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एक स्त्री : माँ भी, पिता भी

पिता की अनुपस्थिति में पिता बनती एक स्त्री

आज मैं अपने पिता के बारे में नहीं, अपने बच्चे के पिता के बारे में बात करना चाहती हूँ। घर में हम तीन बहनें थीं। सबसे बड़ी बहन को माँ बनने में बहुत कठिनाई हुई थी। शादी के दस वर्षों बाद जाकर उन्हें संतान सुख मिला। माँ इस बात को लेकर बेहद चिंतित रहा करती थीं। वह अक्सर कहा करतीं, “क्या मेरी बाक़ी बेटियाँ भी इसी कठिनाई से गुज़रेंगी?” इसी चिंता ने उनके भीतर एक डर बो दिया था।

जब बड़ी बहन की शादी हुई, माँ ने विदाई के समय यही सलाह दी—“कोई गर्भनिरोधक उपाय मत अपनाना। जो होना है, होने दो। बस समय पर एक बच्चा कर लेना।” बहन ने यह सलाह मानी और शादी के एक वर्ष के भीतर वह बन गईं।

जब मेरी शादी का समय आया, माँ ने मुझे भी वही बातें दोहराईं। शायद उनकी सबसे बड़ी चिंता यही थी—“क्या मेरी बेटी शारीरिक रूप से पूरी तरह ठीक है? क्या यह माँ बन सकेगी?” माँ की इन बातों ने मेरे भीतर भी एक डर बो दिया और शादी के दूसरे ही महीने में मैं गर्भवती हो गई। उस समय यह सवाल मेरे मन में नहीं था कि मैं जीवन में क्या करूँगी। मेरे भीतर एक अजीब-सी संतुष्टि थी कि “सब कुछ ठीक है। मैं माँ बन सकती हूँ।” लेकिन शायद यही वह मोड़ था, जहाँ से मेरी ज़िंदगी एक गहरे संघर्ष की ओर मुड़ने लगी।

जब सपनों के भीतर दरारें दिखने लगीं

मेरे पति, जिनसे मेरी अरेंज मैरिज हुई थी, बचपन से ही कुछ मानसिक चुनौतियों से जूझ रहे थे। लेकिन इस बारे में न तो शादी से पहले बताया गया और न ही किसी ने यह स्वीकार किया कि वह गहरे मानसिक तनाव से गुज़रते हैं। मैं अपने सपनों में राजकुमार की छवि लेकर विदा हुई थी, लेकिन धीरे-धीरे यह एहसास हुआ कि वह राजकुमार तो अपने ही क़िले में बंद हैं।

मेरे पति पहले बैंक में काम करते थे और मानसिक तनाव की वजह से उन्होंने जॉब छोड़ दिया था। अब वह कोई काम नहीं करते थे, घर पर ही रहते; क्योंकि मैं गर्भवती थी तो उनके परिवार के लोग मेरा ख़ूब ध्यान रखते थे, लेकिन इसी के साथ यह ताना भी लगातार सुनने को मिलता, “रसोई का ख़र्च बहुत बढ़ गया है। इतने ख़र्च कैसे उठाए जाएँगे?” ये बातें तब कही जातीं, जब मेरे पति कमरे में नहीं होते। जब मैं उन्हें यह बताती, तो वह यक़ीन ही नहीं करते कि उनके माता-पिता ऐसा कुछ कह सकते हैं।

मैं उस समय जॉब में नहीं थी, लेकिन पढ़ाई पूरी कर चुकी थी। सेंट कोलंबस कॉलेज, हज़ारीबाग से मैंने हिंदी में बी.ए., फिर एम.ए. और बी.एड किया था। शादी के दो साल बाद मेरी नौकरी लगी, लेकिन उससे पहले तक मैं घर के काम, गर्भावस्था और रिश्तों के भारी बोझ के बीच बस चुपचाप अपने हिस्से की ज़िम्मेदारी निभाती रही।

इस चुप्पी में मेरे भीतर की आवाज़ लगातार कमज़ोर हो रही थी। धीरे-धीरे मैं टूट रही थी। मेरी बातों को सुनने और समझने वाला आस-पास कोई नहीं था। ‌अपनी ही दुनिया में मशरूफ़ रहते, उन्हें शादी में बिस्तर से ज़्यादा कुछ समझ में नहीं आया। औरतों का मन, उसकी इच्छाएँ इन सब बातों से अनभिज्ञ वह कहीं खोए रहते।

एक स्त्री का टूटना और फिर ख़ुद को जोड़ना

मेरे पति को न मेरे बात करने का ढंग पसंद था, न मेरा पढ़ना-लिखना। यदि उनके दोस्तों से मैं सामान्य बातचीत कर लेती, तो यह भी उन्हें नागवार गुज़रता। उन्होंने मुझ पर कई बार हाथ उठाया। बात-बात पर कहते, “यहाँ रहना है तो वैसे ही रहना होगा, जैसे हम कहते हैं, नहीं तो वापस अपने घर चली जाओ।” दिन में कई बार यह सुनना मेरे लिए आम हो गया था।

बाद के दिनों में समझ में आया कि उन्हें मेरे ज़रूरत से ज़्यादा स्मार्ट होने से परेशानी थी। उनसे ज़्यादा मुझे तवज्जोह मिलने से परेशानी थी। वह मेरे साथ असुरक्षित महसूस करते थे।

इधर गर्भावस्था के दौरान मैं दिन-रात रोती रहती। यह सोचकर कि जो व्यक्ति मेरे खाने-पीने तक की चिंता नहीं करता, वह मेरे बच्चे की परवरिश कैसे करेगा? लेकिन समय बीता और एक प्यारा-सा बेटा हुआ।

छठी के दिन मेरे स्तनों में दूध नहीं उतर रहा था। मैं डर और अपराधबोध से घिरी हुई थी। यह सोचकर कि अगर दूध नहीं आया तो बच्चे को कैसे पालूँगी। माँ, भाई और बहन छठी पर आए थे। जब मेरा भाई विदा होकर लौट रहा था, तो मैं उसे पकड़कर रो पड़ी थी—“भैया, मत भूलना। आते रहना।” मेरा रोना किसी चीख़ की तरह था, जिसे मैं कई दिनों से भीतर दबाए हुए थी।

मेरे जीवन में एक बहुत बड़ा बदलाव तब आया, जब बेटे के चार महीने के होते ही मेरी पहली नियुक्ति हुई। मात्र ₹12,000 की तनख़्वाह—जो मुझे आत्मनिर्भरता का पहला स्वाद दे गई। अब मुझे किसी से पैसे माँगने की ज़रूरत नहीं थी। मैं अपने बेटे के लिए कपड़े, किताबें, दूध सब कुछ ख़ुद से ख़रीद सकती थी। आत्मसम्मान की रोटी का स्वाद क्या होता है, यह पहली बार मैंने जाना।

हालाँकि छोटे बच्चे की परवरिश के साथ-साथ नौकरी करना बेहद कठिन था। कई बार बच्चों को स्तनपान की ज़रूरत होती और मैं समय पर उसके पास नहीं होती। तब दूध कपड़ों के आर-पार होकर बहता रहता। उन दिनों मैं एक स्टॉल रखा करती थी, ताकि ऐसी स्थिति में अपने स्तनों को ढक सकूँ। इस स्थिति में रहते हुए, मैंने अपने बच्चे की परवरिश की। मेरे बच्चे ने मुझे बहुत मज़बूत बनाया—इस बात की मुझे बेहद ख़ुशी है।

लेखन—मेरा आत्मरक्षण

अपने लिखने-पढ़ने की आदत को मैंने फिर से जिया। अपनी तनख़्वाह से किताबें ख़रीदने लगी। माँ और पिताजी, जो हमेशा मेरी शिक्षा के लिए संघर्ष करते आए थे, अब मेरे सबसे बड़े सहायक बन गए। वे मेरे बच्चे की देखरेख में लगे रहते ताकि मैं स्कूल जा सकूँ। मेरे बच्चे को पालने में मेरे पिता का सबसे ज़्यादा योगदान है। लेकिन पति का रवैया नहीं बदला। उन्होंने कभी एक रूपया हाथ में नहीं दिया। बच्चे की पढ़ाई, कपड़े, स्वास्थ्य—इन सब में उनकी कोई भूमिका नहीं रही। उल्टा यह कहा जाता कि “तुमसे शादी करके मेरी क़िस्मत ख़राब हो गई।” इन तानों से मैं टूट जाती, लेकिन फिर भी अपने बेटे की ओर देखकर ख़ुद को सँभाल लेती।

धीरे-धीरे मैंने लिखना शुरू किया। शुरुआत में यह एक संवाद की तरह था—अपने ही भीतर से। फिर वह डायरी से निकलकर कविता और लेखों में ढलने लगा। यह एहसास हुआ कि मेरे अनुभव सिर्फ़ मेरे नहीं और भी बहुत-सी स्त्रियों के हैं। जो चुप हैं, लेकिन अंदर से टूटी हुई हैं।

एक माँ जो पिता की भूमिका भी निभा रही है

2018 मेरे जीवन का टर्निंग प्वाइंट था। मैंने तय किया कि अब किसी से कोई उम्मीद नहीं रखूँगी। मैंने अपने पति से कह दिया—“अब से मैं किसी की पत्नी नहीं, सिर्फ़ अपने बेटे की माँ हूँ।”

मैंने विपश्यना के बारे में सोचा, परंतु बच्चे के साथ रहकर वह संभव नहीं था। इसलिए मैं घर पर ही रहकर मेडिटेशन करने लगी। अलग-अलग विचारों को जानने और समझने के लिए मोटिवेशनल वीडियो देखने लगी। धीरे-धीरे मैंने ख़ुद को मानसिक रूप से तैयार किया कि अब इस जीवन में मुझे ही अपनी नाव खेनी है। मैंने डरना छोड़ दिया। उम्मीदें छोड़ दीं और तभी मेरा आत्मबल लौटा।

मेरे भीतर की स्त्री अब सिर्फ़ माँ नहीं थी—वह एक संपूर्ण अभिभावक बन चुकी थी। उस स्त्री में अब पिता की हिम्मत और माँ की करुणा दोनों थीं।

एक अधूरा सवाल

आज जब पिता दिवस आता है, तो मैं ख़ुद से पूछती हूँ—“क्या मेरा बेटा भी अपने पिता को याद करता होगा?” उस पिता को जिसने कभी ज़िम्मेदारी नहीं निभाई, न ही परवरिश का कोई हिस्सा लिया। क्या एक माँ सब कुछ होकर भी एक पिता की कमी भर सकती है?

शायद नहीं।

मैंने हर संभव कोशिश की कि मेरे बेटे को दुनिया की हर सुविधा मिले। लेकिन मैं यह नहीं जानती कि वह अपने मन में क्या महसूस करता है, जब वह दूसरों को उनके पिता के साथ देखता है।

मुझे हमेशा यह मलाल रहेगा कि मैं अपने बेटे को सब कुछ देकर भी वह एक चीज़ नहीं दे पाई—उसके पिता की उपस्थिति। और शायद यह मेरे जीवन की सबसे गहरी चुप्पी है।

दुख बीत जाता है

दुख का एक सिरा अतीत में अपने होने की गवाही देता है।

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