वेद और लोक, इन दोनों के बीच संवाद के द्वारा भारतीय संस्कृति का विकास हुआ है। कभी तनाव भी रहा है, द्वन्द भी रहा है लेकिन चाहे वह द्वन्द हो, चाहे वह तनाव हो—इन सबके साथ बराबर एक संवाद बना रहा हैं।
आर्य संस्कृति और आर्यों में ‘ऋग्वेद’ का प्रमुख देवता इन्द्र था। यद्यपि ब्रह्मा, विष्णु, महेश—तीनों का नाम लिया जाता है। ब्रह्मा की महिमा धीरे-धीरे घटती गई। इन्द्र की महिमा घटती गई और कृष्ण आते गए। इसका मूल स्रोत कहीं लोकजीवन से जोड़कर देखना चाहिए।
लेखक का कर्तव्य है पाठक को अपनी भाषिक संस्कृति से जोड़ना।
जनसंघ के अंधविश्वासी लोग कहते हैं कि गाय भारतीय संस्कृति की अंग है, तो वह जानते नहीं कि अनजाने में कितनी बड़ी सच्चाई कह गए हैं।
आज भारत की सारी व्यवस्था, अर्थ, राजनीति, शिक्षा, संस्कृति और साहित्य, प्रत्येक क्षेत्र में ‘छिन्नमूल’ नवशिक्षित बुद्धजीवियों के हाथ में आ गई है और वे जन्मतः भारतीय होते हुए भी मानसिक बौद्धिक रूप से ‘आउट साइडर’ हैं।
ईश्वर के रूप में राम का परित्याग करके भारत का काम चल सकता है, लेकिन एक संस्कृति-पुरुष के नाते, एक काव्य-प्रतीक के नाते, राम का परित्याग करके कैसे काम चल सकता है? एक नास्तिक, विदेशी समाजशास्त्री जितनी संवेदना राम के चरित्र को दे सकता है; यदि उतनी भी हम देंगे, तो क्या राष्ट्र को तोड़ने के पाप के भागी बनेंगे?
घर आए व्यक्तियों को प्रेमपूर्ण दृष्टि से देखे, मन से उनके प्रति उत्तम भाव रखे, मीठे वचन बोले तथा उठकर आसन दे। गृहस्थ का सही सनातन धर्म है। अतिथि की अगवानी और यथोचित रीति से आदर सत्कार करे।
जिस गृहस्थ का अतिथि पूजित होकर जाता है, उसके लिए उससे बड़ा अन्य धर्म नहीं है-मनीषी पुरुष ऐसा कहते हैं।
समग्रता में भाषा, रूपक की सतत प्रक्रिया है। अर्थ-मीमांसा का इतिहास, संस्कृति के इतिहास का एक पहलू है। भाषा एक ही समय में एक जीवित वस्तु, जीवन और सभ्यताओं के जीवाश्मों का संग्रहालय है।
मूलतत्त्व की बहुविध कल्पना, मीमांसा और दर्शन—भारतीय संस्कृति और साहित्य का व्यापक सत्य है।
पुरुष-संस्कृति पारस्परिकता के बिना स्त्रियों की भावनात्मक ताक़त पर पोषित होने वाली परजीवी संस्कृति थी और है।
संस्कृति के मूल बीज कभी मरते नहीं हैं।
संस्कृति एक विशेषाधिकार है। शिक्षा एक विशेषाधिकार है। पर हम नहीं चाहते कि ऐसा हो। संस्कृति के सामने सभी युवा एक समान होने चाहिए।
भाषा बोलना एक दुनिया और एक संस्कृति को अपनाना है।
जब हम अपने वैश्विक दृष्टिकोण में चंद्रमा के अँधेरे पक्ष को शामिल कर लेंगे, केवल तभी हम सर्वव्यापी संस्कृति पर गंभीरता से बात कर सकते हैं।
मानवीय शरीर की भाँति संस्कृति का शरीर भी जड़ और चेतन के संयोग से निर्मित होता है।
बोलने का मतलब है… सबसे बढ़कर किसी संस्कृति को ग्रहण करना, सभ्यता के भार को सहारा देना।
हमारी संस्कृति ने सिर्फ़ मिलनसार होने को गुण बना दिया। हमने आंतरिक यात्रा, केंद्र के लिए खोज को हतोत्साहित कर दिया है। हमने अपनी जड़ को खो दिया है। उसे फिर से तलाश करना है।
कृषिप्रधान संस्कृति में महत्त्वाकांक्षा के पनपने की ज़्यादा जगह नहीं है।
काव्य केवल एक सीमित शिक्षा और संस्कार नहीं है, वरन एक व्यापक भावात्मक और बौद्धिक परिष्करण (कल्चर) है—वह कल्चर, वह परिष्कृति, जो वास्तविक जीवन में प्राप्ति करनी पड़ती है।
समाज में गीत-वाद्य, नाट्य- नृत्य का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है, ये बड़ी मनोहर और उपयोगी कलाएँ हैं। पर हैं तभी, जब इन के साथ संस्कृति का निवास-स्थान पवित्र संस्कृत अंतःकरण हो। केवल 'कला' तो 'काल' बन जाती है।
प्रत्येक देश और समाज के मुहावरे उसकी सभ्यता, संस्कृति और ऐतिहासिक-भौगोलिक, स्थिति की उपज हैं। पर अँग्रेज़ी की नक़ल में भी हमें इसका भी ध्यान नहीं रहता।
भारतीय संस्कृति द्वारा विकसित की गई परंपराओं में से, एक परंपरा आत्मपरक काव्य की है।
धर्म का विनाश संभव है, लेकिन मनुष्य जाति की पुराण-चेतना का विनाश आज तक संभव नहीं हुआ।
शब्दों के भूल जाने का अर्थ होता है संस्कारों को भूल जाना।
सत्तातंत्र द्वारा तथाकथित ‘सांस्कृतिक विकास’ के नाम पर संस्कृति को संरक्षण दिए जाने के ख़तरे स्पष्ट हैं।
एक अतिवादी वर्ग ऐसा भी है जो सरकार से किसी संसाधन की भी अपेक्षा नहीं करता—संस्कृति के क्षेत्र को पूरी तरह सत्ता-निरपेक्ष बनाने के पक्ष में है।
विचार और कर्म के क्षेत्रों में राष्ट्र का जो सृजन है वही उसकी संस्कृति है।
प्रत्येक भाषा का मूल उसकी अपनी संस्कृति में बड़ी गहराई से जाता है जिसमें वह जन्म लेती है, यद्यपि उसका विकास देशकाल के मुक्त इतिहास में होता है।
जब भाषा अपने निजीपन को खोकर भी; लक्ष्य-भाषा-संस्कृति में अपने स्वभाव-गुणों को क़ायम रखती है, तभी अनुवाद अच्छा कहलाएगा।
गांगेय संस्कृति ही भारतीय संस्कृति का केंद्रीय रूप है और इस संस्कृति का ‘निमित्त कारण’ है ‘आर्य’ और उपादान कारण है ‘निषाद’ या ‘निषाद-द्राविड़’।
औरत पर संस्कृति का आतंक, हज़ारों साल पहले अग्नि-परीक्षा और चीरहरण जैसे प्रसंगों से स्थापित हो गया था।
भारत की राष्ट्रीय दार्शनिक आँख वेदांत दर्शन है और उस आँख का सारा तेज़ इसी बात पर अवलंबित है कि आत्मा चैतन्यमय है, वह अन्नमय शरीर से पृथक् सब प्राणियों में एक है, वहीं अंतिम मूल्यवान् तत्त्व है।
संस्कृति के रूप में भाषा इतिहास में लोगों के अनुभवों का सामूहिक स्मृति बैंक है।
मैं समझता हूँ कि किसी भी साहित्य का ठीक-ठाक विश्लेषण तब तक नहीं हो सकता, जब तक हम उस युग की मूल गतिमान सामाजिक शक्तियों से बननेवाले सांस्कृतिक इतिहास को, ठीक-ठाक न जान लें।
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आज़ादी मिलने के बाद हमने अपनी बहुत-सी सांस्कृतिक परंपराओं को फिर से खोदकर निकाला है। तभी हम हवाई जहाज़ से यूरोप जाते हैं, पर यात्रा का प्रोग्राम ज्योतिषी से बनवाते हैं; फॉरेन एक्सचेंज और इनकमटैक्स की दिक्क़तें दूर करने के लिए बाबाओं का आशीर्वाद लेते हैं, स्कॉच व्हिस्की पीकर भगंदर पालते हैं और इलाज के लिए योगाश्रमों में जाकर साँस फुलाते हैं, पेट सिकोड़ते हैं।
भारत के वक्ष पर असम एक विशिष्ट देश है। यहाँ की रीति-नीति, जीवन-गति भी विशिष्ट है। आदि-सभ्यता से ही असम ने अपना विक्रम, नाम और सम्मान उज्ज्वल कर रखा है। रीति-नीति, संस्कृति सभ्यता, वेश-भूषा आदि में अपनी विशिष्ट नीति को अपनाए हुए सुप्राचीन असमिया जाति अपने संपूर्ण इतिहास में आत्म-सम्मान के कारण सम्मानित है।
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भारतीय संस्कृति को अगर एक शब्द में वर्णित करना हो, तो वह शब्द है 'राम'।
भारतीय इतिहास अत्यंत दुर्गम है। इसका शोध केवल इतिहास का विवेचन नहीं है, वह मनुष्य की समस्त वासनाओं और अपूर्णता तथा पूर्णताओं के क्रमिक विकास का अध्ययन है, जो बाह्य रूप में सभ्यता है ओर आंतरिक रूप में अध्यात्म की उन्नति है।
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साहित्य यदि किसी राष्ट्र की संस्कृति का प्राण है और यदि संस्कृति चिरन्तन होती है, तो निस्सन्देह एक महान साहित्यिक की मान्यताएँ-विचारणाएँ चिरन्तन होती हैं।
पूर्व और नूतन का जहाँ मेल होता है, वहीं उच्च संस्कृति की उपजाऊ भूमि है।
भारतीय कला की शब्दावली और रूपों का संग्रह लोक-संस्कृति के उद्धार का आवश्यक अंग है।
मात्र शुद्र प्रज्ञा से केवल लोक-साहित्य प्रसूत होता है। मात्र ब्राह्मण प्रज्ञा से निर्वीर्य, सुनिपुण और परिष्कृत और स्नायुशक्तिहीन साहित्य की रचना होती है। इन दोनों का मिलन होने पर ही पूर्ण प्रज्ञा का साहित्य संभव हो पाता है।
हमारे देश की संस्कृति में मुस्लिम कभी भी अड़चन नहीं रहे।
जिस गृहस्थ के घर से अतिथि निराश होकर लौट जाता है, वह उस गृहस्थ को अपना पाप देकर उसका पुण्य ले जाता है।
तप की शक्ति के बिना भारतीय संस्कृति में जो कुछ ज्ञान है वह फीका रह जाता है।
पूँजीवाद एक बार सुप्रतिष्ठित हो जाने पर सांस्कृतिक क्षेत्र में सबसे पहले कविता पर हमला करता है।
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सांस्कृति भावों को ग्रहण करने के लिए बुलंदी, बारीकी और ख़ूबसूरती को पहचानने के लिए—उस असलियत को पाने के लिए जिसका नक़्शा साहित्य में रहना है—सुनने या पढ़नेवाले की कुछ स्थिति अपेक्षित होती है—वह स्थिति है उसकी शिक्षा, उसके मन का सांस्कृतिक परिष्कार।
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संस्कृति विश्व के प्रति अनंत मैत्री की भावना है।
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