कलावान् गुणीजन भी जहाँ पर वास्तव में गुणी होते हैं; वहाँ पर वे तपस्वी होते हैं, वहाँ यथेच्छाचार नहीं चल सकता, वहाँ चित्त की साधना और संयम—है ही है।
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एक सुभाषित है—'कवितारसमाधुर्य्यम् कविर्वेत्ति’, कविता का रस-माधुर्य सिर्फ़ कवि जानता है। ठीक उसी प्रकार सुर में सुर मिलना चाहिए, नहीं तो वाद्ययंत्र कहेगा ‘गा’ और गले से निकलेगा ‘धा’।
सच्चा लेखक जितनी बड़ी ज़िम्मेदारी अपने सिर पर ले लेता है, स्वयं को उतना अधिक तुच्छ अनुभव करता है।
मौत तारकोल-सी स्याह है, पर रंग रोशनी से भरे होते हैं। एक चित्रकार होने के नाते हरेक को रोशनी की किरणों को साथ लेकर काम करना चाहिए।
एक फ़ोटोग्राफ़र का जो कौशल होता है, उसका योग वस्तु के बाह्य रूप के साथ होता है और एक शिल्पी का जो योग होता है, वह उसके भीतर-बाहर के साथ वस्तु के भीतर-बाहर का योग होता है, और उस योग का पंथ होता है कल्पना और यथार्थ घटना—दोनों का समन्वय कराने वाली साधना।
लेखक का दिल, कवि का दिल, कलाकार का दिल, संगीतकार का दिल हमेशा टूटता रहता है। हम उस टूटी खिड़की से दुनिया को देखते हैं…
महान् कलाकारों की रचनाएँ तो हमारे बीच उदित और अस्त होने वाले सूर्य जैसी हैं। प्रत्येक महान् कृति जो आज अस्ताचल की ओर चली गई है, वही कल उदयाचल में प्रकट होगी।
कलाकार का काम मानव हृदय में प्रकाश भेजना है।
वे कभी इस बात पर ग़ौर नहीं करेंगे कि ये कलाकृतियाँ मुश्किल घड़ियों और बहुत नाज़ुक पलों में बनाई गईं, कि ये कलाकृतियाँ कोरी आँखों से बिताई गईं रातों का नतीजा हैं, कि इन कलाकृतियों ने मुझसे मेरे ख़ून की क़ीमत वसूली है और मेरी शिराओं को कमज़ोर किया है… हाँ, वे कभी इस बात पर ग़ौर नहीं करेंगे।
एक छोटे कलाकार के पास एक महान कलाकार के सभी त्रासिक दुःख और संताप होते हैं और वह महान कलाकार नहीं होता।
सुरूप-कुरूप दोनों को मिलाकर सुंदर की अखंड मूर्ति की कल्पना करना कठिन ज़रूर है किंतु मनुष्य के लिए एकदम असंभव है, यह नहीं कहा जा सकता है। भक्त, कवि और आर्टिस्ट—इनके लिए सुंदर-असुंदर जैसी कोई चीज़ है ही नहीं, सभी चीज़ों और भावों में जो वस्तु नित्य है, उसी को वे सुंदर रूप में मानते हैं।
कोई भी भगोड़ा और कलाकार बनकर एक ठोस नागरिक, एक ईमानदार और सम्मानजनक आदमी नहीं हो सकता।
साहित्य या कला-रचना में मनुष्य की जिस चेष्टा की अभिव्यक्ति होती है, उसे कुछ लोग मनुष्य की खेल करने की प्रवृत्ति जैसा मानते हैं।
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लोगों को कलाकार की निजी मंशा को जानने की ज़रूरत नहीं है। उसका काम ही सब कुछ दर्शाता है।
'आदानेक्षिप्रकारिता प्रतिदाने चिरायुता' अर्थात् ग्रहण करने में शीघ्रता करनी चाहिए किंतु जब दूसरों को देने का अवसर आए तब उसमें देर लगानी चाहिए। शिल्पी पर शास्त्रकार ने यह जो आदेश लागू किया है, उसका एक अर्थ है कि वस्तु के कौशल और रस को चटपट ग्रहण करना चाहिए। किंतु प्रस्तुत करते समय सोच-समझकर चलना चाहिए।
अभिनेता ही ईमानदार ढोंगी होते हैं। उनका जीवन एक संकल्पित स्वप्न है और उनकी आकांक्षाओं की चरम परिणति है स्वयं के अतिरिक्त कुछ होना। वे दूसरे मनुष्यों के भाग्यों की पोशाकें पहनते हैं। उनके अपने विचार भी अपने नहीं होते।
एक सामान्य मनुष्य के मन पर सुंदर-असुंदर की जैसी प्रतिक्रिया होती है, वैसी ही प्रतिक्रिया एक कलाकार के मन पर भी होती है।
आप शिक्षित लोग और कलाकारों के पास, निस्संदेह, आपके सिर में श्रेष्ठ चीज़ें हैं; लेकिन आप भी बाक़ी की तरह इंसान हैं।
एक शिल्पी जिसे छू लेता है, वही सोना हो जाता है। हालाँकि बेचारा किसी भी दिन अपने बाल-बच्चों के शरीर को उस सोने से कभी लाद नहीं पाता।
मधुकर मधु लेकर तृप्त हो जाए; इससे फूल को जितना आनंद मिलता है, इसकी अपेक्षा एक शिल्पी की सजीव आत्मा, एक समझदार पारखी इससे भी आनंदित होती है, यह सत्य है, किंतु यह उसका ऊपरी पाना होता है। मिल जाए तो भी अच्छा है, न मिले भी अच्छा।
एक इतिहासकार का मापदंड घटनाप्रधान होता है, डॉक्टर का मापदंड शरीर प्रधान होता है, और जो रचनाकार होते हैं, उनका मापदंड अघटन-घटना-पदीयसी माया प्रधान होता है।
पश्चिम का कलाकार रूप (फ़ार्म) की खिड़की से देखकर वस्तु को संवेद्य बनाता है, उसका संप्रेषण करता है। भारत का कलाकार प्रतीक की खिड़की से वस्तु को नहीं, वस्तु के पार वस्तु-सत् को संवेद्य बनाता है।
कविता की तरह चित्रकला भी मनुष्य की कोमल भावनाओं का परिणाम है। जो काम कवि करता है, वही चित्रकार करता है, कवि भाषा से, चित्रकार पेंसिल या कलम से। सच्ची कविता की परिभाषा यह है कि तस्वीर खींच दे। उसी तरह सच्ची तस्वीर का यह गुण है कि उसमें कविता का आनंद आए। कवि कान के माध्यम से आत्मा को सुख पहुँचाता है और चित्रकार आँख के द्वारा और चूँकि देखने की शक्ति सुनने की अपेक्षा अधिक कोमल और संवेदनशील होती है, इसीलिए जो बात चित्रकार एक चिन्ह, एक रेखा, या ज़रा से रंग से पूरा कर देगा, वह कवि की सैकड़ों पंक्तियों से न अदा हो सकेगी।
हमारी आँकों के समक्ष प्रकृति की जो लीला चल रही है, उसमें एक कारीगर और एक रूपांकन में दक्ष व्यक्ति इन दोनों के हाथ एक साथ काम करते हैं।
जब विशाल मन विराट सुंदरता को पकड़ना चाहता है तब बड़ी मुक्ति की उसे ऐकांतिक रूप से ज़रूरत पड़ती है। किंतु जहाँ पर मन अत्यंत छोटा हो, वहाँ कला की दृष्टि से यह बड़ी स्वाधीनता देने का अर्थ है, बच्चे के हाथ में आग की मशाल देना।
जो आदमी सच्चा कलाकार है, वह स्वार्थमय जीवन का प्रेमी नहीं हो सकता।
कला हमेशा मनुष्य का चुनाव करती है, जो मूर्त है, कला सैधान्त्तिक नहीं होती।
जो बिल्कुल कलाकार नहीं है, सिर्फ़ उसके लिए ही अलग और खंडित भाव के एक आदर्श सौंदर्य की कल्पना करना संभव है।
एक शिल्पी की अपेक्षा संसार में एक कारीगर की ही वाहवाह अधिक होती है, क्योंकि एक कारीगर वाहवाही पाकर ही कुछ गढ़ता है, और एक शिल्पी गढ़ता चलता है अपने काम के साथ, अपने को खिलता हुआ महसूस करते-करते।
कलाकार क्या है? वह अपने युग की स्फूर्ति के प्रकाश के रंग में डूबी भगवान की प्राणवान प्रेरक और कल्पक कूँची है।
कलाकार का काम है, नज़रें न हटाना।
हमारे लेखकों व कलाकारों को अपना साहित्यिक व कलात्मक सृजन-कार्य करना होगा, लेकिन उनका सर्वप्रथम कार्य है जनता को समझना और उसका अच्छी तरह परिचय प्राप्त कर लेना।
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कष्ट-कल्पित रचना और सहज रचना, दोनों को अगर पास-पास रखा जाए तो समझ में आ जाता है कि कहाँ पर रचनाकर अपनी शक्ति के प्रयोग के विषय में थोड़ा अधिक सचेत रहा है और कहाँ पर वह इस विषय में ज़रा भी सजग नहीं रहा है।
कलाकार भटकता न रहे, उद्भ्रांत न रहे, किसी प्रयोजन में नियोजित कर दिया जाए तो वह बड़ी शक्ति बन जाता है। नहीं तो वह अपने को ही खाता है।
बड़े शहरों की जो बात मुझे सबसे ज़्यादा बुरी लगती है, वह यह कि वहाँ का कलाकार अपनी कला को बेचना चाहता है। उसके भीतर अपनी कला की रचना करने से ज़्यादा, बेचने का भाव भरा होता
जो लोग चाहते हैं कि लेखक और कवि किसी एक विचारधारा के दास बन जाएँ, वे कलाकारों से व्यक्तित्व का हरण करके उनके ऊपर अपनी पसंद का चरित्र थोपना चाहते हैं।
कला ग़लत ढंग से बनाई गई दुनिया से ही जन्म लेती है।
योगी न होते हुए भी सच्चा कलाकार वितर्क का अतिक्रमण करके विचार और आनंद की भूमिकाओं के बीच पेंगें मारता रहता है। साधना के अभाव के कारण वह किसी एक जगह टिक नहीं सकता, परंतु थोड़ी देर के लिए उसको सत्य की जो आभा देख पड़ती है, जड़ चेतन के आवरण के पीछे अर्द्ध-नारीश्वर की जो झलक मिलती है, वह उसको इस जगत के ऊपर उठा देती है, उसके जीवन को पवित्र और प्रकाशमय बना देती है।
सामान्य मनुष्य के साथ कलाकार का सिर्फ़ मन की अनुभूति को व्यक्त करने की क्षमता और अक्षमता को लेकर अंतर होता है, दुःख पाने पर सामन्य मनुष्य बेजार होकर रोना—धोना शुरू कर देता है, कलाकार रोता नहीं है, किंतु उसके मन का रुदन कला के माध्यम से एक अपरूप सुंदर छंद में व्यक्त होता है।
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अगर आप लेखक या कलाकार हैं तो मुझे लगता है, आप प्रगति की अवधारणा पर गहरा संदेह करेंगे। आज प्रगति की अवधारणा एक ऐसी पवित्र अवधारणा हो गई है कि अगर आप किसी की प्रशंसा भी करना चाहते हैं तो आप कहेंगे कि वह बहुत प्रगतिशील व्यक्ति है।
निश्चय ही कलाकार, जो मानव है—एक ऐसा व्यक्ति है, जो अविभाज्य, समग्र और पूर्ण है। व्यक्ति का अर्थ है जो अविभाजित है, किंतु हम अविभाजित नहीं हैं।
एक कलाकार चाहे जिस उद्देश्य से काम क्यों न करे, कला की ओर देखकर ही काम करना उसका मुख्य कार्य होता है।
कला के उद्देश्यों और कलाकार की प्रतिबद्धता की बहस की भाषा, अब ‘कला कला के लिए’ वाले स्तर से बहुत दूर जा चुकी है।
शिल्पी चाहे निम्न जाति का ही क्यों न हो पर उसने शिल्प के साथ पाणिग्रहण किया है, इसी कारण शिल्पी सदा शुद्ध और पवित्र होता है—यह बात भारतवर्ष के ऋषि लोग कह गए हैं; किंतु जहाँ पर इस शिल्प का स्पर्श आजकल के हम मशीनी आदमियों ने कर लिया है—वहीं वह मलिन हो गया है।
हरेक कारीगर जो अपने धंधे में कलावृत्ति दिखाए, प्रोत्साहन देने योग्य समझा जाए, और कला की इस तरह से उन्नति करने की ओर राज्य को प्रथम ध्यान देना चाहिए।
कलाकार इसलिए है, क्योंकि संसार अपूर्ण है।
हमारे अंदर न केवल वैज्ञानिक है अपितु कवि व कलाकार भी हैं और एक क्षमतावान संत के अंश भी है। यदि जीवन-नाटक को ठीक से खेलना है तो इनमें से हैं। चरित्र को अपनी पूर्ण योग्यता से अपना अभिनय करना चाहिए।
कलाकार का काम होता है रूप के भेदाभेद का ज्ञान और उसके रहस्य को व्यक्त करना। इसीलिए कलाकार शब्द का सही प्रतिशब्द होता है 'रूपदक्ष’।
कलाकार होने का मतलब है—अपनी नज़रों को कभी नहीं फेरना।