Font by Mehr Nastaliq Web

अंतिम शय्या पर रवींद्रनाथ

श्रावण-मास! बारिश की झरझर में मानो मन का रुदन मिला हो। शाल-पत्तों के बीच से टपक रही हैं—आकाश-अश्रुओं की बूँदें। उनका मन उदास है। शरीर धीरे-धीरे कमज़ोर होता जा रहा है। शांतिनिकेतन का शांत वातावरण अशांत हो रहा है। आश्रमवासी व्याकुल हैं। प्रसन्नता दूर चली गई है। शाल का शांत जंगल। खोयाई इलाक़े में बह रही है—गंभीर जलधार... कोपाई पानी से भरी हुई उच्छृंखल युवती-सी... श्रावण-वर्षा... लाल मुरम का रास्ता—सब कुछ विषण्ण! विषाद-छाया!

क्या वह स्वयं ठीक हैं? कोलकाता जाने की बात मन को भाती नहीं। चिकित्सा की ज़रूरत है, पर मन इतना व्याकुल क्यों? जैसे लगता हो कि उनके जी-जतन से रचे प्रिय शांतिनिकेतन में अब लौटना नहीं होगा। पूरब की खिड़की से आने वाली धूप से अब वह बात नहीं होगी। विकलता! हाथ काँपते हैं। वह अब लिख नहीं पाते। मांसपेशियाँ शिथिल हैं... फिर भी जीने की इच्छा है :

मरना नहीं चाहता हूँ मैं 
इस सुंदर पृथ्वी पर...

25 जुलाई 1941
एक उदास उषा! 

वह उदयन की खिड़की पर बैठे हैं। दूर से गीत की आवाज़ आती है : 

ए दिन आजि कोन घरे गो 
खुले दिल द्वार... 

आश्रमवासी विषाद भरे स्वर में गा रहे हैं! क्या यह अस्वस्थ शरीर स्वस्थ होगा? क्या वह शांतिनिकेतन में फिर लौट पाएँगे कभी? वह मृत्यु से नहीं डरते। इक्यासी साल के जीवन में मृत्यु का इतना खेल, इतना नृत्य; इतने प्रियजनों का विछोह देख चुके हैं—डर तो नहीं है! लेकिन फिर भी! तो क्या अब मृत्यु उन्हें बुला रही है? क्या मृत्यु माँ सदृश रूप लेकर, उन्हें ख़ुद की गोद में सुलाकर चिरनिद्रा में डुबा देगी?

वह थोड़ी देर आँगन में बैठे। काले चश्मे की आड़ में आँसू छिपे हैं। आश्रमवासी उन्हें घेरे हुए हैं। उनके हाथों से बना शांतिनिकेतन! क्या यह अंतिम विदाई है? रास्ते पर लोगों की भीड़। गाड़ी आम्रकुंज से होकर छातिम तले से गुज़रती है। आँखें आँसुओं से भीग जाती हैं। कमज़ोरी और कमज़ोरी! क्या यह अंतिम जाना है? वह बोलपुर स्टेशन से ट्रेन पकड़ते हैं—कोलकाता के लिए। खिड़की पर श्रावण-वर्षा अझोर धारा में बह रही है। 

...कोलकाता [जोड़ासाँको] पहुँचते ही शीतल हवा देह को स्पर्श करती है—मृत्यु की तरह सुशांत-सुशीतल!

जोड़ासांको—जहाँ रवींद्रनाथ का जन्म हुआ और मृत्यु भी...

हमें आगे का समय बताएगा कि यह यात्रा रवींद्रनाथ की आख़िरी यात्रा थी। वह लौट नहीं पाए—शांतिनिकेतन... लेकिन उनकी इच्छा थी कि वह शांतिनिकेतन के शांत वातावरण में लेटे रहें। जंगल-वृक्षों से झड़े पत्तों की सरसराहट में वह चिरनिद्रा में सो जाएँ। सूरज आए और खुले प्रांगण में अपनी गर्मी से उनके निर्जीव-पार्थिव शरीर को भर दे। उनकी श्वासहीन अचेतन देह को प्रकृति की उन्मुक्त हवा स्पर्श करे। वह चाहते थे कि उनकी मृत्यु शांत, सहज, सरल, सुंदर और पवित्र हो! शोर-शराबे से मुक्त शांतिनिकेतन की छाँव में वह चिरनिद्रा में विश्राम करें! लेकिन... कोलकाता ने उनकी उस आख़िरी इच्छा का भी सम्मान नहीं किया! 

...गुरुदेव को सब मिलकर नीचे ले गए। मैंने पहली मंज़िल के पत्थर के कमरे के पश्चिमी बरामदे से देखा—जनसमुद्र के ऊपर से जैसे एक फूलों की नौका पल भर में दृष्टि से ओझल हो गई।

‘गुरुदेव’, रानी चंद

रवींद्रनाथ चाहते थे कि मृत्यु के बाद उन्हें शांतिनिकेतन ले जाया जाए। वर्ष 1930 में 25 अक्टूबर को उन्होंने इंदिरा देवी को एक पत्र में इस विषय में विस्तार से लिखा था। उन्होंने कहा था, ‘‘मेरा श्राद्ध छातिम के पेड़ के नीचे बिना आडंबर के, बिना भीड़ के हो—शांतिनिकेतन के शाल-वनों के बीच मेरी स्मृति-सभा मर्मरित होगी, मंजरित होगी; जहाँ-जहाँ मेरे प्रेम की छाया है, वहीं-वहीं मेरा नाम रहेगा।’’

क्या उस दिन रवींद्रनाथ ने क्षण भर के लिए सोचा था कि उनकी इस अंतिम इच्छा का ज़रा-सा भी सम्मान नहीं किया जाएगा! भीड़ और उत्सव में डूबे लोग और आम बंगाली जन भी रवींद्रनाथ के स्मृति-चिह्नों को संग्रह करने की अश्लील लत में कवि के बाल, दाढ़ी, नाख़ून तक उनके शरीर से उखाड़ लेंगे!

रवींद्रनाथ का निर्जीव शरीर उनके परिजनों के हाथों से जनता ने छीन लिया था। आज यह सोचकर भी आश्चर्यचकित होना पड़ता है कि उस दिन रवींद्रनाथ के पुत्र तक उन्हें मुखाग्नि नहीं दे सके! उस भीड़ को चीरकर रथींद्रनाथ किसी भी तरह अपने पिता रवींद्रनाथ के पास नहीं पहुँच सके! उन्हें अपने पिता को मुखाग्नि देने का भी अवसर नहीं मिला।

रवींद्रनाथ ऑपरेशन नहीं चाहते थे, जबकि उनके शरीर की हालत गंभीर थी। डॉक्टर विधान चंद्र राय ऑपरेशन के पक्ष में थे, डॉक्टर नीलरतन सरकार ख़िलाफ़। रिश्तेदारों में मतभेद था। आख़िरकार ऑपरेशन का फ़ैसला हुआ, उन्हें बताए बिना... 

रवींद्रनाथ हँसी-मजाक और छंद-कविताओं से माहौल हल्का करने की कोशिश करते हैं। वह निर्मल कुमारी को ‘हेड नर्स’ कहते हैं और मुँह से छंद व्यक्त करते रहते हैं।

इधर जोड़ासाँको में ऑपरेशन थिएटर तैयार हो रहा है। एक अनजानी प्रतीक्षा में समय ठहर-सा गया है।

उस दिन यानी 22 श्रावण का सटीक विवरण मिलता है—निर्मल कुमारी महालनोबिस की ‘बाइशे श्रावण’ पुस्तक में। उन्होंने लिखा : 

जोड़ासांको के आँगन में उतरते ही देखा, जनसमुद्र को पार कर ऊपर जाना असंभव है। घर के दूसरे हिस्सों को जानती थी, इसलिए दूसरी ओर से सरलता से ऊपर पहुँच पाई। ...कमरे में जनसैलाब। ...जब रवींद्रनाथ के शव को स्नान कराया जा रहा था, नीचे की भीड़ में से एक समूह ऊपर आकर दरवाज़े को बाहर से खींचकर उसकी सिटकनी खोल कमरे में घुस पड़ा। क्या भयंकर अपमान था—यह कवि के चेतनाहीन शरीर का! ...अंदर से दरवाज़ा बंद होने के बावजूद हाथ से पकड़कर रोका गया था। फिर भी बाहर से ज़ोर-ज़ोर के झटकों और पागल चीख़ों की गूँज—‘‘दरवाज़ा खोलो, दरवाज़ा खोलो... हम देखेंगे।’’

उस दृश्य की कल्पना मात्र से ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं। उस दृश्य में ही संकेत था कि आगे क्या होने वाला है! निर्मल कुमारी आगे लिखती हैं : 

दुपहर तीन बजे के आस-पास अजनबी लोगों का एक समूह कमरे में घुसा और हमारे सामने से ही रवींद्रनाथ के पुष्पवेष्टित पार्थिव शरीर को उठा ले गया। मैं जहाँ बैठी थी, वहीं स्तब्ध बैठी रह गई और कानों में गूँजता रहा सिर्फ़—‘‘जय विश्वकवि की जय! जय रवींद्रनाथ की जय! वंदे मातरम्!’’

रवींद्रनाथ की भतीजी इंदिरा देवी से लेकर महान् वैज्ञानिक प्रशांत चंद्र महालनोबिस की पत्नी निर्मल कुमारी, सभी से रवींद्रनाथ ने बार-बार आग्रह किया था कि उनकी अंतिम इच्छा पूरी हो। लेकिन अंततः वह हो नहीं सका! इससे भी दुखद और अपमानजनक घटनाएँ वहीं खत्म नहीं हुईं। कवि की अंतिम यात्रा में भीड़ उमड़ पड़ी थी। निमतला घाट की ओर जाने वाला मार्ग ठसाठस भर गया। जैसा कि कहा गया भीड़ इतनी ज़्यादा थी : रवींद्रनाथ के पुत्र रथींद्रनाथ तक वहाँ पहुँच नहीं सके, और इसलिए वह मुखाग्नि भी नहीं दे पाए। अंत में यह कर्त्तव्य निभाया ठाकुर वंश के ही एक अन्य सदस्य सुवीरेंद्रनाथ ठाकुर ने, जो रवींद्रनाथ के नाती थे।

यों कहा जाता है कि कवि के शव को अंतिम प्रणाम करने के बहाने उनके पैर के नाख़ून तक उखाड़ लिए गए। किसी ने उनके बाल या दाढ़ी नोच ली—उद्देश्य था : ये सब अपने पास कवि-स्मृति-चिह्न के रूप में रखना! सोचिए! कहाँ तक जाती है मनुष्य की विचार और इच्छा-शक्ति! कहाँ रवींद्रनाथ के आस-पास होने चाहिए थे उनके अपने, जिन्होंने अंतिम क्षणों तक उनकी सेवा की और कहाँ उनसे सब कुछ छीन लिया गया—उनकी अंतिम इच्छा तक...

इस विषय में निर्मल कुमारी के लेख में गहरी पीड़ा झलकती है। शांतिनिकेतन के पूर्व छात्र प्रद्योत कुमार सेन से उन्होंने कहा कि कवि की अंतिम इच्छा के अनुसार उन्हें शांतिनिकेतन ले जाया जाए। लेकिन प्रद्योत कुमार थोड़ी देर बाद उन्हें जवाब देते हैं : ‘‘नहीं, रानी दी, नहीं हो सका! सब कह रहे हैं कि शांतिनिकेतन ले जाना संभव नहीं होगा। यहाँ सभी तैयारियाँ हो चुकी हैं।’’

रवींद्रनाथ ने अपने जीवन के पहले चरण में भले ही लिखा हो : 

मरना नहीं चाहता हूँ मैं 
इस सुंदर पृथ्वी पर...

लेकिन मध्य जीवन में आते-आते उन्होंने स्पष्ट कहा : 

वैराग्य-साधना में मुक्ति मेरी नहीं है...

वह फिर कभी मृत्यु को श्याम से जोड़कर एक आध्यात्मिक स्वरूप देते हैं। जीवन भर उन्होंने प्रियजनों की मृत्यु देखी, फिर भी जीवन के अंतिम पड़ाव में वह मृत्यु की ओर प्रत्यक्ष नहीं देखना चाहते थे। वह मृत्यु से भयभीत नहीं थे, पर जीवन के प्रति गहरी निष्ठा उन्हें जीवनोन्मुखी बनाए रखती थी।

वह चाहते थे कि रोग-शय्या से उठकर वह फिर रचनारत हों। वह जीवन को और कुछ क्षण और गहराई से देखें। इसलिए अंतिम दिनों में जो कुछ लोग उनके पास थे, उनसे वह हँसी-मज़ाक़ तक किया करते। उन्हें आश्रमिक कार्यक्रमों में और देश-विदेश के अतिथियों से मिलने में बहुत गहरी रुचि थी। पर उनका शरीर पूरी तरह जर्जर हो गया था—बिस्तरबंद और लगभग क़ैद। 

वर्ष 1916 से रवींद्रनाथ की चिकित्सा कर रहे थे—प्रसिद्ध डॉक्टर नीलरतन सरकार, जो कभी कवि की शल्य-चिकित्सा [ऑपरेशन] कराने के पक्ष में नहीं थे। कवि स्वयं भी ऑपरेशन कराना नहीं चाहते थे। जब डॉक्टर सरकार अपनी पत्नी के निधन के बाद गिरीडीह चले गए, उस समय एक और प्रसिद्ध चिकित्सक विधान चंद्र राय शांतिनिकेतन जाकर ऑपरेशन कराने की बात कह देते हैं। 

रवींद्रनाथ ऑपरेशन के बाद धीरे-धीरे और अधिक अस्वस्थ होते जा रहे थे। उन्हें होश नहीं था। जब सभी यह समझने लगे कि क्या होने जा रहा है, तभी गिरीडीह संदेश भेजकर कवि के घनिष्ठ मित्र और प्रतिष्ठित चिकित्सक नीलरतन सरकार को बुलाया गया। वह आकर कवि की नाड़ी जाँचते हैं, अत्यंत स्नेह से कवि के माथे पर हाथ फेरते हैं... फिर उठ खड़े होते हैं। बाहर निकलते समय डॉक्टर सरकार की आँखों में आँसू थे।

रवींद्रनाथ अक्सर कहते थे :

मृत्यु न हो तो जीवन का कोई अर्थ नहीं, और मृत्यु की पृष्ठभूमि के बिना जीवन में अमृत का बोध नहीं होता। यह जीवन-मृत्यु का खेल ही संसार को सत्य बनाता है।

रवींद्रनाथ ने जीवन में अनेक प्रियजनों की मृत्यु देखी; फिर भी वह इस पृथ्वी के रूप, रस, आनंद में जीना चाहते थे। अंतिम दिनों में उन्होंने अपने दुख-दर्द को कभी खुलकर नहीं बताया। उन्होंने अक्सर कहा, ‘‘गहरे दुःख के समय लेखन सहज रूप से आता है। शायद मन अपनी रचना-शक्ति में मुक्ति ढूँढ़ता है।’’

उनके नाती नीतींद्रनाथ की मृत्यु का समाचार पाकर जब कई लोगों ने वर्षामंगल कार्यक्रम रद्द करने को कहा, तब वह तैयार नहीं हुए। इस विषय में उन्होंने बेटी मीरा को लिखा, ‘‘नितु को बहुत चाहता था, और तेरे बारे में सोचकर गहरा दुःख बैठ गया था मन में। पर सबके सामने अपने गहनतम शोक को छोटा बनाना मुझे शर्मनाक लगता है। जब यही दुःख हमारे जीवन को पूरी तरह छिन्न-भिन्न कर देता है और सबका ध्यान आकर्षित करता है, तब वही दुःख छोटा बन जाता है।’’

इस कारण ही शायद रवींद्रनाथ अपने शारीरिक और मानसिक कष्टों को कभी ज़ाहिर नहीं करते थे। उनके ऑपरेशन के लिए जोड़ासांको को चमका कर साफ़ किया गया था। जीवाणुमुक्त किया गया था! डॉक्टर सत्येंद्रनाथ राय द्वारा ग्लूकोज़ इंजेक्शन देने के बाद उन्हें बुख़ार आ गया था। तेज़ बुख़ार! अगले दिन जब बुख़ार कटा, तब वह हँसते हुए रानी महालनोबिस से बोले, ‘‘जानती हो, आज सुबह फिर एक कविता हो गई। यह क्या पागलपन है बताओ? हर बार लगता है बस अब आख़िरी बार, लेकिन फिर एक और... इस आदमी का क्या किया जाए?’’

वह रचना थी—‘प्रथम दिनेर सूर्यो’ [प्रथम दिवस का सूर्य]। यह एक बहुत महत्त्वपूर्ण कविता है। 

ऑपरेशन से पहले उनकी अंतिम कविता उन्होंने रानी चंद को मुँहज़बानी सुनाई और कहा, “सुबह की कविता के साथ जोड़ देना।” फिर ऑपरेशन का समय जानकर रानी से बोले, “सुबह की कविता पढ़कर सुनाओ।” रानी ने ज़ोर से उनके कान के पास कविता पढ़ी, सुनने के बाद उन्होंने कहा, “कुछ गड़बड़ है... कोई बात नहीं, डॉक्टर लोग कहते हैं कि ऑपरेशन के बाद दिमाग़ और साफ़ हो जाएगा, तब उसे सुधार देंगे।”

ऑपरेशन के बाद पेशाब की तकलीफ़ हो गई, फिर भी थके शरीर में निर्मल कुमारी का चिंतित चेहरा देखकर उन्होंने ज़ोर से कहा, “हाः!”

वह हँस पड़ीं। कवि तुरंत बोले, “यही तो, ज़रा हँसो! इतना गंभीर चेहरा लेकर खड़ी हो जाती हो। इतनी गंभीर क्यों?”

इसके बाद हिचकी ने उन्हें बहुत परेशान किया। देशी नुस्ख़ा मिश्री और इलायची-पाउडर देने पर कुछ राहत मिली तो बोले, “आः! जान बची। तभी तो कहता हूँ, हेड नर्स चाहिए!”

अंततः आया 22 श्रावण, रक्षाबंधन का दिन!

रवींद्रनाथ को सुबह नौ बजे ऑक्सीजन दी गई। उन्हें अंतिम बार देखने आए डॉक्टर विधान चंद्र राय और ललित बंद्योपाध्याय। उनके कान के पास लगातार पढ़ा जा रहा था जीवन भर का उनका बीजमंत्र—“शांतम्, शिवम्, अद्वैतम्।” ...ऑक्सीजन की नली हटा दी गई। धीरे-धीरे पैरों की गर्मी कम हुई, फिर एक समय आया जब हृदय की धड़कन थम गई। घड़ी में समय था—12:10

कवि का मुँह पूर्व दिशा की ओर रखा गया। अस्त होते रवि का अंतिम क्षण। पिछली रात से ही कमरे में भगवान् के नाम की ध्वनि। अमिता देवी ने कान के पास ‘‘शांतम्, शिवम्, अद्वैतम्’’ मंत्र पढ़ा और बिधु शेखर शास्त्री उनके पाँव के पास ज़मीन पर बैठकर ‘ॐ पितृ नोसि’ मंत्र पढ़ने लगे। अंतिम रात्रि से ब्रह्मसंगीत शुरू हो चुका था। दुपहर से पहले का अंतिम क्षण। दायाँ हाथ काँपता हुआ माथे तक गया, फिर ढीला होकर गिर गया। 

रवींद्रनाथ को सफ़ेद बनारसी जोड़ा पहनाया गया— कोंचेदार धोती, गोरद का पंजाबी और चादर जो गले से पैर तक लटक रही थी... माथे पर चंदन, गले में माला। दोनों ओर ढेर सारे श्वेत कमल और रजनीगंधा। ब्रह्मसंगीत शांत स्वर में गूँजने लगा। भीतरी आँगन में नंदलाल बोस ने नक़्शा बनाकर मिस्त्रियों से रवींद्रनाथ की अंतिम यात्रा की पालकी तैयार करवाई। दुपहर क़रीब तीन बजे जोड़ासांको से लाखों की भीड़ उन्हें लेकर निमतला महाश्मशान की ओर चली। वहीं रवींद्रनाथ का अंतिम संस्कार होना था। रास्ते में लाखों लोगों की पुष्पवर्षा से भारतीय और बांग्ला-साहित्य की सर्वश्रेष्ठ प्रतिभा भीग गई।

अस्त हो गया कवि रवि!

...और उसके बाद उनके जीवनहीन शरीर के साथ क्या हुआ?

—वह तो हम यहाँ शुरुआत में ही जान चुके...

•••

बेबी शॉ को और पढ़िए : काँदनागीत : आँसुओं का गीत | एक कमरे का सपना

'बेला' की नई पोस्ट्स पाने के लिए हमें सब्सक्राइब कीजिए

Incorrect email address

कृपया अधिसूचना से संबंधित जानकारी की जाँच करें

आपके सब्सक्राइब के लिए धन्यवाद

हम आपसे शीघ्र ही जुड़ेंगे

10 अगस्त 2025

क़ाहिरा का शहरज़ाद : नजीब महफ़ूज़

10 अगस्त 2025

क़ाहिरा का शहरज़ाद : नजीब महफ़ूज़

Husayn remarked ironically, “A nation whose most notable manifestations are tombs and corpses!” Pointing to one of the pyramids, he continued: “Look at all that wasted effort.” Kamal replied enthusi

08 अगस्त 2025

धड़क 2 : ‘यह पुराना कंटेंट है... अब ऐसा कहाँ होता है?’

08 अगस्त 2025

धड़क 2 : ‘यह पुराना कंटेंट है... अब ऐसा कहाँ होता है?’

यह वाक्य महज़ धड़क 2 के बारे में नहीं कहा जा रहा है। यह ज्योतिबा फुले, भीमराव आम्बेडकर, प्रेमचंद और ज़िंदगी के बारे में भी कहा जा रहा है। कितनी ही बार स्कूलों में, युवाओं के बीच में या फिर कह लें कि तथा

17 अगस्त 2025

बिंदुघाटी : ‘सून मंदिर मोर...’ यह टीस अर्थ-बाधा से ही निकलती है

17 अगस्त 2025

बिंदुघाटी : ‘सून मंदिर मोर...’ यह टीस अर्थ-बाधा से ही निकलती है

• विद्यापति तमाम अलंकरणों से विभूषित होने के साथ ही, तमाम विवादों का विषय भी रहे हैं। उनका प्रभाव और प्रसार है ही इतना बड़ा कि अपने समय से लेकर आज तक वे कई कला-विधाओं के माध्यम से जनमानस के बीच रहे है

22 अगस्त 2025

वॉन गॉग ने कहा था : जानवरों का जीवन ही मेरा जीवन है

22 अगस्त 2025

वॉन गॉग ने कहा था : जानवरों का जीवन ही मेरा जीवन है

प्रिय भाई, मुझे एहसास है कि माता-पिता स्वाभाविक रूप से (सोच-समझकर न सही) मेरे बारे में क्या सोचते हैं। वे मुझे घर में रखने से भी झिझकते हैं, जैसे कि मैं कोई बेढब कुत्ता हूँ; जो उनके घर में गंदे पं

बेला लेटेस्ट