
दुनिया में नाम कमाने के लिए कभी कोई फूल नहीं खिलता है।

कवि को लिखने के लिए कोरी स्लेट कभी नहीं मिलती है। जो स्लेट उसे मिलती है, उस पर पहले से बहुत कुछ लिखा होता है। वह सिर्फ़ बीच की ख़ाली जगह को भरता है। इस भरने की प्रक्रिया में ही रचना की संभावना छिपी हुई है।


अब अभिव्यक्ति के सारे ख़तरे उठाने ही होंगे। तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब।

हर प्रकाशित पंक्ति साहित्य नहीं होती, बल्कि सच्चाई यह है कि हर युग में अधिकांश साहित्य ‘पेरिफ़ेरी’ का साहित्य होता है जो सिर्फ़ छपता चला जाता है।

लिखना चाहे जितने विशिष्ट ढंग से, लेकिन जीना एक अति सामान्य मनुष्य की तरह।

साहित्य मेरी दृष्टि में किसी एक पक्ष की वकालत न होकर दो या दो से अधिक पक्षों की अदालत है। इस अदालत का न्यायप्रिय, संतुलित, निष्पक्ष और मानवीय होना मैं बहुत ज़रूरी समझता हूँ।

यदि कवि अपनी कविता की व्याख्या करने के लिए व्याकुल होता है तो इसका यही अर्थ हो सकता है कि या तो उसे पाठक के विवेक पर भरोसा नहीं है अथवा अपनी कृति के सामर्थ्य पर।

अस्ल में साहित्य एक बहुत धोखे की चीज़ हो सकती है।

जिस किताब में अच्छी कविता होती है, उसके पास दीमकें नहीं फटकतीं।

एक ख़ास तरह का मध्यवर्ग शहर में विकसित होता रहा है, जो गाँवों से आया है। आधुनिक हिंदी साहित्य उन्हीं लोगों का साहित्य है।

बहुत सारी क़लमों की स्याही सही शब्द लिखे जाने की प्रतीक्षा में रुलाई बनकर लीक हो जाती है।

हर रचना अपने व्यक्तित्व को बिखरने से बचाने का प्रयत्न है।

कोई ज़रूरत नहीं कि कथाकार कहानी के अंत में पाठक पर आस्था थोप ही दे।

संगठित राजनीति और रचना में तनाव का रिश्ता होना चाहिए और सत्ता और रचना में भी तनाव का रिश्ता होना चाहिए।

प्रशंसा का अधिकांश भाप बनकर उड़ जाने के लिए ही बना होता है।

कविता केवल उसी दिन निरस्त हो सकती है, जिस दिन किसी विस्फोटक से मानव-मन से भाषा को उड़ा दिया जाएगा।

साहित्यकार को चाहिए कि वह अपने परिवेश को संपूर्णता और ईमानदारी से जिए।

साहित्य की पौध बड़ी नाज़ुक और हरी होती है। इसे राजनीति की भैंस द्वारा चर लिए जाने से बचाए रख सकें तभी फ़सल हमें मिल सकती है।

जैसा समाज हम बनाएँगे, उसी के अनुसार कला और साहित्य की क़ीमत तय होगी।

समय या इतिहास में लौटना एक सैद्धांतिक संभावना तो है ही और समर्थ रचनाकारों के हाथों में यह एक सशक्त हथियार रहा है।

जीवन-बोध, केवल वस्तुगत नहीं, चेतना-सापेक्ष होता है, और साहित्य की निगाह दोनों पर रहती है।

असामंजस्य देखने का काम बुद्धि करती है। परिभाषा बदलने का काम कल्पना करती है।

किसी अच्छी किताब की मुकम्मल समीक्षा के लिए शायद दूसरी ही किताब लिखनी पड़ती है और फिर भी लगेगा कि कुछ छूट-सा गया है।

यात्रा-साहित्य खोज और विश्लेषण से जुड़ा है। यह लेखक के ऊपर निर्भर करता है कि वह अपनी यात्राओं में किन चीज़ों को महत्त्व देता है।

सूक्ष्मता से देखना और पहचानना साहित्यकार का कर्तव्य है—परिवेश से ऐसे ही सूक्ष्म लगाव का संबंध साहित्य से अपेक्षित है।

साहित्य में कोई पक्ष-विपक्ष नहीं होता। पक्षधरता राजनीति का स्वभाव है।

प्रत्येक कवि हर समय ऐसा नहीं लिखता जो ‘साहित्य’ भी हो तथा प्रकाश्य भी।

एक प्रसिद्ध उक्ति है कि ‘अच्छे साहित्य’ का निर्धारण आलोचक करते हैं, लेकिन ‘महान साहित्य’ वही हो पाता है जिसे समाज स्वीकृत करता है।

कविता लिखते हुए मेरे हाथ सचमुच काँप रहे थे। तब मैंने कहानियाँ भी लिखनी आरंभ कीं। यह सोचकर कि रचना से रचना का यह कंपन कुछ कम होगा।

लोग बड़ी गंभीरता से ऐसा बताते हैं कि आजकल सब कुछ ‘की-पैड’ से लिखा जाता है।

रचना का कहीं न कहीं एक ख़ास तरह की रचनात्मक मुक्ति से गहरा संबंध होता है और उसी मुक्ति में मेरा विश्वास है।

साहित्य को न केवल सामाजिक होना है, बल्कि विवेकशील ढंग से सामाजिक होना है, यह बात आधुनिक नहीं लगती कि साहित्यकार अपने आपको सुशिक्षित रखने की ज़िम्मेदारी से बचे।

इस बात से किसी को असहमति नहीं हो सकती कि नयापन और अलगपन अपने-आपमें कोई मूल्य नहीं है। वह फ़ैशन भी हो सकता है और विदूषकता भी।

रचनात्मक प्रक्रिया के सिलसिले में ‘बौद्धिक’ शब्द से जो ध्वनि निकलती है, वह तनिक भ्रामक है।

यह कहना कठिन है कि अनुभूति से विचार उपजता है या विचार से अनुभूति—या ये दोनों अलग-अलग हैं भी या नहीं...

किसी रचना की प्रक्रिया की पड़ताल वस्तुत: वह जिस तरह से भाषा में ढली है, उसकी पड़ताल है।

मनुष्य होना मेरी नियति थी, और लेखक मैं स्वेच्छा से, अर्जित प्रतिभा और अर्जित संस्कारों से हुआ हूँ।

लेखक के संप्रेषण में ईमानदारी है तो रचना सशक्त होगी—चाहे जिस विधा की हो।

साहित्य निजता की उपलब्धि है।

काग़ज़ केवल शब्द लिखने के लिए नहीं बना है। इस पर ध्वनि, रस, गंध और स्पर्श को भी लिखकर देखा जाना चाहिए।

साहित्यकार को इसकी चिंता नहीं करनी चाहिए कि वह समाज को संगुम्फित करे।

साहित्य की यह ताक़त कि वह हर चीज़ को खाद में बदल ले, बड़ी ताक़त है। मीडिया को भी इस रूप में पचाने की ताक़त साहित्य रखता है, कला रखती है, ऐसा मेरा विश्वास है।

कहानी लिखना केवल कहानी ही लिखना नहीं है, गद्य लिखना भी है।

साहित्य की प्रमुख चिंता इसमें है कि वह उन स्थायी सचाइयों पर भी हमारी पकड़ ढीली न होने दे जिन पर एक उदार और मानवीय संस्कृति की नींव पड़नी चाहिए।

भावनाएँ अस्तित्व की निकटतम अभिव्यक्ति हैं।

साहित्यिक आदान-प्रदान की दुनिया में कोई भी प्रभाव आकस्मिक नहीं होता।

गद्य को तोड़ने और बनाने का अपना एक अलग मज़ा है।

दरअस्ल, अस्मिता का प्रश्न अतीत के प्रश्न से जुड़ा हुआ है। कोई भी रचनाकार अपनी अस्मिता की तलाश अपनी परंपरा के बाहर जाकर नहीं कर सकता।

साहित्य के मर्म को समझने का अर्थ है—वास्तव में मानव-जीवन के सत्य को समझना। साहित्य अपने व्यापक अर्थ में मानव-जीवन की गंभीर व्याख्या है।