प्रकृति पर दोहे
प्रकृति-चित्रण काव्य
की मूल प्रवृत्तियों में से एक रही है। काव्य में आलंबन, उद्दीपन, उपमान, पृष्ठभूमि, प्रतीक, अलंकार, उपदेश, दूती, बिंब-प्रतिबिंब, मानवीकरण, रहस्य, मानवीय भावनाओं का आरोपण आदि कई प्रकार से प्रकृति-वर्णन सजीव होता रहा है। इस चयन में प्रस्तुत है—प्रकृति विषयक कविताओं का एक विशिष्ट संकलन।
हेली तिल तिल कंत रै, अंग बिलग्गा खाग।
हूँ बलिहारी नीमड़ै, दीधौ फेर सुहाग॥
नीम की प्रशंसा करती हुई एक वीरांगना कहती है—हे सखी! पति के शरीर पर तिल-तिल भर जगह पर भी तलवारों के घाव लगे थे परंतु मैं नीम वृक्ष पर बलिहारी हूँ कि उसके उपचार ने मुझे फिर सुहाग दे दिया।
भौंर भाँवरैं भरत हैं, कोकिल-कुल मँडरात।
या रसाल की मंजरी, सौरभ सुख सरसात॥
इस ग्राम की मंजरी पर कहीं तो भँवरे मँडरा रहे हैं और कहीं कोयल मस्त हो रही है; इस प्रकार यह आम्रमंजरी सुगंधि और सुख को सरसा रही है।
पीत वर्ण तन पूर्णता
जैसे खिला उजास।
अमलतास तुझको कभी
देखा नहीं हताश॥
भीषण कोविड के समय
फुलवारी आबाद।
भौंरे के संग तीतरी
करे खुला संवाद॥