युद्ध पर उद्धरण
युद्ध संघर्ष की चरम
स्थिति है जो एक शांतिहीन अवस्था का संकेत देती है। युद्ध और शांति का लोक, राज और समाज पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। प्रस्तुत चयन में युद्ध और शांति और विभिन्न प्रसंगों में उनके रूपकों के साथ अभिव्यक्त कविताओं का संकलन किया गया है।

वह एक युद्ध है जो स्त्री और पुरुष के बीच हमेशा चलता रहता है, जिसे बहुत लोग प्रेम कहकर पुकारते हैं।

हमारे आधुनिक राष्ट्र भविष्य के दुश्मन को जाने बिना ही युद्ध की तैयारी कर रहे हैं।

जब मनुष्य अपने अंदर युद्ध करने लगता है तब वह अवश्य ही किसी योग्य होता है।

संसार में जितनी बड़ी-बड़ी जीतें हुई हैं, बड़े-बड़े आक्रमण हुए हैं, सबको महान बनाया है माताओं, बहिनों और पत्नियों के त्याग ने। किस युद्ध में कितने पुरुषों ने रक्त दिया—यह इतिहास में लिखा हुआ है, लेकिन उसके समीप में यह नहीं लिखा है कि कितनी स्त्रियों ने अपना सुहाग दान किया, कितनी माताओं ने कलेजा निकाल कर दिया, कितनी बहिनों ने सेवाएँ अर्पित की।

युद्ध हमारे भाइयों के ख़िलाफ़ संगठित हत्या और यातना है।

आप ऐसे दो परिवारों में मेल करा सकते हैं जिन्होंने एक-दूसरे को लगभग ख़त्म ही कर डाला है, जैसाकि गृहयुद्ध के दौरान ब्रिटेनी और ला वेंदी में हुआ; लेकिन लांछन लगाने वाले और लांछित के बीच मेल कराना उतना ही कठिन है, जितना बलात्कारी और बलत्कृत के बीच मेल होना।

आदमी ध्यान आकर्षित करने के लिए युद्ध करते हैं। सभी हत्याएँ आत्म-घृणा की अभिव्यक्ति हैं।

सब कुछ एक धोखा है—न्यूनतम माया की तलाश, सब कुछ एक सामान्य सीमांत में समेटकर रखना या अधिकतम की इच्छा। पहली स्थिति में मनुष्य अच्छाई को धोखा देता है, उसे अपने लिए बहुत आसानी से प्राप्य बनाकर, और शैतान को भी उसके ऊपर युद्ध की छेड़ने की असंभव कोशिश करके। दूसरी स्थिति में, मनुष्य अच्छाई को धोख़ा देता है, सामान्य स्थितियों में भी उसे पाने की इच्छा न रखकर। तीसरी स्थिति में, मनुष्य अच्छाई से अधिकतम दूरी बनाकर उसे धोखा देता है और शैतान को अधिकतम पाने की लालसा में ख़ुद को शक्तिहीन बना लेता है। इसलिए इन तीनों में से दूसरी स्थिति अधिक इच्छित होनी चाहिए क्योंकि अच्छाई तो हमेशा ही धोखा खाती है, लेकिन इस स्थिति में, कम से कम सतही भाषा में ही शैतान के साथ कोई धोखा नहीं होता।

प्रेम का आरंभ और अंत उस तरह नहीं होता है, जैसा कि हम सोचते हैं। प्रेम एक लड़ाई है, युद्ध है; प्रेम परिपक्व होना है।

युद्ध से पहले सेब का पेड़ चर्च के पीछे स्थित था। वह सेब का एक ऐसा पेड़ था जिसने अपने सेबों को खा लिया था।

ऐसा कोई युद्ध नहीं है जो सभी युद्धों को समाप्त कर दे।

जब भाषा विफल हो जाती है, तब युद्ध होता है।

विपत्तिकाल में, पीड़ा के अवसरों पर, युद्धों में, स्वयंवर में, यज्ञ में अथवा विवाह के अवसर पर स्त्रियों का दिखाई देना उनके लिए दोष की बात नहीं है।

ध्यान एक युद्ध है।

हाथी बाँधा जा सकता है, सिंह रोका जा सकता है, युद्ध में शत्रु सेना जीती जा सकती है किंतु परपुरुष में आसक्त दुश्चरित्रा स्त्री का मन नहीं रोका जा सकता।

युद्ध का मतलब है लोगों पर ऐसी स्थितियाँ थोपना, जिन्हें यदि उन पर पूरी तरह छोड़ दिया जाए तो वे युद्ध का चुनाव नहीं करेंगे।

यदि युद्ध को छोड़ने पर मृत्यु का भय न हो तब तो अन्यत्र भाग जाना उचित है। किंतु प्राणी की मृत्यु अवश्य ही होती है। तो फिर यश को व्यर्थ क्यों कलंकित कर रहे हो?

हे अर्जुन! नपुंसकता को मत प्राप्त हो। यह तेरे योग्य नहीं है। हे परंतप! हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्याग कर युद्ध के लिए खड़ा हो।

मंगल पांडे ने सत्तावन के इस क्रांतियुद्ध के लिए अपना उष्ण रक्त प्रदान किया था। किंतु इसके साथ ही साथ उसने अपना नाम भी अमिट रहने वाले अक्षरों में कर दिया। स्वधर्म और स्वराज्य हेतु लड़े गए 1857 के स्वातंत्र्य-समर में भाग लेने वाले सभी क्रांतिकारियों को भी इस क्रांति के शत्रुओं ने 'पांडे' नाम से संबोधित किया। प्रत्येक माता का यह पावन दायित्व है कि अपने बालक को इस पवित्र नाम का स्वाभिमान सहित उच्चारण करना सिखला दे।

अकेला दूसरे के घर में प्रवेश करे, द्वितीय आदमी से मंत्रणा करे, बहुत आदमी लेकर युद्ध करे, यही शास्त्र का निर्णय है।

धर्म-युद्ध से बढ़कर अन्य कल्याणकारक कर्त्तव्य क्षत्रिय के लिए नहीं है।

लड़ते हुए मर जाना जीत है, धर्म है। लड़ने से भागना पराधीनता है, दीनता है। शुद्ध क्षत्रियत्व के बिना शुद्ध स्वाधीनता असंभव है।

क्षत्रिय युद्ध में मारा जाए तो वह शोक के योग्य नहीं है, यह निश्चित बात है।

ग़लत युद्ध, ग़लत स्थान पर, ग़लत समय पर और ग़लत शत्रु के साथ।

क्षत्रिय धर्म के अनुसार युद्ध करने वाले वीर पुरुषों के लिए संग्राम में होने वाली मृत्यु ही सुखद है।

मरणधर्मा मनुष्य को घरों में भी अवश्य मरना पड़ेगा। अतः क्षत्रिय धर्म के अनुसार युद्ध करते हुए ही जो मृत्यु होती है, वही क्षत्रिय के लिए सनातन मृत्यु है।

युद्ध में विषयों से प्राप्त होने वाले सुख में, या धन-अर्जन में साथी सुलभ होते हैं, किंतु आपत्ति में पड़ने पर या धर्म का आश्रय लेने में पुरुष के साथी दुर्लभ हैं।


संग्राम में मारे जाने मर स्वर्ग प्राप्त होता है और जीतने पर यश मिलता है। लोक में दोनों ही माननीय हैं। अतः युद्ध करने में निष्फलता नहीं है।

लूट के लोभ से हत्या-व्यवसायियों को एकत्र करके उन्हें वीर सेना कहना, रणकला का उपहास करना है।

युद्ध अहंकार की संतान है और अहंकार धन-संपत्ति की पुत्री है।

यह रणभूमि वैर का आवास है, वीरता की कसौटी है, मान और प्रतिष्ठा का घर है, युद्धों में अप्सराओं की स्वयंवर सभा है, नरों की वीरता की प्रतिष्ठा है, राजाओं की अंतकाल में सोने योग्य वीरशय्या है, प्राणों का अग्निहोत्र नामक यज्ञ है, राजाओं के स्वर्गलोक जाने के लिए सेतु है—ऐसे 'रण' नामक आश्रम में हम आए हुए हैं।

सेना किसी राष्ट्र के आंतरिक शौर्य का कुल जमा हासिल होती है, उस शौर्य से अपने राष्ट्र को ‘सबक़’ नहीं सिखाया जाता।

युद्ध परिसीमा है परत्व के विकास की।

कभी भी अच्छा युद्ध या बुरी शांति नाम की वस्तु नहीं

मैं सदैव योद्धा रहा, अतः एक युद्ध और लड़ूँगा जो सर्वोत्तम और अंतिम होगा। मुझे इस बात से घृणा है कि मृत्यु मेरी आँखों पर पट्टी बाँधे और अलग रहे तथा मुझे उसके पीछे रेंगना पड़े।

वीरता जब भागती है, तब उसके पैरों से राजनीतिक छल-छद्म की धूल उड़ती है।

सत्यानाश हो उसका जिसने सर्वप्रथम युद्ध का आविष्कार किया।

युद्ध प्रेम के सदृश है, यह सदैव ही मार्ग निकाल लेता है।

युद्ध सफलता से तभी लड़ा जा सकता है जब उसका सही कारण जनता को मालूम न हो।

युद्ध बर्बरता है और सैन्यवाद व्यावहारिक उपयोग में लाई गई बर्बरता है।

प्रेम और युद्ध के तरीक़े एक जैसे। जो हारे, वह युद्धबंदी।

संपूर्ण संसार कर्मण्य वीरों की चित्रशाला है।

हम युद्ध-बंदी हैं। हमारे सपनों में मिलावट कर दी गई है। हम कहीं के नहीं रहे हैं। हम अशांत समुद्रों पर लंगरविहीन जहाज़ की तरह यात्रा कर रहे हैं। हो सकता है, हमें कभी किनारा न मिले। हमारे दुख कभी उतने दुखद नहीं होंगे। न हमारे सुख कभी उतने सुखद। हमारे सपने कभी उतने विशाल न होंगे। न हमारी ज़िंदगियाँ उतनी महत्त्वपूर्ण कि उनकी कोई अहमियत हो।

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