मानसिक रस की विकृति से भी हममें उन्मत्तता आ जाती है, तब फिर वह किसी तरह के बंधन को नहीं मानता है, अधैर्य, अशांति से वह उच्छ्वसित हो उठता है।
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हिंदुस्तान में पढ़े-लिखे लोग कभी-कभी एक बीमारी के शिकार हो जाते हैं। उसका नाम ‘क्राइसिस ऑफ़ कांशस’ है। कुछ डॉक्टर उसी में 'क्राइसिस ऑफ़ फेथ' नाम की एक दूसरी बीमारी भी बारीकी से ढूँढ़ निकालते हैं। यह बीमारी पढ़े-लिखे लोगों में आमतौर से उन्हीं को सताती है जो अपने को बुद्धिजीवी कहते हैं और जो वास्तव में बुद्धि के सहारे नहीं, बल्कि आहार-निद्रा-भय-मैथुन के सहारे जीवित रहते हैं (क्योंकि अकेली बुद्धि के सहारे जीना एक नामुमकिन बात है)। इस बीमारी में मरीज़ मानसिक तनाव और निराशावाद के हल्ले में लंबे-लंबे वक्तव्य देता है, ज़ोर-ज़ोर से बरस करता है बुद्धिजीवी होने के कारण अपने को बीमार और बीमार होने के कारण अपने को बुद्धिजीवी साबित करता है और अंत में इस बीमारी का अंत कॉफ़ी-हाउस की बहसों है, शराब की बोतलों में, आवारा औरतों की बाँहों में, सरकारी नौकरी में और कभी-कभी आत्महत्या में होता है।
केवल तीव्र मानसिक प्रतिक्रिया को व्यक्त करने के रूप-साधन, व्यापक मानव-जीवन के विशेष प्रवाहों और मार्मिक पक्षों के उद्घाटन और चित्रण में असमर्थ हैं।
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नैतिक गिरावट स्वयं एक लक्षण है, जो अन्य घटना-क्रमों या अन्य मानसिक विकार-दृश्यों का कारण हो सकती है।
मानसिक रूप-विधान का नाम ही संभावना या कल्पना है।
मनुष्य के आध्यात्मिक विकास के लिए अवकाश की ही आवश्यकता है, शारीरिक श्रम उसका विरोधी है।
आप फ्रायड के नियमों को मानें या नहीं, उसका यह महत्त्वपूर्ण योगदान स्वीकार करना होगा कि कोई व्यक्ति पूरी तरह से सामान्य नहीं होता।
अपनी उपलब्धियों से संतुष्टि का अनुभव हमें हमारे चारों ओर मौजूद खतरों का अवलोकन करने से रोकता है।
भले ही कोई मनोरोगी इलाज न हो पाने की दशा में अपनी उपयोगिता क्यों न खो दे, लेकिन उसके भीतर एक मनुष्य होने की गरिमा व मर्यादा हमेशा बरकरार रहती है।
जिन्हें नींद नहीं आती वे अपराधी लोग होते हैं क्योंकि उन्हें आत्मा की शांति की बाबत कुछ पता नहीं होता और वे अपनी सनकों से प्रताड़ित होते रहते हैं।
अब मनुष्य के मस्तिष्क को केवल एक मशीन या तंत्र भर नहीं समझा जाता। कुछ नए आयाम भी सामने आ रहे हैं और मनोचिकित्सा को मानवीय आधारों पर लागू किया जाने लगा है।
ऑक्सीजन की कमी दिमाग़ को थका देती है।
जिस तरह आईने के आविष्कार ने हमारे शारीरिक स्वरूप को बदल दिया, उसी तरह प्रतिबिंब या अपने अंदर झाँकने की यह आदत हमारे मानसिक स्वरूप को बदल सकती है।