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सृजन पर उद्धरण

साहित्य तुम्हारी तुम्हीं से पहचान और गहरी करता है।

अज्ञेय

हर प्रकाशित पंक्ति साहित्य नहीं होती, बल्कि सच्चाई यह है कि हर युग में अधिकांश साहित्य ‘पेरिफ़ेरी’ का साहित्य होता है जो सिर्फ़ छपता चला जाता है।

विष्णु खरे

दुनिया में नाम कमाने के लिए कभी कोई फूल नहीं खिलता है।

गजानन माधव मुक्तिबोध
  • संबंधित विषय : फूल

कवि को लिखने के लिए कोरी स्लेट कभी नहीं मिलती है। जो स्लेट उसे मिलती है, उस पर पहले से बहुत कुछ लिखा होता है। वह सिर्फ़ बीच की ख़ाली जगह को भरता है। इस भरने की प्रक्रिया में ही रचना की संभावना छिपी हुई है।

केदारनाथ सिंह

हमेशा पुरानी पीढ़ी नई पीढ़ी से निराश रही है। नई पीढ़ी भी पुरानी पीढ़ी बनकर निराश होती रही है।

त्रिलोचन

प्रत्येक सर्जक या विधाता, जीवन के चाहे जिस क्षेत्र की बात हो—‘विद्रोही’ और ‘स्वीकारवादी’ दोनों साथ ही साथ होता है।

कुबेरनाथ राय

अब अभिव्यक्ति के सारे ख़तरे उठाने ही होंगे। तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब।

गजानन माधव मुक्तिबोध

जगत से मन अपनी चीज़ संग्रह कर रहा है, उसी मन से विश्व-मानव-मन फिर अपनी चीज़ चुनकर, अपने लिए गढ़े ले रहा है।

रवींद्रनाथ टैगोर

जो दृश्य हमें वैसे नहीं दिखता क्योंकि उस दृश्य में हम ख़ुद रहते हैं—रचनाकार दिखा देता है। इस तरह वह हमें एक नया मौक़ा देता है।

कृष्ण कुमार

खेल प्रकृति की सबसे सुंदर रचना हैं।

लियोनार्ड कोहेन

साहित्य व्याकरण के सिद्धांतों को पुष्ट अवश्य करता है; किंतु वह उससे स्वतंत्र, आनंदमय रचना है।

रवींद्रनाथ टैगोर

कविता की रचना सुनने से जुड़ी है।

यून फ़ुस्से

हर रचना अपने निजी विन्यास को लेकर व्यक्त होती है, जैसे हर राग-रागिनी का ठाट बदल जाता है, वैसे ही हर चित्र, कविता के सृजन के समय उसका साँचा बदल जाता है।

अवनींद्रनाथ ठाकुर

जब भी आप अपने आस-पास सुंदरता का निर्माण कर रहे होते हैं, आप अपनी आत्मा को बहाल कर रहे होते हैं।

एलिस वॉकर

हम अपनी तबाही के लिए ज़्यादा, निर्माण के लिए कम जाने जाएँगे।

चक पैलनिक

साहित्य की समस्त महान कृतियाँ किसी शैली (genre) की स्थापना करती हैं या विसर्जन—अन्य शब्दों में यों कहें, कि वे विशिष्ट घटनाएँ हैं।

वाल्टर बेंजामिन

हम ‘महान साहित्य’ और ‘महान लेखक’ की चर्चा तो बहुत करते हैं। पर क्या ‘महान पाठक’ भी होता है? या क्यों नहीं होता, या होना चाहिए? क्या जो समाज लेखक से ‘महान साहित्य’ की माँग करता है, उससे लेखक भी पलट कर यह नहीं पूछ सकता कि ‘क्या तुम महान समाज हो?’

अज्ञेय

लिखना चाहे जितने विशिष्ट ढंग से, लेकिन जीना एक अति सामान्य मनुष्य की तरह।

धर्मवीर भारती

सृष्टिकर्ता के जिस निराकार आदर्श की हम कल्पना करते हैं, उसके साथ सृष्ट वस्तुएँ अगर एक होकर मिल जाएँ तो प्रलय हो जाएगी।

अवनींद्रनाथ ठाकुर

गढ़ने में संयम की ज़रूरत होती है, नष्ट करने में असंयम की।

रवींद्रनाथ टैगोर

सोचने से ही सब कुछ नहीं होता—न सोचते हुए मन को चुपचाप खुला छोड़ देने से भी कुछ होता है—वह भी सृजन का पक्ष है। कपड़े पहनने ही के लिए नहीं हैं—उतार कर रखना भी होता है कि धुल सकें।

अज्ञेय

कला और रचना के लिए अन्यथा-वृत्ति (अन्यथाकरण) ही बहुत बड़ी बात है।

अवनींद्रनाथ ठाकुर
  • संबंधित विषय : कला

साहित्य तुम्हारी तुम्हीं से पहचान और गहरी करता है : तुम्हारी संवेदना की परतें उधेड़ता है जिससे तुम्हारा जीना अधिक जीवंत होता है और यह सहारा साहित्य दे सकता है; उससे अलग साहित्यकार व्यक्ति नहीं।

अज्ञेय

तू स्वयं अपना उच्च न्यायालय है। अपनी रचना का मूल्यांकन केवल तू ही कर सकता है।

अलेक्सांद्र पूश्किन

मन प्राकृतिक चीज़ को मानसिक बना लेता है, साहित्य उसी मानसिक चीज़ को साहित्य बना लेता है।

रवींद्रनाथ टैगोर

कुव्यवस्था से चिपके रहने के कारण उसे व्यवस्था का सहज अंग मानने की आदत पड़ जाती है और संवेदना—जो सृजन की बुनियादी शर्त है—भोथरी पड़ने लगती है।

श्रीलाल शुक्ल

भाव, विषय, तत्त्व साधारण मनुष्यों के होते हैं; उन्हें अगर एक आदमी वाणी दे, तो आगे-पीछे दूसरा कोई आदमी वाणी देगा। लेकिन रचना पूरी तरह लेखक की अपनी होती है। वह जैसी एक आदमी की होगी, दूसरे आदमी की होगी। इसालिए रचना में ही लेखक सच्चे अर्थों में जीवित रहता है—भाव में नहीं, विषय में नहीं।

रवींद्रनाथ टैगोर

कवि तो समय की परिधि में नहीं बँधता, उसकी रचना अनंत काल के लिए होती है और इसीलिए उसके काव्य से ऐसे अर्थ भी सिद्ध होते हैं जो उसकी अपनी कल्पना में नहीं होते। यही उसके काव्य की पूर्णता और विशेषता है।

महात्मा गांधी

सर्जन एक यंत्रणा भरी प्रक्रिया है।

अज्ञेय

रूपदक्षता की चरम सीमा तो वही है, जहाँ रचना का रूप, रंग सब कुछ रूपदक्षको भुला दे, सिर्फ़ उसके द्वारा प्रद्त्त रूप-माधुरी मन को परिपूर्ण कर दे।

अवनींद्रनाथ ठाकुर

यह जो रूप-रूप में भिन्नता है, यह सभी की नज़र में पड़ रही पोग किंतु, इस भिन्नता को चित्र में या कविता में या उक्ति में प्रस्तुत कर दिखाने का कौशल सभी के पास नहीं होता है।

अवनींद्रनाथ ठाकुर

सुंदर कृति के सभी रचनाकार अपने को गुप्त रखते हैं, किंतु, जो सुंदर होता है वह अपने आप आगे जाता है।

अवनींद्रनाथ ठाकुर

कवि को यदि रचना की प्रक्रिया से अलौकिक आनन्द की प्राप्ति नहीं हो, तो उसकी कविता से पाठकों को भी आनन्द नहीं मिलेगा। कला की सारी कृतियाँ पहले अपने-आपके लिए रची जाती हैं।

रामधारी सिंह दिनकर

पाणिनि ने जब व्याकरणशास्त्र की रचना करने की बात सोची, तो उन्होंने घूम-घूमकर शब्द-सामग्री का संकलन किया, और जो देश की भिन्न-भिन्न राजधानियाँ या प्रसिद्ध स्थान थे, उनमें जाकर उन्होंने उच्चारण, अर्थों, शब्दों, मुहावरों और धातुओं के विषय में अपनी सामग्री का संकलन किया।

वासुदेवशरण अग्रवाल

जिसकी रचना को जनता का हृदय स्वीकार करेगा उस कवि की कीर्ति तब तक बराबर बनी रहेगी जब तक स्वीकृति बनी रहेगी।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल

सुंदर और उपयोगी वस्त्रों का निर्माण भारतवर्ष की राष्ट्रीय कला है।

वासुदेवशरण अग्रवाल

राष्ट्र की फूँक से राष्ट्रीयता का गौरव तो जल उठता है, किंतु फूलों का मुख नहीं खुलता है। राष्ट्र का बनाया हुआ है नेशनल पार्क—उसमें भी फूँक मारने से फूल नहीं खिलते हैं।

अवनींद्रनाथ ठाकुर

हम बाल अधिकार की बात भले करें, रचना का बुनियादी अधिकार देने की मनस्थिति में हम फ़िलहाल नहीं हैं, क्योंकि रचना का अर्थ होता है–अपना मन ख़ुद बनाने का अधिकार। इस अधिकार का उपयोग करना करना भी अधिकार में शामिल है।

कृष्ण कुमार

साहित्य मेरी दृष्टि में किसी एक पक्ष की वकालत होकर दो या दो से अधिक पक्षों की अदालत है। इस अदालत का न्यायप्रिय, संतुलित, निष्पक्ष और मानवीय होना मैं बहुत ज़रूरी समझता हूँ।

कुँवर नारायण

अस्ल में साहित्य एक बहुत धोखे की चीज़ हो सकती है।

गजानन माधव मुक्तिबोध

मानव की क्षमता बहुत स्वल्प है, फिर भी ईश्वर ने उसे भिखारी नहीं बनाया।

रवींद्रनाथ टैगोर

साहित्य-शिक्षा का एक आनुषंगिक लक्ष्य यह भी होता है कि छात्रों में रचना-शक्ति का विकास हो।

रवींद्रनाथ टैगोर

एक ख़ास तरह का मध्यवर्ग शहर में विकसित होता रहा है, जो गाँवों से आया है। आधुनिक हिंदी साहित्य उन्हीं लोगों का साहित्य है।

केदारनाथ सिंह
  • संबंधित विषय : लोक

बड़े शहरों की जो बात मुझे सबसे ज़्यादा बुरी लगती है, वह यह कि वहाँ का कलाकार अपनी कला को बेचना चाहता है। उसके भीतर अपनी कला की रचना करने से ज़्यादा, बेचने का भाव भरा होता

लास्ज़लो क्रास्ज़्नाहोरकाई

कष्ट-कल्पित रचना और सहज रचना, दोनों को अगर पास-पास रखा जाए तो समझ में जाता है कि कहाँ पर रचनाकर अपनी शक्ति के प्रयोग के विषय में थोड़ा अधिक सचेत रहा है और कहाँ पर वह इस विषय में ज़रा भी सजग नहीं रहा है।

अवनींद्रनाथ ठाकुर

कला ग़लत ढंग से बनाई गई दुनिया से ही जन्म लेती है।

आन्द्रेई तारकोवस्की

जो ऊपरी सतह पर स्पष्ट दिख रहा हो, उससे असंतुष्ट होने पर ही, वैकल्पिक संसार की रचना करने के ख़याल से कोई कलम उठाता है।

मृदुला गर्ग

जैसा समाज हम बनाएँगे, उसी के अनुसार कला और साहित्य की क़ीमत तय होगी।

केदारनाथ सिंह

रचनात्मक काम के बिना हम रह भी कैसे सकते हैं! उसके बग़ैर स्वराज चीज़ हो भी क्या सकती है?

महात्मा गांधी

मनुष्य वृहत् मंगल-सृष्टि तपस्या द्वारा ही करता है।

रवींद्रनाथ टैगोर