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बार्बी : सुंदरता के झूठे मानकों की गुड़िया!

बचपन किसी भी मनुष्य के जीवन की सबसे कोमल और संवेदनशील अवस्था होती है। इस अवस्था में जिन वस्तुओं से हम जुड़ते हैं, वे हमारी सोच, आत्मबोध और समाज को देखने की दृष्टि का आधार बन जाती हैं। लड़कियों के लिए गुड़िया केवल एक खिलौना नहीं, वह बचपन की पहली सहेली होती है। उसकी आँखों में हम अपने सपनों का प्रतिबिंब देखते हैं, और उसकी मुस्कान में अपने भविष्य की कल्पना बुनते हैं।

बचपन की स्मृतियाँ अक्सर धुँधली हो जाती हैं, पर कुछ दृश्य मन के कैनवस पर अमिट रंगों से उकेरे जाते हैं—जैसे लकड़ी की एक सादी-सी गुड़िया, जिसे माँ ने पुराने कपड़ों से सजाया, रूई से उसका शरीर भरा और धागों से उसके बाल बनाए। वह गुड़िया, जो बाज़ार की नहीं, माँ की ममता से जन्मी थी। हमारी पहली दोस्त, पहली श्रोता, उसके साथ हमारे भावुक संवाद होते थे और वह हमारी कल्पनाओं में हर भूमिका निभाती थी—माँ, बहन, शिक्षिका, रानी या परी। उसकी कोई परफ़ेक्ट बॉडी नहीं थी, ना ही सुंदरता के कोई विशेष मानक। फिर भी वह हमारे संसार में ‘परफ़ेक्ट’ थी।

मुझे आज भी याद है—माँ के हाथों से बनी गुड़िया, पुराने कपड़ों और लकड़ी से गढ़ी जाती। वह साधारण-सी पर अनमोल गुड़िया, जिसकी आँखें, नाक और होंठ सुई-धागे से उकेरे जाते। माँ के टूटे-फूटे नक़ली गहनों को जोड़कर जब उसके गहने बनाए जाते, तो वह मेरे लिए किसी राजकुमारी से कम न होती। मैं उसे सीने से लगाकर घर-आँगन में घूमती रहती और उसे अपना सबसे प्यारा साथी मानती! शादी के बाद मम्मी के पास लंबे समय रहने का मौक़ा कोरोना में मिला। लंबी दुपहरों में जब करने को कुछ नहीं रहता तो एक दिन मैंने कहा मेरे लिए बचपन वाली गुड़िया बना दो और फिर हफ़्ते भर की मेहनत के बाद एक सुंदर-सी कपड़े और लकड़ी की गुड़िया बनकर तैयार थी, जो आज भी मेरे पास रखी है—मेरी बेटी को विरासत में देने के लिए।

बरसात के मौसम की एक और अनोखी स्मृति भी मन में बसी है। जब आषाढ़ बीत जाता और श्रावण का महीना आता, पर मेघ अब भी रूठे रहते, तो गाँव की हम लड़कियाँ छोटी-छोटी गुड़िया और गुड्डे बनातीं। फिर उन्हें नदी किनारे ले जाकर अग्नि को समर्पित करतीं। उस समय हम सब मिलकर गाते—

“गुड़िया मर गई, गुड्डा रोए…”

आज सोचती हूँ, उस खेल और गीत के पीछे कौन-सी परंपरा, कौन-सा रहस्य छिपा था? शायद यह वर्षा-आह्वान की लोकरीति रही हो, शायद दुख और शोक का अभिनय कर प्रकृति को पसीजाने की एक सांस्कृतिक युक्ति। लेकिन उस समय हमें बस गीत अच्छा लगता था, गुड़िया की आहुति रहस्यमयी लगती थी और पूरा खेल जीवन से भरा, मनोहारी लगता था।

समय बदला और बाज़ार ने धीरे-धीरे इस घरेलू सृजन को अपने हाथ में ले लिया। प्लास्टिक और रबड़ की गुड़िया बाजार में आईं। इन गुड़ियों के चेहरे गोल-मटोल होते, आँखों में नीली या काली चमक और कभी-कभी पलकें झपकती भी थीं। कुछ में गाने चलते, कुछ बात करती थीं—वे ‘सपने जैसी’ लगतीं। 20 रुपये से लेकर 100 रुपये तक की ये गुड़ियाँ उन दिनों किसी राजकुमारी से कम नहीं लगती थीं। उन्हें ख़रीद पाने की इच्छा और उन्हें पाकर सीने से लगाकर सोने का सुख, बचपन की स्मृतियों में स्वर्णिम अक्षरों में लिखा जाता है।

सन् 1990 और 2000 के दशक के शुरुआती वर्षों तक भारतीय बाज़ार में मिलने वाली गुड़ियाँ भारत की सांस्कृतिक विविधता और यथार्थ का प्रतिबिंब थीं। वे सामान्य रबर की बनी होतीं, देहयष्टि में पूर्ण, चेहरों में एक माँ जैसी ममता लिए हुए, रंग-रूप में भारतीय—कभी साँवली, कभी गेहुआँ, कभी मोटी तो कभी बिल्कुल साधारण। इन गुड़ियों के माध्यम से बालिकाएँ यह सहज रूप से सीखती थीं कि सौंदर्य कोई एक रूप में परिभाषित नहीं किया जा सकता।

गर्मियों की छुट्टियों में ननिहाल जाती तो नानी हर बार नई गुड़िया दिलाती—कभी पलकें झपकाने वाली, कभी गीत सुनाने वाली। रबर और मशीन वाली वे गुड़िया पहली नज़र में बहुत आकर्षक लगती, पर उनकी उम्र बहुत छोटी होती। कभी बैटरी जवाब दे देती, तो कभी उनकी आँखें बिगड़ जातीं। ऐसे में फिर वही माँ की बनाई कपड़े की गुड़िया मेरे साथ रह जाती—स्थायी, आत्मीय और जीवन भर की साथी।

लेकिन फिर आया बदलाव—बार्बी का आगमन।

बार्बी गुड़िया—पश्चिमी जगत की देन, केवल एक खिलौना नहीं थी; वह एक सांस्कृतिक प्रतीक बन गई। उसकी पतली, लंबी काया; गुलाबी गाल और तीखे नाक-नक़्श; सुनहरे बाल और फ़ैशनपरस्त वस्त्रों में सजी वह गुड़िया—एक नया सौंदर्य मानक लेकर आई। यह मानक भारतीय समाज की परंपराओं से भिन्न था, परंतु बाज़ार की ताक़त और ग्लैमर की चकाचौंध ने उसे लड़कियों के मन में स्थापित कर दिया।

बार्बी ने धीरे-धीरे भारतीय गुड़िया को हाशिए पर धकेल दिया। जहाँ पहले गुड़िया में ममता, अपनापन और घरेलूता झलकती थी। वहीं अब सौंदर्य, फ़ैशन और ‘परफ़ेक्ट बॉडी’ की अवधारणा ने स्थान ले लिया। गोरी त्वचा, पतला शरीर, ऊँची एड़ी के जूते और चमचमाते वस्त्र—इन सबने सौंदर्य को केवल शारीरिक बनावट और बाहरी आकर्षण तक सीमित कर दिया। यह केवल खिलौनों में नहीं हुआ, यह सोच में हुआ। अब गुड़ियों का चेहरा किसी माँ का नहीं, बल्कि फ़ैशन रैंप पर चलती एक मॉडल का हो गया।

बार्बी के साथ एक संकट और चुपचाप घर में दाखिल हुआ—सौंदर्य की एकरूपता। अब बच्चियाँ बार्बी जैसी दिखना चाहती थीं। वे अपनी त्वचा, अपने बाल, अपनी नाक से असंतुष्ट होने लगीं।

“मैं बार्बी जैसी क्यों नहीं दिखती?”

“क्या मैं उतनी सुंदर नहीं हूँ?”

यह प्रश्न अब केवल खेल का हिस्सा नहीं रहा, यह आत्म-छवि का हिस्सा बन गया। बाल मनोविज्ञान कहता है कि बच्चे अपने आस-पास जो देखते हैं, वही बनने की कोशिश करते हैं। और अगर जो वे देख रहे हैं वह अवास्तविक है, तो वे स्वयं को अस्वीकृत करना शुरू कर देते हैं।

छोटी बच्चियाँ, जो पहले अपने जैसे दिखने वाली गुड़ियों से खेलती थीं, अब बार्बी जैसी दिखने की इच्छा करने लगीं। ‘गोरा रंग’, ‘पतली कमर’, ‘लंबे बाल’, ‘फ़ैशनेबल कपड़े’ —ये सब धीरे-धीरे सुंदरता के मानक बनते गए। इसने सौंदर्य की उस विविधता को चुनौती दी, जो भारतीय संस्कृति में विद्यमान थी—जहाँ काजल से भरी आँखें, हल्दी-चंदन से दमकता रंग और गोल चेहरों की अपनी ही गरिमा थी।

गुड़ियों का यह परिवर्तन, वस्तुतः समाज की सोच में आए बदलाव का आईना है।

अब गुड़िया केवल खेलने का माध्यम नहीं रहीं, वे बच्चों की पहचान और आत्मसम्मान के निर्माण की प्रक्रिया का हिस्सा बन चुकी हैं। पश्चिमी सौंदर्य मानकों का यह अंधानुकरण बच्चों को एक ऐसे आदर्श की ओर धकेल रहा है, जो न केवल अवास्तविक है, बल्कि मनोवैज्ञानिक रूप से भी बोझिल हो सकता है।

बच्चों को आत्मसम्मान, विविधता और स्वाभाविकता का पाठ पढ़ाना आवश्यक है, न कि उन्हें एक कृत्रिम और एकांगी सौंदर्य-मानक की ओर ढकेलना। क्या हमारी बेटियों को ऐसी गुड़िया नहीं मिलनी चाहिए जो उन्हें सिखाएँ कि सुंदरता केवल पतली कमर या गोरे रंग में नहीं, बल्कि आत्मविश्वास, करुणा और बौद्धिक स्वतंत्रता में है? गुड़िया हो या वो ख़ुद मोटी भी हो सकती हैं, साँवली भी, क्योंकि सौंदर्य की असली परिभाषा विविधता में है, आत्मीयता में है और सबसे बढ़कर—आत्म-स्वीकृति में है।

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