
घर आए व्यक्तियों को प्रेमपूर्ण दृष्टि से देखे, मन से उनके प्रति उत्तम भाव रखे, मीठे वचन बोले तथा उठकर आसन दे। गृहस्थ का सही सनातन धर्म है। अतिथि की अगवानी और यथोचित रीति से आदर सत्कार करे।

जिस गृहस्थ का अतिथि पूजित होकर जाता है, उसके लिए उससे बड़ा अन्य धर्म नहीं है-मनीषी पुरुष ऐसा कहते हैं।


समग्रता में भाषा, रूपक की सतत प्रक्रिया है। अर्थ-मीमांसा का इतिहास, संस्कृति के इतिहास का एक पहलू है। भाषा एक ही समय में एक जीवित वस्तु, जीवन और सभ्यताओं के जीवाश्मों का संग्रहालय है।

पुरुष-संस्कृति पारस्परिकता के बिना स्त्रियों की भावनात्मक ताक़त पर पोषित होने वाली परजीवी संस्कृति थी और है।

जब हम अपने वैश्विक दृष्टिकोण में चंद्रमा के अँधेरे पक्ष को शामिल कर लेंगे, केवल तभी हम सर्वव्यापी संस्कृति पर गंभीरता से बात कर सकते हैं।

भाषा बोलना एक दुनिया और एक संस्कृति को अपनाना है।

संस्कृति एक विशेषाधिकार है। शिक्षा एक विशेषाधिकार है। पर हम नहीं चाहते कि ऐसा हो। संस्कृति के सामने सभी युवा एक समान होने चाहिए।

बोलने का मतलब है… सबसे बढ़कर किसी संस्कृति को ग्रहण करना, सभ्यता के भार को सहारा देना।

हमारी संस्कृति ने सिर्फ़ मिलनसार होने को गुण बना दिया। हमने आंतरिक यात्रा, केंद्र के लिए खोज को हतोत्साहित कर दिया है। हमने अपनी जड़ को खो दिया है। उसे फिर से तलाश करना है।

भारत के वक्ष पर असम एक विशिष्ट देश है। यहाँ की रीति-नीति, जीवन-गति भी विशिष्ट है। आदि-सभ्यता से ही असम ने अपना विक्रम, नाम और सम्मान उज्ज्वल कर रखा है। रीति-नीति, संस्कृति सभ्यता, वेश-भूषा आदि में अपनी विशिष्ट नीति को अपनाए हुए सुप्राचीन असमिया जाति अपने संपूर्ण इतिहास में आत्म-सम्मान के कारण सम्मानित है।
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जिस गृहस्थ के घर से अतिथि निराश होकर लौट जाता है, वह उस गृहस्थ को अपना पाप देकर उसका पुण्य ले जाता है।

नए ज्ञान के प्रति भारत हमेशा ही उदार रहा है। नये धर्मों, नई संस्कृतियों और नई विचारधाराओं को अपना कर भारत भी परिवर्तित होता रहा है, लेकिन विचित्रता की बात यह है कि भारत जितना ही बदलता है, उतना ही वह अपने आत्मस्वरूप के अधिक समीप पहुँच जाता है।

जिस प्रकार की संस्कृति होती है, उसके अनुरूप ही विद्रोही-साहित्य उसमें निर्मित होता है।

पश्चिम में जो चीज़ें अच्छी हैं, वह उनसे लीजिए। संस्कृति में सदैव आदान-प्रदान होता आया है; लेकिन अच्छी नकल तो मानसिक दुर्बलता का ही लक्षण है।

संस्कृति एक अलग चीज़ है। यह एक संगठन है, व्यक्ति के अंतस का अनुशासन, अपने व्यक्तित्व से सामन्जस्य की एक स्थिति; यह एक उच्चतर जागरूकता की स्थिति है, जिसकी सहायता से व्यक्ति

संस्कृति एक विशेषाधिकार है। शिक्षा एक विशेषाधिकार है। पर हम नहीं चाहते कि ऐसा हो। संस्कृति के सामने सभी युवा एक समान होने चाहिए।

भारतीय जीवन धीरे-धीरे जीने का जीवन है। उसमें उद्वेग और आवेग नहीं, संतोष और शांति ही उसके मूल आधार हैं।

अपने स्वरूप को भूलकर यदि भारतवासियों ने संसार में सुख-समृद्धि प्राप्त की तो क्या? क्योंकि उन्होंने उदात्त वृत्तियों को उत्तेजित करने वाली बँधी-बँधाई परंपरा से अपना संबंध तोड़ लिया, नई उभरी हुई इतिहास-शून्य जंगली जातियों में अपना नाम लिखाया।

भारतीय इतिहास अत्यंत दुर्गम है। इसका शोध केवल इतिहास का विवेचन नहीं है, वह मनुष्य की समस्त वासनाओं और अपूर्णता तथा पूर्णताओं के क्रमिक विकास का अध्ययन है, जो बाह्य रूप में सभ्यता है ओर आंतरिक रूप में अध्यात्म की उन्नति है।
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विदेशी कच्चा रंग एक चढ़ा, एक छूटा, पर भीतर जो पक्का रंग था, वह बना रहा। हमने चौड़ी मोहरी का पायजामा पहना, आदाब अर्ज किया, पर 'राम-राम' न छोड़ा। अब कोट-पतलून पहनकर बाहर 'डैम नान्सेंस' कहते हैं, पर घर में आते ही फिर वही 'राम-राम'।