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अब्दुल बिस्मिल्लाह के जन्मदिन पर राजकमल प्रकाशन ने मनाया ‘उपलक्ष्य 75’

हिंदी कथा-संसार में हाशिए के लोगों की पीड़ा और जीवन-संघर्ष को शब्द देने वाले कथाकार अब्दुल बिस्मिल्लाह अपने जीवन के पचहत्तर बरस पूरे कर चुके हैं। उनकी रचनाएँ गाँव-समाज, बोली-बानी और साधारण मनुष्य के संघर्षों का जीवंत दस्तावेज़ रही हैं। इस अवसर पर 19 अगस्त की शाम, इंडिया इंटरनेशनल सेंटर (एनेक्स), नई दिल्ली में राजकमल प्रकाशन ने उनके रचना-जीवन का उत्सव मनाने के लिए विशेष कार्यक्रम ‘उपलक्ष्य 75’ का आयोजन किया। इसी मौक़े पर उनके संस्मरणों की किताब ‘स्मृतियों की बस्ती’ का लोकार्पण भी हुआ।

कार्यक्रम में आलोचक व ‘आलोचना’ पत्रिका के संपादक प्रोफ़ेसर संजीव कुमार तथा द वायर उर्दू के संपादक फ़ैयाज़ अहमद वजीह ने अब्दुल बिस्मिल्लाह से संवाद किया। वहीं राजकमल उर्दू के संपादक तसनीफ़ हैदर और रंगकर्मी-अध्यापक नेहा राय ने उनकी कृतियों के चयनित अंशों का पाठ प्रस्तुत किया। सभागार कार्यक्रम शुरू होने से लेकर देर शाम तक भरा रहा। लोग ज़मीन पर बैठकर, दीवारों से टिककर अपने प्रिय लेखक को सुनते रहे।

बेआवाज़ लोगों की आवाज़ हैं अब्दुल बिस्मिल्लाह की रचनाएँ

कार्यक्रम की शुरुआत में तसनीफ़ हैदर ने कहा, अब्दुल बिस्मिल्लाह हमारी उस साहित्यिक परंपरा का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो असल मायनों में बेआवाज़ लोगों को आवाज़ देती है। वे लोग जो अपने हक़ में बोल नहीं पाते या समाज की नाइंसाफ़ी को सामने नहीं ला पाते, उनकी पीड़ा और अनुभव बिस्मिल्लाह की कहानियों के ज़रिये ताक़तवर और असरदार ढंग से हमारे सामने आते हैं।

अब्दुल बिस्मिल्लाह से संवाद शुरु करते हुए प्रोफ़ेसर संजीव कुमार ने कहा, बिस्मिल्लाह जी लेखन में परफ़ैक्शनिस्ट हैं, अपनी रचनाओं को वह बहुत बारीकी से बुनते हैं। उनकी रचनाओं में कितनी विविधता है, कितने ही स्थान, कितने ही लोग। उनका रचना-संसार देखें तो ये कम से कम 90 वर्ष के लगते हैं।
इस पर अब्दुल बिस्मिल्लाह ने कहा, मेरा जीवन एकरेखीय नहीं रहा। जन्म इलाहाबाद के बलापुर में हुआ, बचपन मध्यप्रदेश में बीता, फिर माँ और पिता के निधन के बाद अलग-अलग जगहों पर रहना पड़ा। कभी एक जगह ठहरने की नौबत ही नहीं आई। इतने रंग देखे, जीवन को इतने रूपों में जिया कि वह सब मेरे भीतर भरता चला गया। वही सब है जो जब-तब कागज़ पर उतर आया, जिसे आप मेरी रचनाओं में पढ़ते हैं।

मुस्लिम समुदाय का जातीय विमर्श रहा लेखन का मुख्य विषय

इसी संवाद में फ़ैयाज़ अहमद वजीह ने उनसे पूछा कि आपकी अधिकतर रचनाओं में मुस्लिम समुदाय की सामाजिक स्थिति और जाति का विमर्श मुख्य विषय रहा है। धर्म की इस सच्चाई को, जिसे अक्सर छिपाया गया, आपने कैसे लिखा?

इसके जवाब में उन्होंने एक वाक़या सुनाते हुए कहा, जब मुझे पहली बार यह पता चला कि मुसलमानों में भी जाति होती है तो मैंने इस पर ध्यान देना शुरु किया। धीरे-धीरे चीज़ें उजागर हुईं तो समझ आया कि यह रोग बहुत गहरा है। इतिहास की किताबें पढ़ते हुए, मैं उनमें धर्मपरिवर्तन के बारे में ढूँढ़ता था। क्योंकि जाति की पूरी अवधारणा पेशे पर आधारित है, इसलिए जो लोग धर्मांतरण करके मुसलमान बने, उनके पेशे बाद में भी वही रहे, तो उनकी जाति भी वही रही। इससे उनकी सामाजिक स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया। जो पहले अछूत समझे जाते थे, वे मुसलमान बनने के बाद भी अछूत ही रहे। जब आरक्षण की सुविधा शुरु हुई तो उसका लाभ उन्हें नहीं मिल सका, इसलिए आज भी वे उसी हाल में हैं।

भाषा और संस्कृति का धर्म से कोई ताल्लुक नहीं होता 

उन्होंने आगे कहा, संस्कृतियाँ हिंदू या मुसलमान नहीं होतीं, वे भौगोलिक होती हैं—किसी इलाक़े या जगह की संस्कृति होती है। जैसे भाषा का धर्म से कोई ताल्लुक नहीं होता, वैसे ही संस्कृति का भी नहीं होता। फिर उन्होंने अपने लेखकीय दृष्टिकोण से जुड़े एक सवाल का जवाब देते हुए कहा, ना मैं मर्दवादी हूँ और ना ही औरतवादी, मैं सिर्फ़ लेखक हूँ। मेरा धर्म यही है कि मैं हमेशा उसके साथ खड़ा रहूँ जो पीड़ित है, और उसके ख़िलाफ़ खड़ा रहूँ जो अत्याचारी है—चाहे वह औरत हो या मर्द।

एक श्रोता के सवाल का जवाब देते हुए उन्होंने कहा, कभी-कभी लगता है कि या तो वह झूठ है, जो मैंने जिया और ‘समर शेष है’ में लिखा, या फिर वह झूठ है जो मैं आज हूँ। ये दोनों एक साथ सच नहीं हो सकते। शायद सच कहीं बीच में है, उस जीवन की यादों में जिसे मैंने काग़ज़ पर उतारा और इस वर्तमान की हक़ीक़त में जिसे जी रहा हूँ। दोनों ही मुझे बार-बार टटोलते हैं, जैसे मैं अपने ही सच की तलाश में भटक रहा हूँ।

विकट अखाड़ेबाज़ हैं अब्दुल बिस्मिल्लाह : अशोक महेश्वरी

कार्यक्रम की शुरुआत में राजकमल प्रकाशन समूह के अध्यक्ष अशोक महेश्वरी ने अपने स्वागत वक्तव्य में कहा, अब्दुल बिस्मिल्लाह 75 वर्ष के हो गए, यह यक़ीन करना कठिन है। लगता है जैसे कल की ही बात है, जब वह कमला नगर में हमारे घर आए थे। वह ‘समर शेष है’ के आने की आहट थी और उन्होंने बताया था कि यह उनके अपने जीवन के बारे में लिखी किताब है। यह बाद में पता चला कि वह संस्कृत, फ़ारसी, उर्दू और हिंदी के प्रकांड पंडित हैं। संस्कृत के श्लोकों और ग़ालिब के शेरों पर नामवर जी से बहस करते हुए उन्हें कई बार देखा है। इन्होंने एक से एक बड़ी रचनाएँ लिखी हैं। मुझे ‘कुठाँव’ इनमें सबसे निराला लगता है। ‘झीनी झीनी बीनी चदरिया’ के बाद उन्हें हत्या की धमकियाँ मिलीं और बरसों तक उनका बनारस जाना टलता रहा। ‘कुठाँव’ के प्रकाशन के समय भी इसकी आशंका थी, लेकिन उस पर उतनी चर्चा नहीं हो पाई, यह ख़राब भी लगा। बिस्मिल्लाह जी विकट अखाड़ेबाज़ हैं—वाद-विवाद और संवाद के अचूक निशानेबाज। तर्क-वितर्क की अखाड़ेबाजी में जो थोड़े लोग बचे हैं, उनमें ये अप्रतिम हैं।

उपलक्ष्य 75 : राजकमल प्रकाशन की विशेष कार्यक्रम शृंखला

यह आयोजन राजकमल प्रकाशन की विशेष कार्यक्रम शृंखला ‘उपलक्ष्य 75’ की पहली कड़ी है। यह उन प्रतिष्ठित लेखकों को समर्पित है, जो इस वर्ष अपने जीवन के 75 वर्ष पूरे कर रहे हैं। ऐसे अनेक लेखक जिनके साहित्यिक अवदान से हिंदी समाज भलीभाँति परिचित है, उनकी रचनात्मक यात्रा को विशेष आयोजनों के माध्यम से रेखांकित किया जाएगा। इस शृंखला के अंतर्गत आने वाले समय में और लेखकों पर कार्यक्रम आयोजित करेंगे।

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