
सच्चे कद का पुस्तक उधार लेने वाला; अभी जिसकी हमने कल्पना की, वह पुस्तकों का चिरकालीन संग्राहक सिद्ध होता है, उस तेवर के सबब नहीं जो वह अपने उधार खजाने की सुरक्षा के लिए करता है और इसलिए भी नहीं कि वह कानून की दैनंदिन दुनिया से आते हुए हर तकाजों की अनसुनी करता जाता है, बल्कि इसलिए क्योंकि वह उन पुस्तकों को पढ़ता ही नहीं।

मैंने एक दिन एक किताब पढ़ी और मेरा पूरा जीवन बदल गया।

मैं एक बहुत ही साधारण इंसान हूँ, मुझे बस किताबें पढ़ना पसंद है।

अच्छी पुस्तक पढ़ने के बाद आप सदैव मनोवृत्ति के उन्नयन के साथ उठते हैं।


जीने के लिए पढ़ो।

जो व्यक्ति पढ़ता नहीं है, वह उस व्यक्ति से बेहतर नहीं है जो पढ़ नहीं सकता है।

कोई भी पुस्तक दस वर्ष की आयु में पढ़ने योग्य नहीं है जो पचास वर्ष और उससे अधिक की आयु में भी उतनी ही और अक्सर उससे कहीं अधिक पढ़ने योग्य नहीं है।

खाना और पढ़ना दो सुख हैं जो अद्भुत रूप से समान हैं।

यह स्पष्ट है कि हर अच्छी किताब को दस साल में कम से कम एक बार पढ़ लेना चाहिए।

किसी दिन आप इतने बूढ़े हो जाएँगे कि फिर से परियों की कहानियों को पढ़ना शुरू कर देंगे।
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स्नान करने, दान देने, शास्त्र पढ़ने, वेदाध्ययन करने को तप नहीं कहते। न तप योग ही है और न यज्ञ करना। तप का अर्थ है वासना को छोड़ना, जिसमें काम-क्रोध का संसर्ग छूटता है।

यदि तदनुसार आचरण नहीं किया तो केवल कहने या पढ़ने से क्या लाभ?

पढ़ने का एक उद्देश्य उस सुख या आनंद की तलाश है जो केवल साहित्य दे सकता है।

अध्ययन की कला होती है, चिंतन की भी कला होती है और लेखन की भी कला होती है।

पढ़कर आनंद के अतिरेक से आँखें यदि गीली न हो जाएँ तो वह कहानी कैसी?

जिस उपन्यास को समाप्त करने के बाद पाठक अपने अंदर उत्कर्ष का अनुभव करे, उसके सद्भाव जाग उठें, वही सफल उपन्यास है।

बच्चों को चुपचाप पढ़ने देना और कोई आलेख या पुस्तक पढ़ लेने के बाद उस पर प्रश्न पूछना या यूँ ही कुछ चर्चा करने के प्रलोभन से बाज़ आना—एक रोचक नवाचार हो सकता है।

कई शिक्षक ध्वनि को सिर्फ़ लय या ताल से जोड़ते हैं, अतः वे कविता को संगीत के साथ गवाकर पढ़ाते हैं। ऐसा करने से कविता कुछ सजीव हो जाती है। पर आधुनिक कविता प्रायः गेय नहीं होती। उसे पढ़ने या पढ़ाने के लिए इस बात पर ध्यान देना उपयोगी होगा कि ध्वनि हर शब्द में होती है।

यशपाल उन अल्पसंख्यक साहित्यकारों में थे जो लिखते कम हैं, पढ़ते ज़्यादा हैं।

धीरे चलना एक पुरानी बात लगने लगी है। शिक्षकों के लिए भी यह कठिन हो गया है कि वे धीरे-धीरे समझाएँ और ताबड़तोड़ रोज़ नया पाठ न पूरा करें। वे कहते हैं उन्हें हर हफ़्ते परीक्षा लेनी है, फिर धीरे कैसे चलें।

सभी अच्छी किताबों का अध्ययन करना, अतीत के श्रेष्ठ मस्तिष्कों के साथ संवाद करने जैसा है।

दक्षता से आत्मविश्वास बढ़ता है; रफ़्तार उसे और बढाती है। पढ़ने की मामले में यह बात एक सीमा के बाद सच नहीं लगती।
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अगर मेरा अनुभव कोई प्रमाण बन सके तो कह सकता हूँ कि कोई आदमी किसी उधार पुस्तक को किसी अवसर पर लौटा ही दे मगर पढ़े शायद ही।

जिस स्कूल में पढ़ाई ज़ोरों पर होती है, वहाँ पढ़ने का माहौल नहीं होगा या बहुत कमज़ोर होगा। यह कथन अटपटा इसलिए लगता है क्योंकि पढ़ने और पढ़ाई का फ़र्क़ बहुत कम लोग कर पाते हैं।

कई बार ऐसा होता है कि हम पढ़ी हुई रचना को दुबारा पढ़ते हैं तो उतनी तेज़ रफ़्तार से नहीं पढ़ते जिस तरह पहली बार पढ़ी थी। हमारा दिमाग़ इस बार उन छोटी-छोटी चीज़ों का पूरा मज़ा लेना चाहता है जो पहली बार में हमें इस कारण नहीं दिखी थीं कि हम जल्दी से जल्दी कहानी के अंत तक पहुँचकर जान लेना चाहते थे कि आख़िर में होता क्या है।

विरलों के सहारे कोई लोकतंत्र अपनी सेहत की रक्षा नहीं कर सकता। लोकतंत्र एक ऐसी जीवन पद्धति है जिसमें मनुष्य अपने दिमाग़ को टटोल-टटोलकर आगे बढ़ता है और सम्मोहन से बचता है, प्रचार से परहेज करता है। ऐसा मनुष्य ख़ुद सोचने में यक़ीन करता है, इसलिए पढ़ने को रोज़ नहाने जैसी ज़रूरत बना लेता है।

अत्यंत चर्चित लेखकों को पढ़ना मैं तभी पसंद करता हूँ जब वे पुराने हो जाते हैं।

पढ़ने का समकालीन संदर्भ काफ़ी जटिल है। आमतौर पर इसकी जटिलता को संचार की टेक्नॉलॉजी में हुए विकास और उसके ज़रिए आए सामाजिक व शैक्षिक परिवर्तनों से जोड़ा जाता है। मगर पढ़ने के संदर्भ में जटिलता का एक अन्य स्रोत भी है। वह है पढ़ने को लेकर विकसित हुआ शिक्षाशास्त्र।

जो पढ़ नहीं सकते, उन्हें अनपढ़ कहकर हम ऐसे लोगों के लिए शब्द नहीं छोड़ते जो पढ़ सकते है, मगर पढ़ते नहीं।

वाचन में अटक-अटककर पढ़ना सुनने वाले को खटकता है। यदि हम वाचन को पढने से अलग कर दें तो पढने में रफ़्तार और प्रवाह की जगह समझने और सोचते जाने पर ज़्यादा ध्यान दे सकेंगे।

पढ़ने का मक़सद यदि किताब पढ़ने की आदत का विकास है, तो इसके लिए चर्चा करने को एक औपचारिक अनिवार्यता न बनाना ही श्रेयस्कर है।

शिक्षा में यदि सिर्फ़ पढ़ना शामिल है और सोचना नदारद है, तो तरह-तरह की सामाजिक दुर्घटनाएँ होना लाज़िमी है।

पढ़ना सीख लेने के बाद तेज़ गति से पढ़ना एक हद तक स्वाभाविक इच्छा जैसा दिखता है। यह बात किसी के कौशल के बारे में कही जा सकती है। साइकिल चलाना सीख लेने पर तेज़ रफ़्तार से साइकिल चलाने की इच्छा होती है।

पढ़ना और सोचना ऐसे विषय हैं जो एक जागृत समाज में हर किसी के सरोकार बनाने की पात्रता रखते है।

पढ़ने के पाठ्यक्रम में 'रुक-रुककर पढ़ना' एक बुरी चीज़ माना जाता रहा है। इस विचार का संदर्भ पढ़ने को 'वाचन' के रूप में देखना है।

पढ़ना एक निजी प्रक्रिया है। लिखे या छपे हुए शब्दों से हम जो भी अर्थ निकालते है, वह हमारा दिया हुआ अर्थ होता है।