लेखक अपनी अर्थहीन रचनाओं द्वारा और प्रकाशक अपनी अर्थ-लोलुप प्रवृत्ति द्वारा; तथा पाठक अपने पिछड़ेपन के द्वारा भी, साहित्य-सृजन के लिए प्रतिकूल परिस्थिति उत्पन्न कर देते हैं।
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लेखक का कर्तव्य है पाठक को अपनी भाषिक संस्कृति से जोड़ना।
सच्चे कद का पुस्तक उधार लेने वाला; अभी जिसकी हमने कल्पना की, वह पुस्तकों का चिरकालीन संग्राहक सिद्ध होता है, उस तेवर के सबब नहीं जो वह अपने उधार खजाने की सुरक्षा के लिए करता है और इसलिए भी नहीं कि वह कानून की दैनंदिन दुनिया से आते हुए हर तकाजों की अनसुनी करता जाता है, बल्कि इसलिए क्योंकि वह उन पुस्तकों को पढ़ता ही नहीं।
आलसी पाठकों से मुझे अत्यंत घृणा है।
बहुत कम बच्चे इतनी हिंदी सीख पाएँगे कि वे निराला को पढ़कर ‘जागो फिर एक बार’ को अर्थ दे सकें।
प्रत्येक मनुष्य जब पढ़ना सीखने की धृष्टता करने लगेगा तो उसको सहन करना एक ऐसी दुर्घटना होगी जिसके फलस्वरूप न केवल लेखन-कला ही, बल्कि विचार-शक्ति भी अंततः विकृत और क्षीण हो जाएगी।
लेखक अगर अपने पाठकों से परिचित हो जाता तो निश्चय ही वह लिखना बंद कर देता। पाठक अगर एक शताब्दी और ऐसे ही बने रहे तो फिर आत्मा स्वयं ही सड़ जाएगी और वहाँ से दुर्गंध फूट निकलेगी।
रचना-प्रक्रिया का जो सर्वाधिक मूल-स्थित, सर्वाधिक प्रच्छन्न, किंतु क्रमशः प्रकट होने वाला अंश है, वह पाठक और आलोचक के लिए सर्वप्रथम है। कलाकार रचना के समय, शब्दाभिव्यक्ति के संघर्ष में, संगति और निर्वाह के संघर्ष में, भावों के उत्स को प्रातिनिधिक रूप देने के यत्न में लीन होता है।
आज हिन्दी में धड़ल्ले के साथ नए-नए बढ़िया प्रकाशन और नए-नए विषय अपना रूप-रंग लेकर हज़ारों की तादाद में दिखलाई पड़ते हैं—वह इसलिए नहीं कि प्रकाशक उदार हो गया है; या उसकी रुचि परिष्कृत हो गई है, यह सब केवल इसलिये कि साहित्य का बाजार इन सबकी माँग करता है।
पाठक-आलोचक के ध्यान का जो प्राथमिक केंद्र है, वह है अंतर्जगत और रचयिता के ध्यान का जो प्राथमिक केंद्र है, वह है अंतर्जगत की प्रातिनिधिक शब्दाभिव्यक्ति, कलात्मक संगति और निर्वाह।
निबंधकार का एक मुख्य कर्तव्य होता है पाठक की मानसिक ऋद्धि और बौद्धिक क्षितिज का विस्तार करना।
हम जब अँग्रेज़ी साहित्य पढ़ते हैं, हमारा मुख्य उद्देश्य होता है अँग्रेज़ी भाषा पर अधिकार प्राप्त करना—अर्थात् हमारा मन फूल के कीड़े की तरह है, मधुकर की तरह नहीं।
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अगर मेरा अनुभव कोई प्रमाण बन सके तो कह सकता हूँ कि कोई आदमी किसी उधार पुस्तक को किसी अवसर पर लौटा ही दे मगर पढ़े शायद ही।
कोहबर में दूल्हे और पाठकों की सभा में लेखक की प्रायः एक ही दशा है। दोनों ही के कान में बहुत-सी गालियाँ और दिल्लगी की आवाज़ें पड़ती हैं, जो कि उन्हें चुपचाप सहनी पड़ती हैं।
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इस देश की काव्य रसिक जनता यह नहीं चाहती कि जो काम प्रबन्ध-काव्य के रचयिता करते है, वह काम उपन्यास-लेखकों के हवाले किया जाए और कविगण केवल मुक्तक लिखा करें।
संचार-प्रक्रिया की चर्चा करते समय दर्शकों-श्रोताओं-पाठकों की प्रकृति को नहीं भुलाया जा सकता।
पश्चिम यूरोप में जो पाठक हैं वो ज्यादा रूढ़िवादी हैं, जो पुरानी परंपराओं से आते हैं या उनसे जुड़े हुए हैं।
एक उपन्यासकार की आदर्श पाठक की तलाश—वह चाहे राष्ट्रीय हो या अंतर्राष्ट्रीय—उपन्यासकार के अपने को उसके रूप में कल्पना करने और फिर उसे दिमाग़ में रखकर किताबें लिखने से शुरू होती है।
पाठक और कवि, दोनों के लिए कविता अनुभव की प्रक्रिया का दूसरा नाम है।