यश पर उद्धरण
यश का अर्थ किसी व्यक्ति,
वस्तु, स्थान आदि का नाम या सुख्याति है। इस चयन में यश को विषय बनाती कविताओं को शामिल किया गया है।

यश-प्रतिष्ठा और रचना का मूल्य अच्छा लिखने से नहीं, यश और मूल्य देने वाले लोगों की इच्छा के अनुसार लिखने से मिलता है।

जो कार्य करने से न तो धर्म होता हो और न कीर्ति बढ़ती हो और न अक्षय, यश ही प्राप्त होता हो, उल्टे शरीर को कष्ट होता हो, उस कर्म का अनुष्ठान कौन करेगा?

सफलता होगी ही, ऐसा मन में दृढ़ विश्वास कर, सतत विषाद-रहित होकर तुझे उठना चाहिए, सजग होना चाहिए और ऐश्वर्य की प्राप्ति कराने वाले कार्यों में लग जाना चाहिए।

कृतघ्न को यश कैसे प्राप्त हो सकता है? उसे कैसे स्थान और सुख की उपलब्धि हो सकती है? कृतघ्न विश्वास के योग्य नहीं होता। कृतघ्न के उद्धार के लिए शास्त्रों में कोई प्रायश्चित नहीं बताया गया है।

कला को कभी भी लोकप्रिय बनने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए।

जिसकी रचना को जनता का हृदय स्वीकार करेगा उस कवि की कीर्ति तब तक बराबर बनी रहेगी जब तक स्वीकृति बनी रहेगी।

यदि युद्ध को छोड़ने पर मृत्यु का भय न हो तब तो अन्यत्र भाग जाना उचित है। किंतु प्राणी की मृत्यु अवश्य ही होती है। तो फिर यश को व्यर्थ क्यों कलंकित कर रहे हो?

कवि का भोजन है प्रेम और यश।

प्रायः समान विद्या वाले लोग एक-दूसरे के यश से ईर्ष्या करते हैं।


जहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण हैं और जहाँ धनुर्धर अर्जुन हैं, वहाँ श्री, विजय, वैभव और ध्रुवनीति रहेंगे, यह मेरा मत है।

यश तो अहं की तृप्ति है।

सत्कार्य के लिए मरने वाला कीर्ति-काया में जीता है।

निर्मल यश ही नित्य धन है।


देवता, पितर, मनुष्य, संन्यासी और अतिथि—इन पाँचों की पूजा करने वाला मनुष्य शुद्ध यश प्राप्त करता है।

किसी के द्वारा न किया गया असाधारण कार्य ही मनुष्य के लिए यश का कारण होता है।

यशस्वियों को अपना यश अपने शरीर से भी अधिक प्रिय होता है, फिर इंद्रियों की भोग्य वस्तुओं से तुलना की तो बात ही क्या!

धर्मात्मा पुरुष को चाहिए कि वह यश के लोभ से, भय के कारण अथवा अपना उपकार करने वाले को दान न दे।

जैसे भस्म हुआ कपूर अपनी सुगंध से जाना जाता है उसी प्रकार प्राणी शरीर के टूक-टूक होकर भस्मावशेषता को प्राप्त होने पर भी, अपनी ख्याति से ही जाना या पहचाना जाता है।
