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भामह

काव्यशास्त्र के सुप्रसिद्ध आचार्य, काव्यालङ्कार के रचियता।

काव्यशास्त्र के सुप्रसिद्ध आचार्य, काव्यालङ्कार के रचियता।

भामह की संपूर्ण रचनाएँ

उद्धरण 50

‘यह सुरक्षित कुसुम ग्रहण करने योग्य है; यह ग्राम्य है, फलतः त्याज्य है; यह गूँथने पर सुंदर लगेगा; इसका यह उपयुक्त स्थान है और इसका यह’—इस प्रकार जैसे पुष्पों को भली-भाँति पहचानकर माली माला का निर्माण करता है, उसी प्रकार सजग बुद्धि से काव्यों में शब्दों का विन्यास करना चाहिए।

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कवित्व-शक्ति से विहिन व्यक्ति का शास्त्रज्ञान धनहीन के दान के समान, नपुंसक के अस्त्रकौशल के समान तथा ज्ञानहीन की प्रगल्भता के समान निष्फल होता है।

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दिवंगत होने पर भी सत्काव्यों के रचयिताओं का रम्य काव्य-शरीर; निर्विकार ही रहता है और जब तक उस कवि की अमिट कीर्ति पृथ्वी और आकाश में व्याप्त है, तब तक वह पुणयात्मा देव-पद को अलंकृत करता है।

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सत्यकाव्य का प्रणयन पुरुषार्थचतुष्टय एवं कलाओं में निपुणता, आनंद और कीर्ति प्रदान करता है।

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सन्निवेश के वैशिष्टय के कारण कभी-कभी सदोष कथन भी सुंदर बन जाता है—जैसे फूलों की माला के मध्य गूँथे हुए हरे पत्ते।

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