गजानन माधव मुक्तिबोध पर उद्धरण
आधुनिक हिंदी कविता के
अग्रणी कवियों में से एक मुक्तिबोध को विषय-प्रेरणा या अवलंब रखते हुए लिखी गई कविताओं का संचयन।
जो लोग 'जनता का साहित्य' से यह मतलब लेते हैं कि वह साहित्य जनता के तुरंत समझ में आए, जनता उसका मर्म पा सके, यही उसकी पहली कसौटी है—वे लोग यह भूल जाते हैं कि जनता को पहले सुशिक्षित और सुसंस्कृत करना है।
आज की दुनिया में जिस हद तक शोषण बढ़ा हुआ है; जिस हद तक भूख और प्यास बढ़ी हुई है, उसी हद तक मुक्ति-संघर्ष भी बढ़ा हुआ है और उसी हद तक बुद्धि तथा हृदय की भूख-प्यास भी बढ़ी हुई है। आज के युग में साहित्य का यह कार्य है कि वह जनता के बुद्धि तथा हृदय की इस भूख-प्यास का चित्रण करे और उसे मुक्तिपथ पर अग्रसर करने के लिए ऐसी कला का विकास करे, जिससे जनता प्रेरणा प्राप्त कर सके और जो स्वयं जनता से प्रेरणा ले सके।
‘जनता का साहित्य’ का अर्थ, जनता को तुरंत ही समझ में आनेवाले साहित्य से हरगिज़ नहीं है।
रवींद्रनाथ जिस सतह से बोलते हैं, जिस व्यापक जीवन के सर्वोच्च बिंदु पर खड़े होकर देश-देशांतर के जन-समुदाय के सामने वे अपने को प्रकट करते हैं, उस स्थान के अन्य अनुगामी कलाकार नहीं बोल पाते। उतना ही उनमें बौनापन है, जितनी कि रवींद्र में ऊँचाई।
पुराने लेखक आग्रह-रूपी शास्त्रों से, नयों का वध करने का प्रयत्न करते ही रहते हैं।
अपने से ऊपर उठकर सोचने-समझने की शक्ति, भावना तथा मन की संवेदना—ये दो छोर हैं स्रष्टा मन के।
कवि का आभ्यंतर वास्तव-बाह्म का आभ्यंतरीकृत रूप ही है, इसीलिए कवि को अपने वास्तविक जीवन में रचना-बाह्म काव्यानुभव जीना पड़ता है।
पं. रामचंद्र शुक्ल जो निर्गुण मत को कोसते हैं, वह यों ही नहीं, इसके पीछे उनकी सारी पुराण-मतवादी चेतना बोलती है।
निर्गुण मतवाद के जनोन्मुख रूप और उसकी क्रांतिकारी जातिवाद-विरोधी भूमिका के विरुद्ध, तुलसीदासजी ने पुराण-मतवादी स्वरूप प्रस्तुत किया।
-
संबंधित विषय : निर्गुण काव्यऔर 1 अन्य
प्रारंभिक श्रेणी के लिए उपयुक्त साहित्य तो साहित्य है और सर्वोच्च श्रेणी के लिए उपयुक्त साहित्य, जनता का साहित्य नहीं है—यह कहना जनता से गद्दारी करना है।
कबीर जब तक अपने रंग में मस्त होकर जीवन का ज्ञान सुनाता है, तभी तक वह कलाकार है। पर जब वह हमें अपने बौद्धिक दार्शनिक निर्गुणवाद के प्रति आस्था रखने के लिए आग्रह करता-सा दिख पड़ता है, वहीं वह कला का दृष्टिकोण छोड़कर दार्शनिक दृष्टिकोण के क्षेत्र में उत्तर आता है—जिसके अलग नियम हैं और मूल्यांकन के अलग स्टैंडर्ड हैं।
मनोवेगों में स्वयं-स्फूर्ति के अतिरिक्त यांत्रिकता भी होता है। यही यांत्रिकता विवेक की शत्रु है।
किसी साहित्य का वास्तविक विश्लेषण हम तब तक नहीं कर सकते; जब तक कि हम उन गतिमान सामाजिक शक्तियों को नहीं समझते, जिन्होंने मनोवैज्ञानिक-सांस्कृतिक धरातल पर आत्मप्रकटीकरण किया है।
कोई भी रचनाकार यह जानता है कि रचना के बढ़ते जाने के मार्ग का नक़्शा, रचना के पूर्व नहीं बनाया जा सकता और यदि बनाया गया तो वह यथातथ्य नहीं हो सकता।
कवि के लिए सतत आत्म-संस्कार आवश्यक है, जिससे बाह्य का आभ्यंतीकरण सही-सही हो।
-
संबंधित विषय : आत्म-चिंतनऔर 2 अन्य
साहित्य के 'वाद' दार्शनिक या वैज्ञानिक प्रणालियाँ नहीं हैं—वे साहित्य के केवल दृष्टिकोण हैं।
जहाँ-जहाँ जीवन के प्रति सच्चाई प्रकट की गई है, वहाँ-वहाँ कला अपने संपूर्ण सौंदर्य के साथ प्रकट हुई है। किंतु जहाँ किसी 'वाद' या बौद्धिक विश्वास से जीवन को देखा गया है, वहाँ जीवन की ताज़गी और उसका प्रवाह-संगीत लुप्त हो गया है।
जब भावना-प्रधान प्राणी बाह्य वास्तविकता की ओर मुड़ता है और अपनी सहज ईमानदारी के वशीभूत होकर उसके प्रति अपने को ज़िम्मेवार ठहराता है, तभी से उस साहित्य की उत्पत्ति होती है, जिसे हम आदर्शवादी साहित्य कह सकते हैं क्योंकि वह जीवन पर सोचने लगता है। जीवन की ट्रेजेडीज, उसके विरोध और विसंगतियाँ, उसके मन में बैठ जाती हैं।
काव्य केवल एक सीमित शिक्षा और संस्कार नहीं है, वरन एक व्यापक भावात्मक और बौद्धिक परिष्करण (कल्चर) है—वह कल्चर, वह परिष्कृति, जो वास्तविक जीवन में प्राप्ति करनी पड़ती है।
कंडीशंड साहित्यिक रिफ्लेक्सेज, यंत्रवत कविताएँ तैयार करवाते हैं।
जिस प्रकार सोचना या विचार करना ज्ञान प्राप्त करने के लिए एक साधन है, उसी प्रकार भावना भी जीवन का ज्ञान प्राप्त करने का एक कलात्मक साधन है।
व्यक्ति अपनी ही खोज में समाज को ढूँढ़ता है, समाज के विकास की परीक्षा करता है, और इस प्रकार उसकी परीक्षा करते हुए अपनी परीक्षा करता है।
गेय काव्य (लिरिकल पोएट्री) की रचना-प्रक्रिया; उस कविता की रचना-प्रक्रिया से बिल्कुल भिन्न है, जो मन की किसी प्रतिक्रिया-मात्र का रेखांकन करती है।
भावना की तीव्र आर्द्रता और सारे दुःखों और कष्टों के परिहार के लिए ईश्वर की पुकार के पीछे जनता की भयानक दुःस्थिति छिपी हुई थी।
अनुभवी कवि आभ्यंतर भाव-संपादन का महत्व जानता है।
कवि का शब्द-चयन, छंदो-रचना, प्रकृति-वर्णन, स्वभाव-चित्रण अत्यंत सुंदर होते हुए भी (जैसे कि टेनिसन में हैं) यदि ऊँची सतह नहीं है, तो वह उच्च कलाकार नहीं कहला सकता।
भारतीय संस्कृति द्वारा विकसित की गई परंपराओं में से, एक परंपरा आत्मपरक काव्य की है।
अपने लक्ष्यों के प्रति हार्दिक स्नेह के बिना, जिज्ञासा, आत्म-संस्कार, आत्म-निरीक्षण तथा आत्म-संघर्ष—सब व्यर्थ है।
निर्गुण-मतवादियों का ईश्वर एक था, किंतु अब तुलसीदासजी के मनोजगत में परब्रह्म के निर्गुण-स्वरूप के बावजूद, सगुण ईश्वर ने सारा समाज और उसकी व्यवस्था—जो जातिवाद, वर्णाश्रम धर्म पर आधारित थी—उत्पन्न की।
-
संबंधित विषय : निर्गुण काव्यऔर 3 अन्य
रचना-प्रक्रिया से अभिभूत कवि जब भावों की प्रवहमान संगति संस्थापित करता चलता है, तब उस संगति की संस्थापना में उसे भावों का संपादन यानी एडीटिंग करना पड़ता है। यदि वह इस प्रकार भावों की काट-छाँट न करे, तो मूल प्रकृति उसे संपूर्ण रूप से अपनी बाढ़ में बहा देगी और उसकी कृति विकृति में परिणत हो जाएगी।
जीवन संघर्ष की अधिकता के फलस्वरूप अंतर्मुखता और भाव-सघनता तो होती ही है, किंतु उसके साथ, शिक्षा, स्वाध्याय और समय के अभाव के कारण, काव्य-सौंदर्य के विकास के प्रति विमुखता भी दृष्टिगोचर होती है।
रचना-प्रक्रिया वस्तुतः एक स्वायत्त प्रक्रिया है।
भक्तिकालीन संतों के बिना महाराष्ट्रीय भावना की कल्पना नहीं की जा सकती, न सिख गुरुओं के बिना सिख जाति की।
जिस तरह सामाजिक व्यथा से जाग्रत मानवी-आत्मा यथार्थवादी हो जाती है, उसी तरह अपनी संपन्न परिस्थिति में; अपनी भावनाओं के मनोहर कोष से चेतन मानव-आत्मा, भावना-प्रधान और कल्पना-प्रधान—जिसे रोमैंटिक कहते हैं, हो जाती है।
सुधारवादियों की तथा आज की भी एक पीढ़ी को तुलसीदासजी के वैचारिक प्रभाव से संघर्ष करना पड़ा, यह भी एक बड़ा सत्य है।
उत्तर भारत में निर्गुणवादी भक्ति आंदोलन में शोषित जनता का सबसे बड़ा हाथ था।
-
संबंधित विषय : निर्गुण काव्यऔर 2 अन्य
बुद्धि जो कि अलिप्त, निर्मम, स्व-पर-निरपेक्ष कही जाती है, उसी के क्षेत्र में इतनी आत्म-केंद्रिता का विकास—पूँजीवादी समाज की विशेषता है। फिर साहित्य और कला का क्या कहना।
पंडित रामचंद्र शुक्ल के इस कथन में हमें पर्याप्त सत्य मालूम होता है कि भक्ति आंदोलन का एक मूल कारण जनता का कष्ट है। किंतु पंडित शुक्ल ने इन कष्टों के मुस्लिम-विरोधी और हिंदू-राजसत्ता के पक्षपाती जो अभिप्राय निकाले हैं, वे उचित नहीं मालूम होते।
एक दूसरे प्रकार की आंतरिक प्रतिक्रिया तब शुरू होती है, जब भावनानुभूति के नाम पर हम उन्हीं भावनाओं को दुहराते हैं जो निष्प्राण हो गई हैं, जहाँ जीवन की गति कुंठित हो गई है। इस प्रकार साहित्य में बासीपन की उत्पत्ति होती है, जिसके विरुद्ध प्रतिक्रिया फ़ौरन शुरू हो जाती है, क्योंकि जीवन एक जगह रुका नहीं रह सकता।
डॉ. रामविलास शर्मा को प्रयोगवादी या नई कविता में, ‘असुंदर’ और ‘विद्रूप’ से अधिक कुछ नहीं दिखता।
कवि केवल रचना-प्रक्रिया में पड़कर ही कवि नहीं होता, वरन उसे वास्तविक जीवन में अपनी आत्म-समृद्धि को प्राप्त करना पड़ता है, और मनुष्यता के प्रधान लक्ष्यों से एकाकर होने की क्षमता को विकसित करते रहना पड़ता है।
कवि-जीवन की प्रथम-स्तरीय उपलब्धि, उस अंतःप्रकृति से साक्षात्कार है जो अपना कुछ विशेष कहना चाहती है, जिसके पास कुछ विशेष कहने के लिए है। इस आत्म-चेतना के प्रत्यक्ष संवेदनात्मक ज्ञान के बिना कोई कवि मौलिक नहीं हो सकता।
आदर्शवादी उपन्यासों की कमज़ोरी का प्रधान कारण है बौद्धिक या कभी-कभी (जैसे मेरी कॉरेली में) धार्मिक या नैतिक आदर्शों का, कला के साथ विषम संतुलन।
जीवन-परिस्थिति में परिवर्तन से और यथार्थ के नए-नए पहलुओं के खुलने से, उनके आभ्यंतरीकरण के द्वारा लेखक का जो संवेदनात्मक वैयक्तिक इतिहास बनता है, वह इतिहास पूर्ववर्ती प्रवृत्ति के कवियों से सर्वथा भिन्न होता है।
छायावाद के पास और कुछ न सही तो व्यापक आध्यात्मिक विश्व-स्वप्न था, साथ ही राष्ट्रीय सांस्कृतिक प्रेरणा थी। उसके पास अपना एक दर्शन था। स्वाधीनता की प्राप्ति के अनंतर, पूँजीवाद के संपूर्ण प्रभुत्व के बाद, उसकी भावनाओं का भी दार्शनिक औचित्यीकरण था।
यह धारण ग़लत है कि आत्मपरक काव्य व्यक्तिवादी काव्य है।
जहाँ जीवन-तथ्यों के ठोस और प्रभावोत्पादक संदर्भों की मूर्तिमानता प्रत्यक्ष नहीं है, और जहाँ केवल वैचारिक ऊहापोह हो रहा है, वहाँ वैचारिकता काव्यरहित हो जाएगी।
केवल ग्रामीण स्थिति देख-भर लेने से या गाँवों के वातावरण में लेखक के रहने से सच्चे यथार्थवादी साहित्य का जन्म नहीं हो सकता, जब तक लेखक की आत्मा ग्रामीणता में स्वयं नहीं पनपती और वहाँ की क्रिया-प्रतिक्रिया से प्रवहनशील होकर साहित्य में नहीं उतरती।
छायावाद के कवि-चतुष्टय में से प्रसादजी, समाज और सभ्यता की व्याख्या करते हुए अरूप आध्यात्मिक सामरस्य्वाद की ओर निकल गए, संसारातीत, रहस्यवाद की आनंदमयी भूमि में विचरण करने लगे, महादेवीजी समाज और सभ्यता के प्रश्नों के चक्कर में ही नहीं पड़ीं, काव्य द्वारा। केवल निराला संघर्षानुभवों द्वारा आज की जनस्थिति की ओर उन्मुख हुए।
रचना-प्रक्रिया का जो सर्वाधिक मूल-स्थित, सर्वाधिक प्रच्छन्न, किंतु क्रमशः प्रकट होने वाला अंश है, वह पाठक और आलोचक के लिए सर्वप्रथम है। कलाकार रचना के समय, शब्दाभिव्यक्ति के संघर्ष में, संगति और निर्वाह के संघर्ष में, भावों के उत्स को प्रातिनिधिक रूप देने के यत्न में लीन होता है।
संबंधित विषय
- अनैतिकता
- अनुभव
- अभिव्यक्ति
- आज़ादी
- आत्मज्ञान
- आत्म-तत्व
- आत्म-संयम
- आलोचक
- आलोचना
- कबीर
- क्रांति
- कल्पना
- कला
- कवि
- कविता
- गजानन माधव मुक्तिबोध
- छायावाद
- ज्ञान
- जनता
- जिज्ञासा
- जीवन
- नई कविता
- नैतिकता
- पूँजीवाद
- भक्ति काव्य
- भाषा
- मनुष्य
- यथार्थ
- वर्तमान
- विचार
- विश्लेषण
- संघर्ष
- समाज
- सरल
- संवेदनशीलता
- संस्कृति
- सांप्रदायिकता
- साहित्य
- सौंदर्य
- हिंदी साहित्य