माया पर उद्धरण
‘ब्रह्म सत्यं, जगत मिथ्या’—भारतीय
दर्शन में संसार को मिथ्या या माया के रूप में देखा गया है। भक्ति में इसी भावना का प्रसार ‘कबीर माया पापणीं, हरि सूँ करे हराम’ के रूप में हुआ है। माया को अविद्या कहा गया है जो ब्रह्म और जीव को एकमेव नहीं होने देती। माया का सामान्य अर्थ धन-दौलत, भ्रम या इंद्रजाल है। इस चयन में माया और भ्रम के विभिन्न पाठ और प्रसंग देती अभिव्यक्तियों का संकलन किया गया है।
जिस प्रकार इन्द्रियों का प्राकृतिक बोध—ज्ञान नहीं—बल्कि एक भ्रान्त प्रतीति है—उसी प्रकार इंद्रियों द्वारा अनुभूत प्रत्येक आनन्द वास्तविक और सच्चा आनन्द नहीं है।
हर वस्तु माया और सत्य के द्वित्व से पूर्ण है।
दुनिया एक रहस्यमय और उलझन भरी जगह है। अगर तुम उलझन में नहीं पड़ना चाहते, तो तुम बस किसी और के दिमाग़ की नक़्ल बन जाते हो।
जो अमृत रूपी मदिरा का व्यापारी होता है, वह तुच्छ सांसारिक मद से क्यों प्रेम करे?
हे मन! मायाजाल में मत फँसो, काल अब ग्रसना ही चाहता है।
यथार्थ और भ्रम के अपने-अपने आकर्षण हैं। यथार्थ को जानते हुए भ्रम में रहना एक तीसरा रास्ता है, और उसके आकर्षण कम नहीं।
जिन्होंने अपने अंतर में सांसरिक मोह को त्याग दिया है, वे सतिगुरु से मिलकर मुक्त हो गए।
प्रभु ने कहीं पुरुष बना दिए तो कहीं नारियाँ—ये सारे भी छल रूप हैं, जो इस पति-पत्नी वाले संबंध के छल से भ्रमित होकर नष्ट हो रहें।
इस जगत में कहीं इन राजाओं के शामियाने व महल हैं, ये भी छल रूप हैं और इनमें रहने वाला राजा भी छल ही है।
जितना भी मोह, प्रेम एवं स्वाद है—ये सभी हमारे मन को लगे हुए कालिख के केवल दाग़ ही हैं।
ये सारा जगत है तो छल, पर यही छल सभी जीवों को प्यारा लग रहा है, शहद की तरह मीठा लग रहा है, इस तरह यह छल सारे जीवों को डुबो रहा है।
माया से द्वैत भाव; जगत् के चित्त में आकर बस जाता है। काम, क्रोध, अहंकार से होता है विनाश।
सभी वहम ख़ूबसूरत नहीं होते।