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धड़क 2 : ‘यह पुराना कंटेंट है... अब ऐसा कहाँ होता है?’

यह वाक्य महज़ धड़क 2 के बारे में नहीं कहा जा रहा है। यह ज्योतिबा फुले, भीमराव आम्बेडकर, प्रेमचंद और ज़िंदगी के बारे में भी कहा जा रहा है। कितनी ही बार स्कूलों में, युवाओं के बीच में या फिर कह लें कि तथाकथित जागरूक समाज-सुधारकों के बीच में प्रेमचंद की कहानियों और आम्बेडकर की आत्मकथा की नाट्य प्रस्तुति एवं बातचीत के दौरान यह वाक्य सुनने को मिलता है और यह बात जो कहते हैं कि ‘अब ऐसा नहीं होता है’—दरअस्ल वे अपने किए-धरे को छुपाना चाहते हैं। ख़ुद को दिलासा देना चाहते हैं कि नहीं, नहीं! वे सही हैं।

मुझे ऐसी ही एक घटना याद आ रही है। उन दिनों में अपने दो और साथियों के साथ डॉ. भीमराव आम्बेडकर की आत्मकथा के दो हिस्सों को नाट्य प्रस्तुति के माध्यम से लोगों के बीच जाकर सुनाया करते थे, जो कि उच्च प्राथमिक कक्षाओं में भी पढ़ाई जाती है। प्रस्तुति के बाद घटनाओं पर आपसी समझ विकसित करने के लिए हम बातचीत किया करते थे, जिससे अपने आस-पास की घटनाओं पर संवैधानिक एवं नैतिक नज़रिया विकसित कर सकें।

उस दिन संविधान दिवस था। हम एक स्कूल की असेंबली में वहीं प्रस्तुति कर ही रहे थे कि प्रिंसिपल ने यह कहते हुए प्रस्तुति बीच में ही रुकवा दी कि यह कंटेंट अच्छा नहीं है। इससे भोले-भाले मासूम बच्चों पर इसका बुरा असर पड़ेगा। उन्होंने आगे यह भी जोड़ा, “अब ऐसा कहाँ होता है? यह तो पुराने समय की बात है।”

मैंने प्रतिउत्तर में आश्चर्य व्यक्त करते हुए पूछा, “क्या अब ऐसा नहीं होता है?”

“नहीं... मैंने ख़ुद पॉलिटिकल साइंस से पोस्ट ग्रेजुएशन किया है।”

उन्होंने इतना कहा ही था कि नौवीं कक्षा की एक बच्ची ने लगभग रोते हुए कहा था, “मैम! आज भी ऐसा होता है। जब हम जीवण (राजस्थान में भोज आदि के लिए यह शब्द लोक में प्रयोग किया जाता है) में जाते हैं तो हमें अलग बैठा दिया जाता है और रोज़ स्कूल आते समय मंदिर जाते हैं तो हमें बाहर से भी दर्शन करने के लिए रोका जाता है।” इसके बाद वहाँ के अन्य शिक्षकों ने भी ऐसी घटनाओं के होने की बात को स्वीकारा, लेकिन वह प्रस्तुति होने नहीं दी गई। अंततः हमें वापस ही होना पड़ा। यह सिर्फ़ एक जगह की बात नहीं है। ऐसा जगह-जगह हुआ। लगभग सभी जगहों पर जिन घटनाओं के लिए बड़े, युवा, जागरूक या शिक्षक आदि यह कहते हुए पाए गए कि अब ऐसा नहीं होता है, उन्हीं घटनाओं के लिए बच्चों की मुखर स्वीकृति यह थी कि अब भी ऐसा रोज़ होता है। बच्चों में यह पार्कों, मंदिरों, खेलों, दोस्तों के बीच एवं स्कूल आदि से जुड़े रोज़मर्रा के अनुभवों के रूप में शामिल है।

इसी प्रस्तुति से जुड़ी एक ऐसी घटना भी है—जब जवाहर कला केंद्र में हम प्रस्तुति से पहले एक रनथ्रू कर रहे थे, उसी दौरान वहाँ कुछ लोग दर्शक दीर्घा में बैठे थे जो यह सब देख रहे थे। रनथ्रू के बाद हमारे निर्देशक ने बताया कि बीच में उन लोगों ने उन्हें ग्यारह सौ रुपये देते हुए कहा था, “बच्चे बहुत मेहनत कर रहे हैं, उन्हें नाश्ता करा दीजिएगा।” बाद में पता चला था कि वह राजस्थान के किसी ज़िले से आए हुए लोक कलाकर थे।

इसलिए फिर एक बार ज़ोर देकर कहना पड़ रहा है कि धड़क-2 पर लोगों की प्रतिक्रियाएँ महज धड़क-2 की प्रतिक्रियाएँ नहीं हैं और यह फ़िल्म, सिर्फ़ मनोरंजन तक सीमित नहीं है। बरसों बाद बॉलीवुड की कोई फ़िल्म देखकर कहा जा सकता है कि हिंदी मुख्यधारा का सिनेमा अपने समाज के बहुजनों के प्रति संवेदनशील एवं जवाबदेह बनकर सामने आया है। ‘धर्मा प्रोडक्शन’ ने ख़ुद के प्रति बहुत सारे पूर्वाग्रहों को तोड़ने का साहस दिखाया है और इस बात के लिए फ़िल्म देखकर प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।

यह 2018 में आई तमिल फ़िल्म ‘पेरियरम पेरुमल’ की हिंदी रीमेक है। मैंने मूल तमिल फ़िल्म तो नहीं देखी है लेकिन इस फ़िल्म की निर्देशक एवं पथकथा लेखक शाज़िया इक़बाल ने बहुत ही कलात्मक एवं वास्तविकता से परिपूर्ण काम किया है। उन्होंने हमारे आस-पास की परिघटनाओं को जिस तरह फ़िल्मी पर्दे पर दिखाया है, वह फ़िल्म को अधिक समकालीन एवं प्रासंगिक बनाता है। मसलन, मुख्य किरदार निलेश पर बार-बार उसकी जाति की वजह से हमला होना, कीचड़ फेंका जाना, पेशाब किया जाना हो या अन्य सशक्त किरदार शेखर का अपने अधिकारों के लिए लड़ते हुए अपने ही हॉस्टल के कमरे में आत्महत्या कर लेना हो। ये सभी घटनाएँ हमें मध्यप्रदेश, राजस्थान, हैदराबाद, एनटीए, नेट-जेआरएफ़ ही क्या पूरे देश भर की सामाजिक एवं राजनीतिक घटनाओं तक यूँ ही नहीं लेकर जाती हैं। हैदराबाद के शोध छात्र एवं Ambedkar Students’ Association (ASA) के सक्रिय सदस्य रोहित वेमुला की संस्थानिक हत्या—जैसी घटनाएँ हमारे इसी देश की महत्त्वपूर्ण घटनाएँ हैं—जिन पर बात करने से लोग कतराते हैं, लेकिन कब तक तमाम पाबंदियाँ इसे दबा पाएँगी। एक-न-एक दिन वे सत्य की तरह हमारे सामने खड़ी हो जाएँगी और हम उसका सामना नहीं कर पाएँगे। मुँह छिपाएँगे और फफककर रो पड़ेंगे कि हमें माफ़ करना दोस्त हम राजनीति से ख़ुद को बचाने के चक्कर में यह महसूस नहीं पाए कि तुम्हारा जन्म एक भयंकर हादसा नहीं था।

यह कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है कि इस फ़िल्म को रिलीज होने के लिए कितनी मुश्किलों का सामना करना पड़ा होगा। ऐसी मुश्किलें हर समय में रही हैं, लेकिन जिसे अपनी बात कहनी है वह उसे कहने का तरीक़ा खोज ही लेगा। कलाकारों का यही तो मुख्य संघर्ष रहा है। थियेटर ऑफ़ द ऑपरेश के जनक अगस्तो बोल ने कभी कहा ही था, ‘It is forbidden to walk on the grass. It is not forbidden to fly over the grass.’ मतलब घास पर चलना मना है। घास के ऊपर उड़ना मना नहीं है।

शाज़िया इक़बाल ने इस फ़िल्म के लगभग सभी दृश्यों में बहुजनों के प्रतीकों—जिन्हें अब तक समूचे देश का प्रतीक बन जाना था—का कलात्मक ढंग से प्रयोग किया है। चाहे वो आम्बेडकर या फुले दंपति के चित्र हों या नीला रंग हो, बस्तियों के नाम हों या किरदारों के नाम हों, लगभग हर फ़्रेम में इन प्रतीकों को वातावरण के सौंदर्य निर्माण के लिए लाया गया है। यह दिखाता है कि शाज़िया इक़बाल अपनी बात कहने और कह के रहने के लिए हर तरह से तैयार थीं, उनका सौंदर्यबोध आधुनिक एवं प्रबल है, घटनाओं की नाटकियता में भी उन्होंने रूढ़ियों को नकारा है।

फ़िल्म की कहानी बहुत आम-सी कहानी है। आम इसलिए क्योंकि ऐसी घटनाएँ हमारे यहाँ रोज़ होती हैं। हज़ारों अंतर्जातीय प्रेम संबंध बनते हैं और उन पर पाबंदियाँ लगती हैं। समाज में बहुत पीछे धकेल दिए गए लोगों को अपनी जाति, अपने व्यवसाय, अपने परिवार के अतीत को याद दिलाकर, बिलावजह शर्मिंदगी महसूस करवाई जाती है। उनकी पाबंदियों का डर और यकीन, उनके प्रेम को कभी मुखर होने ही नहीं देता है और उनका साथी कभी जान ही नहीं पाता कि वह जो हमारे दरमियान ‘फ़ील’ होता था वह ‘फ़ील’ होना बंद क्यों हो गया। क्या मजबूरी होगी कि किसी को बार-बार लगभग पैर पकड़कर कहना पड़ रहा है, “हम अपनी औकात बदल सकते हैं, लेकिन अपनी जाति नहीं बदल सकते।”

रोज़ हज़ारों अकादमिक मठाधीश प्रोफ़ेसर हज़ारों ‘अहिरवारों’ को पटककर मारने की धमकी और निलंबन का पर्चा थमाते हैं। कितनी प्रतिभाएँ पलायन करती हैं और दलितों एवं पिछड़ों की कितनी सारी फ़ेलोशिप की सूचियाँ जारी नहीं हो पाई हैं। इसकी कोई सीमा नहीं है। फ़िल्म में ‘सौरभ सचदेवा’ द्वारा निभाए गए किरदार जैसे लोग जो इस समाज में कहीं भी अस्तित्व में नहीं है, लेकिन जब जाति की बात आती है तो हर जगह पनप आते हैं, और उन सब के सपनों के बीच में आकार खड़े हो जाते हैं जिन्होंने अभी-अभी सर उठाकर चलने की हिम्मत बटोरी है, जिनके लिए कहा जाता है कि सत्तर साल काफ़ी नहीं हैं क्या? कब तक खैरात चाहते हो? और कोई यह कहने नहीं आता है, “मैंने कहा था यहाँ लड़ाई नहीं पढ़ाई करनी है। लेकिन अगर लड़ने और मरने के बीच चुनने की नौबत आए तो लड़ना।” कोई यह क्यों समझ नहीं पाता है कि समाज में जिस साहस एवं दंभ के साथ कोई अपना नाम ‘रौनक भारद्वाज’ बताता है, उसी साहस के साथ कोई अपना पूरा नाम क्यों नहीं बता पाता है? उसे क्यों कहना पड़ता है, “निलेश सर!... निलेश... निलेश बी.ए.एल.एल.बी.।” वह क्यों नहीं कह पाता है कि उसका नाम निलेश अहिरवार है। जो यह देख-समझ नहीं पा रहे हैं दरअस्ल वे देखना-समझना ही नहीं चाह रहे हैं।

फ़िल्म की कहानी बताकर स्पॉइलर नहीं दूँगा। इतना कहूँगा कि सिर्फ़ युवाओं को नहीं सभी को यह फ़िल्म देखनी चाहिए और देखते हुए अगर कुछ महसूस हुआ है तो उसे सहानुभूति में नहीं समानुभूति में बदलिए। लड़कियों को और कितना चीखना पड़ेगा कि इज़्ज़त एक मृग है, उसको दूसरों में नहीं ख़ुद में तलाशने की ज़रूरत है क्योंकि सिर्फ़ एक पोस्ट डालकर ख़ुद को संवेदनशील दिखाने का मसला नहीं है, ख़ुद के अंदर बदलाव लाने का तकाजा है। बदलाव कोई बीमारी नहीं है, इससे परहेज मत करिए। ‘आज अपना हो-न-हो पर कल हमारा है।’

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