परिवार पर उद्धरण
परिवार संबंध और ‘इमोशन’
का समूह है। इस चयन में परिवार मूल शब्द का कविता-प्रसंगों में इस्तेमाल करती अभिव्यक्तियों का संकलन किया गया है।
व्यक्ति का विकास बाह्य-समाज में तो होता ही है, वह परिवार में भी होता है। परिवार व्यक्ति के अंतःकरण के संस्कार में तथा प्रवृत्ति-विकास में पर्याप्त योग देता है।
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गृहिणी का सद्गुण ही गृहस्थ की मांगलिक शोभा है और सुपुत्र उसका आभूषण।
जिस गृहस्थ का अतिथि पूजित होकर जाता है, उसके लिए उससे बड़ा अन्य धर्म नहीं है-मनीषी पुरुष ऐसा कहते हैं।
गृहिणी सद्गुण संपन्न है तो गृहस्थ को किस वस्तु का अभाव? और यदि वैसी नहीं है तो उसके पास है ही क्या?
मैं समझता हूँ कि बेकार राज्य-प्रबंधन बेकार परिवार-प्रबंधन को प्रोत्साहित करता है। हमेशा हड़ताल पर जाने को तत्पर मज़दूर अपने बच्चों को भी व्यवस्था के प्रति आदर-भाव नहीं सिखा सकता।
आप ऐसे दो परिवारों में मेल करा सकते हैं जिन्होंने एक-दूसरे को लगभग ख़त्म ही कर डाला है, जैसाकि गृहयुद्ध के दौरान ब्रिटेनी और ला वेंदी में हुआ; लेकिन लांछन लगाने वाले और लांछित के बीच मेल कराना उतना ही कठिन है, जितना बलात्कारी और बलत्कृत के बीच मेल होना।
मरना सुखद तो नहीं, फिर भी अपने घर में कुटुंबियों के बीच मरना सुखद होता है।
हे भारत! मनुष्य को चाहिए कि वह साँप, अग्नि, सिंह और अपने कुल में उत्पन्न व्यक्ति का अनादर न करे, क्योंकि ये सभी बड़े तेजस्वी होते हैं।
आधुनिक भारत का विकास; घरों के ख़ाली हो जाने की, परिवार के सिकुड़कर सूख जाने की कहानी है।
एक सी सूझ वाले लोग प्रत्येक वस्तु को समान उपहासजनक, सौंदर्यपूर्ण अथवा घृणोत्पादक दृष्टिकोण से देखते हैं। सूझ की इस एकता को सुगम बनाने के लिए किसी विशेष मंडल या परिवार के लोगों के बीच अपनी विशिष्ट भाषा, अपने विशिष्ट मुहावरे, यहाँ तक कि अपने विशिष्ट शब्द पैदा हो जाते हैं जिनके विशिष्ट अर्थ अन्य लोग अन्य नहीं समझ सकते।
पूर्वज, भगवान, अतिथि, बंधु तथा स्वयं इन पाँचों के लिए धर्मानुकूल सतत कर्म करना ही गृहस्थ का प्रधान कर्त्तव्य है।
परिवार मर्यादाओं से बनता है। परस्पर कर्त्तव्य होते हैं, अनुशासन होता है और उस नियत परंपरा में कुछ जनों की इकाई एक हित के आसपास जुटकर व्यूह में चलती है। उस इकाई के प्रति हर सदस्य अपना आत्मदान करता है, इज़्ज़त ख़ानदान की होती है। हर एक उससे लाभ लेता है और अपना त्याग देता है।
मूढ़ को अधिक संपत्ति प्राप्त हो तो उसके अपने तो भूखे रहेंगे और दूसरे लाभांवित होंगे।
जब जगत् का वियोग निश्चित है, तब धर्म के लिए परिवार से स्वयं पृथक् हो जाना अवश्य श्रेष्ठ है।
मनुष्य की यह विशेषता है कि केवल उसी को अच्छे-बुरे का या उचित-अनुचित आदि का ज्ञान है और ऐसे ज्ञान से युक्त प्राणियों के साहचर्य से ही परिवार और समाज का निर्माण होता है।
गया जाने से बात समाप्त नहीं होती, वहाँ जाकर चाहे तू कितना ही पिंडदान दे। बात तो तभी समाप्त होगी, जब तू खड़े-खड़े इस 'मैं' को लुटा दे।
यह सकल संसार परमेश्वर की प्रजा है। सभी मनुष्य कुटुंबी हैं और इस परिवार के पिता परमेश्वर हैं।
घर व गृहस्थी का मूल उद्देश्य ही आतिथ्य व परोपकार है।
तू धैर्य और स्वाभिमान का अवलंबन कर। अपने पुरुषार्थ को जान और सतेनि कारण डूबे हुए इस वंश का तू स्वयं ही उद्धार कर।
लड़की माँ-बाप के घर में ग़ैरहाज़िर जैसी होती थी। उसे उसी तरह पाला-पोसा जाता था कि कोई भटकी हुई आ गई है। भले कोख से आ गई है। एकाध दिन उसे खाना खिला दो कल चली जाएगी। लड़की का रोज़-रोज़, बस एकाध दिन जैसा होता था। फिर ब्याह दी जाती जैसे निकल जाती हो।
हर वक़्त रिश्तेदारों और बच्चों के लिए तड़पने वाले बूढ़े सुखी नहीं होते।
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उच्च या नीच कुल में जन्म होना भाग्य के अधीन है। मेरे अधीन तो पुरुषार्थ है।
जब एक लेखक परिवार में जन्म लेता है, तो परिवार समाप्त होने की ओर अग्रसित हो जाता है।