देशभक्ति पर उद्धरण
देश के प्रति आस्था,
अनुराग और कर्तव्यपरायणता ही नहीं, देश से अपेक्षाओं और समकालीन मोहभंग के इर्द-गिर्द देशभक्ति के विस्तृत अर्थों की पड़ताल करती कविताओं से एक चयन।
देशप्रेम है क्या? प्रेम ही तो है। इस प्रेम का आकलन क्या है? सारा देश अर्थात् मनुष्य, पशु, पक्षी, नदी, नाले, वन, पर्वत सहित सारी भूमि। यह साहचर्यगत प्रेम है।
देश-प्रेम हो और भाषा-प्रेम की चिंता न हो, यह असंभव है।
मानव को अपने राष्ट्र की सेवा के ऊपर किसी विश्व-भावना व आदर्श को पहला स्थान नहीं देना चाहिए।... देशभक्ति तो मानवता के लक्ष्य विश्वबंधुत्व का ही एक पक्ष है।
मेरी देशभक्ति कोई वर्जनशील वस्तु नहीं है। वह तो सर्वग्रहणशील है और मैं ऐसी देशभक्ति को स्वीकार नहीं करूँगा जिसका उद्देश्य दूसरे राष्ट्रों के दुख का लाभ उठाना या उनका शोषण करना हो। मेरी देशभक्ति की जो कल्पना है वह हर हालत में हमेशा, बिना अपवाद के समस्त मानव-जाति के व्यापकतम हित के अनुकूल है। यदि ऐसा न हो तो उस देशभक्ति का कोई मूल्य नहीं होगा। इतना ही नहीं, मेरा धर्म तथा धर्म से नि:सृत मेरी देशभक्ति, समस्त जीवों को अपना मानती है।
जो हृदय संसार की जातियों के बीच अपनी जाति की स्वतंत्र सत्ता का अनुभव नहीं कर सकता, वह देशप्रेम का दावा नहीं कर सकता।
देशभक्त, जननी का सच्चा पुत्र है।
अपने देश या अपने शासक के दोषों के प्रति सहानुभूति रखना या उन्हें छिपाना देशभक्ति के नाम को लजाना है, इसके विपरीत देश के दोषों का विरोध करना सच्ची देश-भक्ति है।
ख़ून का वह आख़िरी क़तरा जो वतन की हिफ़ाज़त में गिरे दुनिया की सबसे अनमोल चीज़ है।
देशभक्त स्वदेश के लिए जीता है क्योंकि उसे जीना ही चाहिए, स्वदेश के लिए ही मर जाता है क्योंकि देश की यह माँग होती है।
मेरी देशभक्ति वर्जनशील भी है और ग्रहणशील भी। वर्जनशील इस अर्थ में है कि मैं संपूर्ण नम्रता के साथ अपना ध्यान केवल अपनी जन्मभूमि की सेवा में लगाता हूँ और ग्रहणशील इस अर्थ में है कि मेरी सेवा में स्पर्धा या विरोध का भाव बिल्कुल नहीं है।
मैं देश-प्रेम को अपने धर्म का ही एक हिस्सा समझता हूँ। उसमें सारा धर्म नहीं आता, यह बात सही है। लेकिन देशप्रेम के बिना धर्म का पालन पूरा हुआ कहा नहीं जा सकता।
यदि किसी देशभक्त में मानवीयता कम है तो समझना चाहिए कि उसकी देशभक्ति में भी उस हद तक कभी है।
हम तो भारतीय भाषाओं का पढ़ाना आवश्यक इसलिए मानते हैं कि अपनी भाषा के ज्ञान के बिना कोई सच्चा देशभक्त बन ही नहीं सकता। मातृभाषा के ज्ञान के बिना कोई सच्चा देशभक्त बन ही नहीं सकता। मातृभाषा के ज्ञान के बिना हमारे विचार विकृत जाते हैं और हृदय से मातृभूमि का स्नेह जाता रहता है। भारत के साहित्य और धर्मों को विदेशी भाषा के माध्यम से कभी नहीं समझा जा सकता।
तत्त्वतः देशभक्ति का अर्थ है देश से प्रेम। और एडमंड बर्क के शब्दों का प्रयोग करते हुए हम कहें तो "यदि तुम्हें अपने देश से प्रेम करना है तो देश को सुंदर होना ही चाहिए।" यदि हमारा देश उन मानदंडों पर खरा नहीं उतरता जिनसे उसकी जनता उससे प्रेम करे तो हमें उसकी सहायता करनी चाहिए जिससे वह उन मानदंडों पर खरा उतर सके।
देशभक्त व्यक्ति सदैव यही डींग मारता है कि हम चाहें कहीं चले जाए पर सर्वोत्तम देश तो मेरा स्वदेश ही है।
देश भक्ति मनुष्य का पहला गुण है। इसके बिना वह संसार में सिर उठाकर नहीं चल सकता।
उस देशभक्ति का त्याग करना चाहिए जो दूसरे राष्ट्रों को आफ़त में डालकर बड़प्पन पाना चाहती है।
भारतीय जीवन धीरे-धीरे जीने का जीवन है। उसमें उद्वेग और आवेग नहीं, संतोष और शांति ही उसके मूल आधार हैं।
मनुष्यता सब प्रकार की देशभक्ति और देशाभिमान के भावों से ऊँची चीज़ है।
अपनी सृष्टि-शक्ति से देश को अपना बनाने का आह्वान, बहुत बड़ा आह्वान है।
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कुछ लोग ऐसे हैं, जिनके लिए देशभक्ति का अर्थ केवल भूतकाल के गए-बीते गौरव की निरंतर डींगें मारना भर है। ये दिवालिये साहूकार हैं जो बहुत पुराने बहीखातों पर, जो कि अब व्यर्थ हैं, गहरी देखभाल करते हैं।
मनुष्यता ही ऊँची देशभक्ति है।
मैं भारतवर्ष, समस्त भारतवर्ष, हूँ। भारत-भूमि मेरा अपना शरीर है। कन्याकुमारी मेरा पाँव है। हिमाचल मेरा सिर है। मेरे बालों में श्रीगंगाजी बहती हैं। मेरे सिर से सिंधु और ब्रह्मपुत्र निकलते हैं। विन्ध्याचल मेरी कमर के गिर्द कमरबंद है। कुरुमंडल मेरी दाहिनी ओर मलाबार मेरी बाई जंघा (टाँगें) है। मैं समस्त भारतवर्ष हूँ, इसकी पूर्व और पश्चिम दिशाएँ मेरी भुजाएँ हैं, और मनुष्य जाति को आलिंगन करने के लिए मैं उन भुजाओं को सीधा फैलाता हूँ। आहा ! मेरे शरीर का ऐसा ढाँचा है? यह सीधा खड़ा है और अनन्त आकाश की ओर दृष्टि दौड़ा रहा है। परंतु मेरी वास्तविक आत्मा सारे भारतवर्ष की आत्मा है। जब मैं चलता हूँ तो अनुभव करता हूँ कि सारा भारतवर्ष चल रहा है। जब मैं बोलता हूँ तो मैं मान करता हूँ कि यह भारतवर्ष बोल रहा है। जब मैं श्वास लेता हूँ, तो महसूस करता हूँ कि यह भारतवर्ष श्वास ले रहा है। मैं भारतवर्ष हूँ, मैं शंकर हूँ, मैं शिव हूँ।
अगर कोई आदमी चाहे तो वह अपनी रोज़ी कमाने के लिए, कहीं पर नौकरी करते हुए भी अपने देश की सेवा कर सकता है।
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मेरा यह विश्वास अधिकाधिक बढ़ता जाता है कि जिसने अपने धर्म को नहीं जाना है, वह सच्ची देशभक्ति को भी नहीं जान सकता।