समय पर उद्धरण
समय अनुभव का सातत्य
है, जिसमें घटनाएँ भविष्य से वर्तमान में गुज़रती हुई भूत की ओर गमन करती हैं। धर्म, दर्शन और विज्ञान में समय प्रमुख अध्ययन का विषय रहा है। भारतीय दर्शन में ब्रह्मांड के लगातार सृजन, विनाश और पुनर्सृजन के कालचक्र से गुज़रते रहने की परिकल्पना की गई है। प्रस्तुत चयन में समय विषयक कविताओं का संकलन किया गया है।
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‘तत्काल’ के सिवा और कोई काल चिंतनीय नहीं है।
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जितना कवि समय को, उतना ही समय कवि को गढ़ता है।
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समय बदलने पर लोगों की आँखें भी बदल जाती हैं।
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जिस तरह से तुम डॉलर और सेंट्स की माप करते हो उसी तरह से तुम समय को दिनों में माप नहीं सकते, क्योंकी डॉलर हर दिन एक जैसे होते हैं लेकिन हर दिन अलग होता है, हर पल अलग।
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पीते वक़्त भी निपट अकेला होता हूँ, लिखते वक़्त भी।
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हर वक़्त रिश्तेदारों और बच्चों के लिए तड़पने वाले बूढ़े सुखी नहीं होते।
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विचार और कलात्मकता के संतुलन पर ही आधुनिक कवि की सफलता या असफलता, शक्ति या दुर्बलता निर्भर करती है।
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अनंत के सापेक्ष में समय की संज्ञा, काल है तथा देश के सापेक्ष में काल की संज्ञा, समय है।
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समय या इतिहास में लौटना एक सैद्धांतिक संभावना तो है ही और समर्थ रचनाकारों के हाथों में यह एक सशक्त हथियार रहा है।
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सच तो यह है कि समय अपने बीतने के लिए किसी की भी स्वीकृति की प्रतीक्षा नहीं करता।
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वर्तमान ही मेरे शरीर का एकमात्र प्रवेश-द्वार है।
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यथार्थ का दर्पण जिस प्रकार जगत की बाह्य परिस्थितियाँ हैं, उसी प्रकार आदर्श का दर्पण मनुष्य के भीतर का मन है।
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मैं ऐसा मानता हूँ कि जैसे जैसे समय बीतेगा हम एक ऐसे मक़ाम पर पहुँच चुके होंगे जहाँ हम सरकार से मुक्ति पा चुके होंगे।
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यथार्थ! यह संसार का सबसे कठिन शब्द है। करोड़ों जीवन यथार्थ को समझते-समझाते बीत गए।
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लिखते समय सारा समय ही बहुत कम है, क्योंकि सड़कें अंतहीन लंबी हैं और रास्ते से कभी भी भटका जा सकता है।
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अतियथार्थ और अयथार्थ भी दरअसल यथार्थ हैं।
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यह सापेक्ष समय जब बीतता है तो हमें वैसे ही तराशता चलता है जैसे कि जल अपनी मसृणता में भी, कैसी ही चट्टान क्यों न हो, शताब्दियों तक टकराते-टकराते अंततः ढहा कर रख देता है।
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जब समय ही अपरिमेय है; तब काल और महाकाल क्या हैं, यह कोई नहीं जानता।
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क्षितिज तक समय है, परंतु क्षितिज के बाहर काल है।
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भोक्ता के लिए सारी व्याख्याएँ समय जैसी हो जाती हैं।
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समय बीत नहीं रहा था वह एक चक्कर में घूम रहा था।
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समय, समय ही से बना है और प्रत्येक वर्तमान जिसमें कुछ न कुछ घटता है वह भी(समय से ही बना है)..इसलिए कहीं कोई अनुक्रम नहीं है।
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नष्टकर्ता, नष्ट होने वाला तथा इस क्रिया का साक्षी भी केवल तत्त्व ही है।
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समय वह पदार्थ है जिससे मैं बना हूँ। समय कोई नदी है जो मुझे साथ बहाती है, लेकिन मैं ही नदी हूँ, शेर मेरा विनाश करता है, लेकिन मैं ही शेर हूँ; अग्नि मुझे भस्म करती है, लेकिन मैं ही अग्नि हूँ। संसार, दुर्भाग्यवश, वास्तविक है; मैं, दुर्भाग्यवश, बोर्खेज़ हूँ।
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बीतने मात्र का क्रियापद है—समय।
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जो कोई भी उसका उपयोग करेगा, उसके लिए समय काफ़ी लंबा रहता है।
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घड़ी नहीं थी। पर निरंतरता का बोध था। आकाश का होना निरंतर था। आकाश स्थिर पर उसका होना लगातार। स्थिर झरने में लगातार गिरते हुए पानी की निरंतरता।
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उपेक्षित उपस्थिति होने से आदमी को अदृश्य होने में समय नहीं लगता।
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निरंतरता समय का गोत्र है जैसे भारद्वाज गोत्र होता है।
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समय एक विह्वल नदी है, जो हमें अस्तित्व की धाराओं के बीच से ले जाती है।
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समय के बीतते जाने का मतलब, आनेवाला समय बीत जाएगा। यदि किसी के पास घड़ी नहीं तो क्या हुआ!