
हमने आध्यात्मिकता को व्यक्तिगत भक्ति-साधना के बीच आबद्ध कर दिया है, उसके आह्वान से हम मानव-मात्र में ऐक्य स्थापित नहीं कर सके।

कवित्व के कलंक को मैं स्वीकार करता हूँ, यह कालिमा की पृथ्वी पर उतरनेवाली रात्रि की तरह है। इसके सिरहाने विज्ञान का जगद्विजयी दीप है, लेकिन वह उसके शरीर पर हाथ नहीं उठाता—स्नेह से कहता है, "आहा, स्वप्न देखने दो इसे।"
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अपने दुःख, दारिद्रय और अपमान को धर्मनिष्ठा का पुरस्कार कहकर हम आध्यात्मिकता के क्षेत्र को विस्तृत नहीं बना सकते।
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