प्रेम की चरम परिणति दांपत्य में, स्त्री-पुरुष के प्रेम में प्रस्फुटित होती है। स्त्री और पुरुष एक-दूसरे के सहभाव से परिपूर्ण बनते हैं, यही बात सीता और राम के प्रसंग में वाल्मीकि ने कई बार कही है।
शास्त्रीय वाङ्मय ही नहीं; रामायण, महाभारत, कालिदास, भवभूति और बाणभट्ट जैसे कतिपय महाकवियों को छोड़ दें, तो लगभग सारा का सारा संस्कृत साहित्य ही पुरुषवादी दृष्टि और पुरुष के वर्चस्व के आख्यान से रचा हुआ है।
समाज के द्वंद्र के कारण सीता और राम का दांपत्य, स्थूल स्तर पर खंडित होता है—हृदयसंवाद खंडित नहीं होता।
संस्कृत के समाज में शास्त्रार्थ की शताब्दियों की परंपरा है; पर उसमें स्त्री की भूमिका पर बात कम हुई है, स्त्री की भूमिका भी कहीं है तो वह उपेक्षित रही है।
कुछ शास्त्रार्थ ऐसे भी हुए जिनमें स्त्री उपस्थिति की आँच अभी भी मंद नहीं हुई है। यह भी बहुधा हुआ है कि स्त्री अकेली होने के बावजूद, अपनी प्रखरता और तेजस्विता में पुरुष समाज को हतप्रभ कर देती है।
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वाल्मीकि ने अपनी मानवीय दृष्टि द्वारा उस युग में स्त्री-पुरुष के साहचर्य की प्रतिष्ठा की।
वाल्मीकि रामायण का नायक वह मनुष्य है, जिसके दुर्लभ गुण देवों में भी नहीं मिल सकें, देवता भी जिसके समक्ष भयभीत प्रतीत हों।
कर्तव्यनिष्ठ पुरुष कभी निराश नहीं होता।
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वह न तो स्त्री है, न पुरुष है और न नपुंसक ही है। न सत् है, न असत् है और न सदसत् उभयरूप ही है। ब्रह्मज्ञानी पुरुष ही उसका साक्षात्कार करते हैं। उसका कभी क्षय नहीं होता, इसलिए वह अविनाशी परब्रह्म परमात्मा अक्षर कहलाता है। यह समझ लो।
दुष्ट पुरुषों का बल है हिंसा। राजाओं का बल है दंड देना। स्त्रियों का बल है सेवा और गुणवानों का बल है क्षमा।
संभवतः विवेकवादियों की आदर्श-भावना के कारण, इस शब्द में केवल स्त्री-पुरुष-संबंध के अर्थ का ही भाव होने लगा। किंतु काम में जिस व्यापक भावना का समावेश है, वह इन सब भावों को आवृत्त कर लेती है।