सूरदास के काव्य में कृष्ण से राधा और दूसरी गोपियों का प्रेम, सामंती नैतिकता के बंधनों से मुक्त प्रेम है।
नामवर सिंह के अनुसार सगुण काव्य की मुख्य कमज़ोरी शास्त्र-सापेक्षता है, जो एक ओर निर्गुणधारा का विरोध करती है और दूसरी ओर रीतिकाव्य के उदय का कारण बनती है। नामवर सिंह के विवेचन से यह स्पष्ट नहीं होता कि सगुणधारा क्यों और कैसे शास्त्र-सापेक्ष है, इसलिए यह सवाल उठता है कि आख़िर सगुण काव्य में शास्त्र-सापेक्ष क्या है—सूर का वात्सल्य और श्रृंगार? मीरा का प्रेम और विद्रोह? या तुलसी का आत्मनिवेदन और आत्मसंघर्ष? क्या यह सब शास्त्र-सापेक्ष और लोक-विमुख है? इन सबका रीतिकाव्य से क्या लेना-देना?
आर्य संस्कृति और आर्यों में ‘ऋग्वेद’ का प्रमुख देवता इन्द्र था। यद्यपि ब्रह्मा, विष्णु, महेश—तीनों का नाम लिया जाता है। ब्रह्मा की महिमा धीरे-धीरे घटती गई। इन्द्र की महिमा घटती गई और कृष्ण आते गए। इसका मूल स्रोत कहीं लोकजीवन से जोड़कर देखना चाहिए।
भक्त कवियों की दृष्टि में मानुष-सत्य के ऊपर कुछ भी नहीं है—न कुल, न जाति, न धर्म, न संप्रदाय, न स्त्री-पुरुष का भेद, न किसी शास्त्र का भय और न लोक का भ्रम।
पं. रामचंद्र शुक्ल जो निर्गुण मत को कोसते हैं, वह यों ही नहीं, इसके पीछे उनकी सारी पुराण-मतवादी चेतना बोलती है।
आज हम जिसे भारतीय संस्कृति कहते हैं, उसके निर्माण में भक्ति आंदोलन की अत्यंत महत्त्वपूर्ण भूमिका है।
निर्गुण मतवाद के जनोन्मुख रूप और उसकी क्रांतिकारी जातिवाद-विरोधी भूमिका के विरुद्ध, तुलसीदासजी ने पुराण-मतवादी स्वरूप प्रस्तुत किया।
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भक्तिकाव्य के बाहर भी अधिकांशतः प्रेम की वही कविता महत्त्वपूर्ण है, जो सम-विषम की रूढ़ि से मुक्त है।
निर्गुण और सगुण की दार्शनिक दृष्टियों के बीच कहीं-कहीं द्वंद्व है, लेकिन वह हर जगह लोक से शास्त्र का द्वंद्व नहीं है।
कबीर की कविता का लोक और उसका धर्म; दूसरे भक्त कवियों से अलग है, क्योंकि उनके जीवन का अनुभवलोक भी दूसरों से भिन्न है।
सूर की गोपियों का प्रेम, कोई सीमा नहीं जानता। वह कोई बंधन नहीं मानता, न संयोग में और न वियोग में—उसका लक्ष्य है तन्मयता।
कबीर ऐसे कवि हैं, जिन्हें किसी तरह की सांप्रदायिकता और कट्टरता न तो अपना बना सकती है और न पचा सकती है।
सूर के काव्य में प्रेम, कबीर से अधिक स्वाभाविक और जायसी से अधिक लौकिक है।
भक्तिकाव्य की एक विशेषता हिंदी भाषा के काव्यत्व का उत्कर्ष है।
सूर को कबीर की तरह वात्सल्य और माधुर्य की अभिव्यक्ति के लिए; बालक तथा बहुरिया बनने की आवश्यकता नहीं है, और जायसी की तरह प्रेम की अलौकिक आभा दिखाने की चिंता भी नहीं।
सूरसागर में कृष्ण के चरित्र में मनोवैज्ञानिक विश्वसनीयता और रहस्यात्मकता का पुट है, मानवीय चरित्र तथा दिव्य लीला का सामंजस्य है।
भक्त कवियों ने प्रेममार्ग की जिन बाधाओं का वर्णन किया है, वे भी लोकजीवन में प्रेम की अनुभूति की बाधाएँ हैं।
कबीर प्रत्येक लौकिक और अलौकिक वस्तु को जुलाहे की नज़र से देखते हैं। उनके लिए ईश्वर भी एक बुनकर ही है और उसकी यह दुनिया तथा मानव काया—‘झिनी-झिनी बीनी चदरिया है।’
हिंदी के भक्तिकाव्य में अनेक स्वर है। सगुण भक्तों का स्वर निर्गुण संतों से भिन्न है।
भक्तिकाव्य का प्रेम, भक्ति आंदोलन की विभिन्न धाराओं को आपस में मिलाता है। वह वैष्णवों को सूफ़ियों से और निर्गुण संतों को सगुण भक्तों से जोड़ता है। कहीं वह सामाजिक मूल्य है, तो कहीं सामाजिक कर्त्तव्य।
भक्ति आंदोलन के विकास में तीन मुख्य सहायक तत्त्व है : उस काल के सामाजिक जीवन के नए परिवर्तन, आचार्यों का दार्शनिक चिंतन और भक्त कवियों की सृजनशीलता।
सूरदास प्रेम के कवि है। जिस प्रेम के वे गायक हैं, उसका प्रसार मानव-जीवन से लेकर प्रकृतिजगत और ईश्वर तक है।
उच्च वर्गों द्वारा भक्ति काव्य के आयत्तीकरण (Appropriation) की इस प्रक्रिया का ही एक रूप है—भक्ति आन्दोलन को मुस्लिम आक्रमणकारियों की प्रतिक्रिया के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश।
सूरसागर में परंपरा और लोकजीवन से कृष्णकथा को ग्रहण कर, सूरदास ने अपनी कारयित्री प्रतिभा के सहारे उसका नया रूप निर्मित किया है।
कबीर जिस लोकधर्म का विकास कर रहे थे, उसका मुख्य लक्ष्य है मानुष सत्य या मनुष्यत्व का विकास।
सूरदास जिस सामंती समाज में रचना कर रहे थे, उसमें मनुष्य से अधिक व्यवस्था के बंधनों का महत्त्व था। उनकी रचना में सामंती व्यवस्था के बंधनों से मुक्ति के लिए बेचैन मनुष्य का चरित्र उभरता है।
स्त्री के बारे में मीरा का दृष्टिकोण बाकी भक्त कवियों से एकदम अलग है।
सूर का प्रेम शास्त्र और लोक की रूढ़ियों से एकदम स्वतंत्र है।
मीरा का विद्रोह एक विकल्पविहीन व्यवस्था में, अपनी स्वतंत्रता के लिए विकल्प की खोज का संघर्ष है।
तुलसीदास जिस वैदिक और पौराणिक परंपरा की रक्षा के लिए निर्गुण की आलोचना करते हैं, उसमें विरोधी विचारों के साथ ऐसा व्यवहार बहुत पहले से होता आया है।
सूरदास मूलतः रूप और प्रेम के कवि हैं। रूप के अंकन और प्रेम की साधना में ही उनकी चित्तवृत्ति विशेष रमी है।
भक्ति आंदोलन के व्यापक और स्थाई प्रभाव का एक कारण यह है कि उसमें भारतीय संस्कृति के अतीत की स्मृति है, अपने समय के समाज तथा संस्कृति की सजग चेतना है और भविष्य की गहरी चिंता भी है।
सूरदास की सौंदर्य चेतना की विकसित अवस्था, राधा के सौंदर्य-चित्रण में दिखाई पड़ती है।
भक्ति आंदोलन, जनसंस्कृति के अपूर्व उत्कर्ष का अखिल भारतीय आंदोलन है। ऐसे आंदोलन में अनेक स्वरों का समावेश कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
सूर का काव्य, हिंदी जाति के सामाजिक-सांस्कृतिक इतिहास से दिलचस्पी रखने वालों के लिए विशेष महत्त्वपूर्ण है।
मीरा के काव्य में रूढ़िवादी लोकमत का विरोध अत्यंत उग्र है, लेकिन उसमें शास्त्रमत की कोई चिंता नहीं है। न उसका कहीं विरोध है और न कहीं सहारा। उसके आकर्षण, भय और भ्रम से पूरी तरह मुक्त है—मीरा की कविता।
मीरा के प्रेम में आत्मसमर्पण और आत्मविश्वास का अनुपम मेल है।
तुलसीदास उन सबकी उग्र आलोचना करते हैं, जो वेद तथा पुराण का विरोध करते हैं और श्रुतिसम्मत तथा पुराण-पोषित भक्तिपथ से अलग चलने की कोशिश करते हैं।
मीरा का विद्रोह अंधे के हाथ लगा बटेर नहीं है।
गोपियों की विरह-वेदना की अभिव्यक्ति में सूरदास की सहानुभूति गोपियों के साथ है। सूर की कविता में गोपियों की आत्मा की आवाज़ सुनाई पड़ती है। यह सूरदास की मानवतावादी चेतना के कारण संभव हुआ है।
सूरदास का सूरसागर लीलारस का तरंगायित सागर है, जिसमें प्रेम की धाराओं के लयात्मक नर्तन में भक्ति की आत्मा का संगीत सुनाई पड़ता है।
तुलसीदास का कवि-स्वभाव, कबीर से एकदम भिन्न है।
मीरा का जीवन और काव्य, उस काल के अन्य भक्त कवियों की स्त्री-संबंधी मान्यताओं का प्रतिकार है और प्रत्युत्तर भी।
सूरदास के बहुत पहले से भक्ति और काव्य के क्षेत्र में राधा का परकीया रूप स्वीकृत था, लेकिन सूरदास ने उसे स्वीकार नहीं किया। सूर ने राधा को स्वकीया के रूप में ही उपस्थित किया है।
रूपोपासक कवि सूरदास की रूप की धारणा, रूप की अनुभूति तथा रूपबोध की कलात्मक अभिव्यक्ति सूरसागर में है।
सूरदास ने कृष्ण के ब्रज से जाने के बाद के उनके चरित्र को विशेष महत्त्व नहीं दिया है। सूर ने मथुरावासी कृष्ण के चरित्र का कोई प्रभावशाली चित्रण नहीं किया है।
सूरसागर में यद्यपि लीला और भाव की ही प्रधानता है, किंतु इसमें चरित्र का अभाव नहीं है।
सूरसागर में मानव चरित्र और दिव्य लीला की समन्वित अनुभूति है। इससे सूरसागर की कलात्मकता विशेष निखर उठी है और उसके प्रभाव की सीमा व्यापक हुई है।
आचार्य शुक्ल ने लिखा है कि 'सूर की बड़ी भारी विशेषता है नवीन प्रसंगों की उद्भावना।' आचार्य रामचंद्र शुक्ल का यह कथन सूर-साहित्य के अध्येताओं को पूर्णतः सच प्रतीत होता है।
संत और भक्त कवि, लोकमंगल की भावना से प्रेरित और लोकमंगल की साधना के कवि थे।
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