हर प्रकाशित पंक्ति साहित्य नहीं होती, बल्कि सच्चाई यह है कि हर युग में अधिकांश साहित्य ‘पेरिफ़ेरी’ का साहित्य होता है जो सिर्फ़ छपता चला जाता है।
दुनिया में नाम कमाने के लिए कभी कोई फूल नहीं खिलता है।
कवि को लिखने के लिए कोरी स्लेट कभी नहीं मिलती है। जो स्लेट उसे मिलती है, उस पर पहले से बहुत कुछ लिखा होता है। वह सिर्फ़ बीच की ख़ाली जगह को भरता है। इस भरने की प्रक्रिया में ही रचना की संभावना छिपी हुई है।
हमेशा पुरानी पीढ़ी नई पीढ़ी से निराश रही है। नई पीढ़ी भी पुरानी पीढ़ी बनकर निराश होती रही है।
रचना-प्रक्रिया के भीतर न केवल भावना, कल्पना, बुद्धि और संवेदनात्मक उद्देश्य होते हैं; वरन वह जीवनानुभव होता है जो लेखक के अंतर्जगत का अंग है, वह व्यक्तित्व होता है जो लेखक का अंतर्व्यक्तित्व है, वह इतिहास होता है जो लेखक का अपना संवेदनात्मक इतिहास है और केवल यही नहीं होता।
प्रत्येक सर्जक या विधाता, जीवन के चाहे जिस क्षेत्र की बात हो—‘विद्रोही’ और ‘स्वीकारवादी’ दोनों साथ ही साथ होता है।
अब अभिव्यक्ति के सारे ख़तरे उठाने ही होंगे। तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब।
जगत से मन अपनी चीज़ संग्रह कर रहा है, उसी मन से विश्व-मानव-मन फिर अपनी चीज़ चुनकर, अपने लिए गढ़े ले रहा है।
साहित्य व्याकरण के सिद्धांतों को पुष्ट अवश्य करता है; किंतु वह उससे स्वतंत्र, आनंदमय रचना है।
जो दृश्य हमें वैसे नहीं दिखता क्योंकि उस दृश्य में हम ख़ुद रहते हैं—रचनाकार दिखा देता है। इस तरह वह हमें एक नया मौक़ा देता है।
खेल प्रकृति की सबसे सुंदर रचना हैं।
कविता की रचना सुनने से जुड़ी है।
हर रचना अपने निजी विन्यास को लेकर व्यक्त होती है, जैसे हर राग-रागिनी का ठाट बदल जाता है, वैसे ही हर चित्र, कविता के सृजन के समय उसका साँचा बदल जाता है।
जब भी आप अपने आस-पास सुंदरता का निर्माण कर रहे होते हैं, आप अपनी आत्मा को बहाल कर रहे होते हैं।
हम ‘महान साहित्य’ और ‘महान लेखक’ की चर्चा तो बहुत करते हैं। पर क्या ‘महान पाठक’ भी होता है? या क्यों नहीं होता, या होना चाहिए? क्या जो समाज लेखक से ‘महान साहित्य’ की माँग करता है, उससे लेखक भी पलट कर यह नहीं पूछ सकता कि ‘क्या तुम महान समाज हो?’
लिखना चाहे जितने विशिष्ट ढंग से, लेकिन जीना एक अति सामान्य मनुष्य की तरह।
साहित्य की समस्त महान कृतियाँ किसी शैली (genre) की स्थापना करती हैं या विसर्जन—अन्य शब्दों में यों कहें, कि वे विशिष्ट घटनाएँ हैं।
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सोचने से ही सब कुछ नहीं होता—न सोचते हुए मन को चुपचाप खुला छोड़ देने से भी कुछ होता है—वह भी सृजन का पक्ष है। कपड़े पहनने ही के लिए नहीं हैं—उतार कर रखना भी होता है कि धुल सकें।
सृष्टिकर्ता के जिस निराकार आदर्श की हम कल्पना करते हैं, उसके साथ सृष्ट वस्तुएँ अगर एक होकर मिल जाएँ तो प्रलय हो जाएगी।
कोई भी रचनाकार यह जानता है कि रचना के बढ़ते जाने के मार्ग का नक़्शा, रचना के पूर्व नहीं बनाया जा सकता और यदि बनाया गया तो वह यथातथ्य नहीं हो सकता।
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गढ़ने में संयम की ज़रूरत होती है, नष्ट करने में असंयम की।
कला और रचना के लिए अन्यथा-वृत्ति (अन्यथाकरण) ही बहुत बड़ी बात है।
साहित्य तुम्हारी तुम्हीं से पहचान और गहरी करता है : तुम्हारी संवेदना की परतें उधेड़ता है जिससे तुम्हारा जीना अधिक जीवंत होता है और यह सहारा साहित्य दे सकता है; उससे अलग साहित्यकार व्यक्ति नहीं।
भाव, विषय, तत्त्व साधारण मनुष्यों के होते हैं; उन्हें अगर एक आदमी वाणी न दे, तो आगे-पीछे दूसरा कोई आदमी वाणी देगा। लेकिन रचना पूरी तरह लेखक की अपनी होती है। वह जैसी एक आदमी की होगी, दूसरे आदमी की न होगी। इसालिए रचना में ही लेखक सच्चे अर्थों में जीवित रहता है—भाव में नहीं, विषय में नहीं।
कवि तो समय की परिधि में नहीं बँधता, उसकी रचना अनंत काल के लिए होती है और इसीलिए उसके काव्य से ऐसे अर्थ भी सिद्ध होते हैं जो उसकी अपनी कल्पना में नहीं होते। यही उसके काव्य की पूर्णता और विशेषता है।
काव्य-रचना, एक परिणाम है किसी पूर्वगत प्रदीर्घ मनःप्रक्रिया का, जो अलग-अलग समयों में बनती गई और अपने तत्त्व एकत्र करती गई है।
कवि को यदि रचना की प्रक्रिया से अलौकिक आनन्द की प्राप्ति नहीं हो, तो उसकी कविता से पाठकों को भी आनन्द नहीं मिलेगा। कला की सारी कृतियाँ पहले अपने-आपके लिए रची जाती हैं।
पाणिनि ने जब व्याकरणशास्त्र की रचना करने की बात सोची, तो उन्होंने घूम-घूमकर शब्द-सामग्री का संकलन किया, और जो देश की भिन्न-भिन्न राजधानियाँ या प्रसिद्ध स्थान थे, उनमें जाकर उन्होंने उच्चारण, अर्थों, शब्दों, मुहावरों और धातुओं के विषय में अपनी सामग्री का संकलन किया।
समीक्षक का कर्त्तव्य अपनी कठोर आलोचक दृष्टि और कोमल संवेदनात्मकता भावुक दृष्टि—इन दोनों के योग द्वारा लेखक ही के मार्ग को सुगम और प्रशस्त करना होना चाहिए।
आलोचक का कार्य केवल गुण-दोष विवेचन ही नहीं है, वरन् साहित्य का नेतृत्व करना भी है।
साहित्य-क्षेत्र में सर्वाधिक प्रभावशाली होता है साहित्य और साहित्यकार—न कि समीक्षक और उसकी समीक्षा।
हमारी सृजन-प्रतिभा; जीवन-प्रसंग की उद्भावना से लेकर तो अंतिम संपादन तक, अपनी मूल्यांकनकारी शक्ति का उपयोग करती रहती है।
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सुंदर और उपयोगी वस्त्रों का निर्माण भारतवर्ष की राष्ट्रीय कला है।
जिसकी रचना को जनता का हृदय स्वीकार करेगा उस कवि की कीर्ति तब तक बराबर बनी रहेगी जब तक स्वीकृति बनी रहेगी।
यह जो रूप-रूप में भिन्नता है, यह सभी की नज़र में पड़ रही पोग किंतु, इस भिन्नता को चित्र में या कविता में या उक्ति में प्रस्तुत कर दिखाने का कौशल सभी के पास नहीं होता है।
सुंदर कृति के सभी रचनाकार अपने को गुप्त रखते हैं, किंतु, जो सुंदर होता है वह अपने आप आगे आ जाता है।
शिल्प का विकास, काव्य-व्यक्तित्व से अटूट रूप से जुड़ा हुआ है और उस शिल्प में व्यक्तित्व की क्षमता और सीमा, भाव और अभाव, सामर्थ्य और कमज़ोरी, ज्ञान और भ्रम—सभी प्रत्यज्ञ-अप्रत्यक्ष रूप से प्रकट होते हैं।
कवि-कर्म न केवल प्रतिभा का प्रकटीकरण है, वह अभ्यास की भी अभिव्यक्ति है। प्रतिभा और अभ्यास के योग से कवि-कर्म निष्पन्न होता है।
रूपदक्षता की चरम सीमा तो वही है, जहाँ रचना का रूप, रंग सब कुछ रूपदक्षको भुला दे, सिर्फ़ उसके द्वारा प्रद्त्त रूप-माधुरी मन को परिपूर्ण कर दे।
द्विधा-विभाजित मन की प्रक्रिया में तटस्थता नामक जो एक आत्म-स्थिति पैदा हो जाती है, वह तटस्थता नामक आत्म-स्थिति एक क्रियावान शक्ति है; और क्रिया में गतिमान होने के लिए ही उपस्थित रहती है।
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तू स्वयं अपना उच्च न्यायालय है। अपनी रचना का मूल्यांकन केवल तू ही कर सकता है।
मन प्राकृतिक चीज़ को मानसिक बना लेता है, साहित्य उसी मानसिक चीज़ को साहित्य बना लेता है।
यदि साहित्य-सृजन एक संघर्ष है—अभिव्यक्ति के मार्ग का संघर्ष, तो समीक्षा एक प्रेम-दर्शन है। ऐसा प्रेम-दर्शन जो आवश्यक पड़ने पर अतिशय कठोर होता है, किंतु सामान्यतः उदार और कोमल रहता है।
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प्रत्येक युग अपनी सामाजिक-ऐतिहासिक स्थिति की अनुभूत आवश्यकता के अनुसार, अपना साहित्य-निर्माण किया करता है।
कुव्यवस्था से चिपके रहने के कारण उसे व्यवस्था का सहज अंग मानने की आदत पड़ जाती है और संवेदना—जो सृजन की बुनियादी शर्त है—भोथरी पड़ने लगती है।
राष्ट्र की फूँक से राष्ट्रीयता का गौरव तो जल उठता है, किंतु फूलों का मुख नहीं खुलता है। राष्ट्र का बनाया हुआ है नेशनल पार्क—उसमें भी फूँक मारने से फूल नहीं खिलते हैं।
जैसा समाज हम बनाएँगे, उसी के अनुसार कला और साहित्य की क़ीमत तय होगी।