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आलोचना पर उद्धरण

हमारे अधिकांश उपन्यास अति सामान्य प्रश्नों (ट्रीविएलिटीज) से जूझते रहते हैं और उनसे हमारा अनुभूति-संसार किसी भी तरह समृद्ध नहीं होता।

श्रीलाल शुक्ल

हमारे साहित्य में एक बहुचर्चित स्थापना यह है कि भारतीय उपन्यास मूलतः किसान चेतना की महागाथा है—वैसे ही जैसे उन्नसवीं सदी के योरोपीय उपन्यास को मध्यम वर्ग का महाकाव्य कहा गया था।

श्रीलाल शुक्ल

भारत जैसे विराट मानवीय क्षेत्र के अनुभवों, गहरी भावनाओं, आशाओं, आकांक्षाओं और यातनाओं आदि को हमारा उपन्यास अभी अंशतः ही समेट पाया है—और जितना तथा जिस प्रकार उसे समेटा गया है उसमें प्रतिभा एवं कौशल के कुछ दुर्लभ उदाहरणों को छोड़कर, अब भी बहुत अधकचरापन है।

श्रीलाल शुक्ल

सबसे पहली कमी तो हमारे उपन्यासों में चिंतन और वैचारिकता की ही है।

श्रीलाल शुक्ल

उपन्यास की पूरी संभावनाओं का अभी भी हमारे यहाँ दोहन होना है।

श्रीलाल शुक्ल

‘झूठा सच’ उन दुर्लभ कृतियों में से है जो ठोस, यथार्थवादी स्तर पर, भावुकता के सैलाब में बहे बिना इस भयानक मानवीय त्रासदी को अत्यंत सशक्त रूप में प्रस्तुत करती है।

श्रीलाल शुक्ल

स्वत्रंता-प्राप्ति के बाद पहला औपन्यासिक चमत्कार रेणु का ‘मैला आँचल’ है।

श्रीलाल शुक्ल

‘मैला आँचल’ के साथ ही हिंदी में उपन्यासों में एक नई कोटि का प्रचलन होता है, जिसे ‘आंचलिक’ कहते हैं।

श्रीलाल शुक्ल

‘कुल्ली भाट’ जैसे छोटे उपन्यास में निराला ने यथार्थ को एक साथ इतने धरातलों पर खोजा है और इतने जटिल शिल्प के साथ कि उसका निर्वाह—असाधारण प्रतिभा ही कर सकती थी, जो कि स्वयं वे थे।

श्रीलाल शुक्ल

किसी साहित्य का वास्तविक विश्लेषण हम तब तक नहीं कर सकते; जब तक कि हम उन गतिमान सामाजिक शक्तियों को नहीं समझते, जिन्होंने मनोवैज्ञानिक-सांस्कृतिक धरातल पर आत्मप्रकटीकरण किया है।

गजानन माधव मुक्तिबोध

‘शेखर : एक जीवनी’ के प्रकाशन से हिंदी उपन्यास अपनी अनेक पुरानी सीमाओं को पीछे छोड़ देता है, उपन्यास विधा एक विस्तीर्ण फ़लक हासिल करती है, उसे एक मुक्ति का एहसास होता है; उपन्यास अब घटनाओं का संपुँजन भर नहीं रहा, चरित्रों की अंतिम परिणति पर आधारित एक नीति कथा और कोई जीवन-दृष्टि भर। वह अब जीवन का समग्र अनुभव बन गया, एक समानांतर संसार, जिसमें हम स्वयं अपनी जटिल अनुभूतियों को पहचान सकते हैं—और सरंचना की दृष्टि से वह एक साथ कथा जीवनी, चिंतन, दार्शनिक विश्लेषण, काव्य, महाकाव्य बन गया।

श्रीलाल शुक्ल

रचना-प्रक्रिया से अभिभूत कवि जब भावों की प्रवहमान संगति संस्थापित करता चलता है, तब उस संगति की संस्थापना में उसे भावों का संपादन यानी एडीटिंग करना पड़ता है। यदि वह इस प्रकार भावों की काट-छाँट करे, तो मूल प्रकृति उसे संपूर्ण रूप से अपनी बाढ़ में बहा देगी और उसकी कृति विकृति में परिणत हो जाएगी।

गजानन माधव मुक्तिबोध

कंडीशंड साहित्यिक रिफ्लेक्सेज, यंत्रवत कविताएँ तैयार करवाते हैं।

गजानन माधव मुक्तिबोध

भावना की तीव्र आर्द्रता और सारे दुःखों और कष्टों के परिहार के लिए ईश्वर की पुकार के पीछे जनता की भयानक दुःस्थिति छिपी हुई थी।

गजानन माधव मुक्तिबोध

आधुनिक हिंदी उपन्यास का प्रसंग उठने पर जो सबसे पहली बात ध्यान में आती है वह यह है कि हिंदी उपन्यास के साथ ‘आधुनिक’ का विशेषण अनावश्यक है।

श्रीलाल शुक्ल

अगर भारतीय उपन्यास की कोई स्पष्ट पहचान करनी हो—उसकी जटिलता के बाबजूद—तो ‘मैला आँचल’ उसका सशक्त संकेतक है।

श्रीलाल शुक्ल

अनुभवी कवि आभ्यंतर भाव-संपादन का महत्व जानता है।

गजानन माधव मुक्तिबोध

आलोचना को छोड़कर हर व्यवसाय सीखने में मनुष्य को अपना समय लगाना चाहिए क्योंकि आलोचक तो सब बने बनाए ही हैं।

लॉर्ड बायरन

निंदा, प्रशंसा, इच्छा, आख्यान, अर्चना, प्रत्याख्यान, उपालंभ, प्रतिषेध, प्रेरणा, सांत्वना, अभ्यवपत्ति, भर्त्सना और अनुनय इन तेरह बातों में ही पत्र से ही प्रकट होने वाले अर्थ प्रवृत्त होते हैं।

चाणक्य

गेय काव्य (लिरिकल पोएट्री) की रचना-प्रक्रिया; उस कविता की रचना-प्रक्रिया से बिल्कुल भिन्न है, जो मन की किसी प्रतिक्रिया-मात्र का रेखांकन करती है।

गजानन माधव मुक्तिबोध

‘मैला आँचल’ के अनेक आयामों में से एक यह भी है कि उसका काव्य-तत्त्व अत्यंत प्रबल है।

श्रीलाल शुक्ल

कवि-जीवन की प्रथम-स्तरीय उपलब्धि, उस अंतःप्रकृति से साक्षात्कार है जो अपना कुछ विशेष कहना चाहती है, जिसके पास कुछ विशेष कहने के लिए है। इस आत्म-चेतना के प्रत्यक्ष संवेदनात्मक ज्ञान के बिना कोई कवि मौलिक नहीं हो सकता।

गजानन माधव मुक्तिबोध

हिंदी में राजनैतिक आलोचना करने वाले अख़बार अब नहीं हैं।

कृष्ण कुमार

काव्य की रचना-प्रक्रिया के अंतर्गत तत्व-बुद्धि, भावना, कल्पना, इत्यादि एक होते हुए भी, प्रभाव-संगठक आंतरिक उद्देश्यों की भिन्नता के साथ ही रचना-प्रक्रिया भी वस्तुतः बदल जाती है।

गजानन माधव मुक्तिबोध

भक्ति-आंदोलन का आविर्भाव, एक ऐतिहासिक-सामाजिक शक्ति के रूप में जनता के दु:खों और कष्टों से हुआ, यह निर्विवाद है।

गजानन माधव मुक्तिबोध

केवल ग्रामीण स्थिति देख-भर लेने से या गाँवों के वातावरण में लेखक के रहने से सच्चे यथार्थवादी साहित्य का जन्म नहीं हो सकता, जब तक लेखक की आत्मा ग्रामीणता में स्वयं नहीं पनपती और वहाँ की क्रिया-प्रतिक्रिया से प्रवहनशील होकर साहित्य में नहीं उतरती।

गजानन माधव मुक्तिबोध

भक्तिकालीन संतों के बिना महाराष्ट्रीय भावना की कल्पना नहीं की जा सकती, सिख गुरुओं के बिना सिख जाति की।

गजानन माधव मुक्तिबोध

देवकीनंदन खत्री और किशोरीलाल गोस्वामी के रहस्य-रोमांच भरे उपन्यासों में भी एक आदर्शवादिता है, जो असामाजिक मान्यताओं को बढ़ावा नहीं देती।

श्रीलाल शुक्ल

हमारे पूर्ववर्ती लोगों और विदेशियों की कृतियों का आलोचनात्मक विवेचन किए बिना उन्हें अपनी कृतियों में रोप देना अथवा उनका अनुकरण करना कला-साहित्य के क्षेत्र में एक अत्यंत असृजनशील और हानिकारक कठमुल्लावाद है।

माओ ज़ेडॉन्ग

पंडित रामचंद्र शुक्ल के इस कथन में हमें पर्याप्त सत्य मालूम होता है कि भक्ति आंदोलन का एक मूल कारण जनता का कष्ट है। किंतु पंडित शुक्ल ने इन कष्टों के मुस्लिम-विरोधी और हिंदू-राजसत्ता के पक्षपाती जो अभिप्राय निकाले हैं, वे उचित नहीं मालूम होते।

गजानन माधव मुक्तिबोध

सुधारवादियों की तथा आज की भी एक पीढ़ी को तुलसीदासजी के वैचारिक प्रभाव से संघर्ष करना पड़ा, यह भी एक बड़ा सत्य है।

गजानन माधव मुक्तिबोध

जिस तरह सामाजिक व्यथा से जाग्रत मानवी-आत्मा यथार्थवादी हो जाती है, उसी तरह अपनी संपन्न परिस्थिति में; अपनी भावनाओं के मनोहर कोष से चेतन मानव-आत्मा, भावना-प्रधान और कल्पना-प्रधान—जिसे रोमैंटिक कहते हैं, हो जाती है।

गजानन माधव मुक्तिबोध

औरों की कमज़ोरियों की तरफ़ देखें, औरों की नुक्ता-चीनी करें—अपनी तरफ़ देखें। अगर हर एक आदमी अपना-अपना कर्तव्य करता है, अपना-अपना फ़र्ज़ अदा करता है, तो दुनिया का काम बहुत आगे जाएगा।

जवाहरलाल नेहरू

भक्ति-भावना के राजनीतिक गर्भितार्थ थे। ये राजनीतिक गर्भितार्थ तत्कालीन सामंती शोषक वर्गों और उनकी विचारधार के समर्थकों के विरुद्ध थे।

गजानन माधव मुक्तिबोध

वास्तव में देखा जाए तो रोमांस और यथार्थवाद में केवल परिस्थिति का भेद है।

गजानन माधव मुक्तिबोध

पशु इतने अच्छे मित्र होते हैं कि तो वे प्रश्न पूछते हैं, आलोचना करते हैं।

जॉर्ज इलियट

शृंगार-भक्ति का रूप उसी वर्ग में सर्वाधिक प्रचलित हुआ, जहाँ ऐसी शृंगार-भावना के परिपोष के लिए पर्याप्त अवकाश और समय था—फुर्सत का समय।

गजानन माधव मुक्तिबोध

दूसरों की ग़लतियों की आलोचनाएँ ज़रूर की जाएँ लेकिन हमें अपनी तरफ़ भी ज़रूर देखना चाहिए।

जवाहरलाल नेहरू

अनुचित आलोचना परोक्ष रूप में आपकी प्रशंसा ही है। स्मरण रखिए कोई भी व्यक्ति मृत कुत्ते में लात नहीं मारता।

डेल कार्नेगी