैं, जिन्हें किसी तरह की सांप्रदायिकता और कट्टरता न तो अपना बना सकती है और न पचा सकती है।
कबीर प्रत्येक लौकिक और अलौकिक वस्तु को जुलाहे की नज़र से देखते हैं। उनके लिए ईश्वर भी एक बुनकर ही है और उसकी यह दुनिया तथा मानव काया—‘झिनी-झिनी बीनी चदरिया है।’
हिंदी क्षेत्र में अभी सामंती मूल्यों और रूढ़ियों का जितना अधिक प्रभाव है, उतना देश के किसी अन्य भाग में शायद ही कहीं हो। इसलिए यहाँ स्त्रियों का जैसा शोषण, दमन और उत्पीड़न है—वैसा अन्यत्र कहीं नहीं।
हिंदी के भक्तिकाव्य में अनेक स्वर है। सगुण भक्तों का स्वर निर्गुण संतों से भिन्न है।
भक्तिकाव्य का प्रेम, भक्ति आंदोलन की विभिन्न धाराओं को आपस में मिलाता है। वह वैष्णवों को सूफ़ियों से और निर्गुण संतों को सगुण भक्तों से जोड़ता है। कहीं वह सामाजिक मूल्य है, तो कहीं सामाजिक कर्त्तव्य।
भक्ति आंदोलन के व्यापक और स्थाई प्रभाव का एक कारण यह है कि उसमें भारतीय संस्कृति के अतीत की स्मृति है, अपने समय के समाज तथा संस्कृति की सजग चेतना है और भविष्य की गहरी चिंता भी है।
सूरदास की सौंदर्य चेतना की विकसित अवस्था, राधा के सौंदर्य-चित्रण में दिखाई पड़ती है।
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मीरा का विद्रोह एक विकल्पविहीन व्यवस्था में, अपनी स्वतंत्रता के लिए विकल्प की खोज का संघर्ष है।
तुलसीदास जिस वैदिक और पौराणिक परंपरा की रक्षा के लिए निर्गुण की आलोचना करते हैं, उसमें विरोधी विचारों के साथ ऐसा व्यवहार बहुत पहले से होता आया है।
सूरदास मूलतः रूप और प्रेम के कवि हैं। रूप के अंकन और प्रेम की साधना में ही उनकी चित्तवृत्ति विशेष रमी है।
सूरदास जिस सामंती समाज में रचना कर रहे थे, उसमें मनुष्य से अधिक व्यवस्था के बंधनों का महत्त्व था। उनकी रचना में सामंती व्यवस्था के बंधनों से मुक्ति के लिए बेचैन मनुष्य का चरित्र उभरता है।
'पद्मावत' का अंतर्लोक भी लोक-अनुभवों से भरा हुआ है।
कवि के अनुभव का विषय होकर ही कोई विषयवस्तु काव्यवस्तु बनती है, लेकिन कवि उसे अपनी रचना के उद्देश्य और अभिव्यक्ति के अनुरूप पुनर्निर्मित करता है।
कबीर ने जीवनभर जिन धार्मिक और सामाजिक रूढ़ियों का विरोध किया, उन्हीं में कबीर को क़ैद करने की कोशिश कबीरपंथियों ने की है।
सूरसागर में परंपरा और लोकजीवन से कृष्णकथा को ग्रहण कर, सूरदास ने अपनी कारयित्री प्रतिभा के सहारे उसका नया रूप निर्मित किया है।
कबीरपंथ में कबीर के विचारों की दुर्गति के इतिहास से साबित होता है कि कोई क्रांतिकारी विचारधारा विरोधियों की आलोचनाओं से नहीं मरती, वह इतिहास-प्रक्रिया से बेख़बर अनुयायियों की अंधश्रद्धा, कट्टरवादिता और महत्त्वाकांक्षा से मरती है।
भक्ति आंदोलन, जनसंस्कृति के अपूर्व उत्कर्ष का अखिल भारतीय आंदोलन है। ऐसे आंदोलन में अनेक स्वरों का समावेश कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
हिंदी ही नहीं, कोई भी भाषा जब दफ़्तरों में घुसती है तो उसका एक बँधा-बँधाया शब्द-जाल विकसित होता है—वह टकलाली स्वरूप ग्रहण कर लेती है।
'पद्मावत' का प्रेम असाधारण ज़रूर हैं, लेकिन अलौकिक नहीं।
सूर का काव्य, हिंदी जाति के सामाजिक-सांस्कृतिक इतिहास से दिलचस्पी रखने वालों के लिए विशेष महत्त्वपूर्ण है।
मीरा के काव्य में रूढ़िवादी लोकमत का विरोध अत्यंत उग्र है, लेकिन उसमें शास्त्रमत की कोई चिंता नहीं है। न उसका कहीं विरोध है और न कहीं सहारा। उसके आकर्षण, भय और भ्रम से पूरी तरह मुक्त है—मीरा की कविता।
सूरदास का सूरसागर लीलारस का तरंगायित सागर है, जिसमें प्रेम की धाराओं के लयात्मक नर्तन में भक्ति की आत्मा का संगीत सुनाई पड़ता है।
पद्मावती के रूप, स्वभाव और व्यवहार में कहीं-कहीं असाधारणता ज़रूर आती है, लेकिन वह प्रेमिका, पत्नी और सौत के रूप में अधिकतर साधारण स्त्री की तरह व्यवहार करती है।
आचार्य शुक्ल ने लिखा है कि 'सूर की बड़ी भारी विशेषता है नवीन प्रसंगों की उद्भावना।' आचार्य रामचंद्र शुक्ल का यह कथन सूर-साहित्य के अध्येताओं को पूर्णतः सच प्रतीत होता है।
भारतीय भाषाओं में जब साहित्यकार के संघर्षशील क्षणों या उसकी गर्दिश के दिनों का प्रसंग उठता है, तो वह प्रायः उसकी ग़रीबी या अभाओं का प्रसंग होता है—अपने परिवेश से टकराने या रचना-प्रक्रिया के तनावों को झेलने का नहीं।
कबीरदास अगर केवल आलोचना और प्रश्न करने तक सीमित रहते तो; वे अधिक से अधिक असहमति और विरोध के कवि होते, जैसा कि कुछ लोग कहते हैं। लेकिन वे केवल असहमति और विरोध के कवि नहीं है।
हिंदी-क्षेत्र का दलित आंदोलन, कबीर से प्रेरित और प्रभावित होता रहा है।
अँग्रेज़ी शब्द-समूह का हूबहू हिंदी अनुवाद निरर्थक ही नहीं—विपरीत अर्थ सृजित करनेवाला भी हो सकता है। वास्तव में भाषा का विकास ऐसे कृतिम उपायों से नहीं, संस्कृति और चिंतन के विकास के अनुरूप ही होता है।
‘शेखर : एक जीवनी’ के प्रकाशन से हिंदी उपन्यास अपनी अनेक पुरानी सीमाओं को पीछे छोड़ देता है, उपन्यास विधा एक विस्तीर्ण फ़लक हासिल करती है, उसे एक मुक्ति का एहसास होता है; उपन्यास अब घटनाओं का संपुँजन भर नहीं रहा, न चरित्रों की अंतिम परिणति पर आधारित एक नीति कथा और न कोई जीवन-दृष्टि भर। वह अब जीवन का समग्र अनुभव बन गया, एक समानांतर संसार, जिसमें हम स्वयं अपनी जटिल अनुभूतियों को पहचान सकते हैं—और सरंचना की दृष्टि से वह एक साथ कथा जीवनी, चिंतन, दार्शनिक विश्लेषण, काव्य, महाकाव्य बन गया।
कुछ लोग समझते हैं कि संत काव्य केवल असहमति और विरोध का काव्य है—यह संत काव्य की अधूरी समझ का परिणाम है।
भारतीय साहित्य और कलाओं के मूल में जो स्थायी भाव माने गए हैं, वे केवल विक्षिप्तों की विवेक भावनाएँ नहीं हैं—उनके साथ ज्ञान-शक्ति का भी समन्वय है।
सुविधावादी होने का आरोप तो बकवास है, पर प्रतिष्ठानवाली दिक़्क़त काफ़ी असली है। प्रतिष्ठान के साथ लेखक का; सृजनशील लेखक का संबंध, निश्चय ही ऐसी समस्याओं और तनावों को उभारता है जिन्हें वाग्पटुता से नहीं टाला जा सकता।
मानव का रूप और तत्संबंधी भावना, जो हमें रीतिकाल में दिखाई देती है—वह उत्थानशील समाज की विशेषता कदापि नहीं हो सकती।
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अगर भारतीय उपन्यास की कोई स्पष्ट पहचान करनी हो—उसकी जटिलता के बाबजूद—तो ‘मैला आँचल’ उसका सशक्त संकेतक है।
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